
नामीबिया से 8 अफ्रीकी चीते भारत आए हैं. मगर 101 साल पहले 1921 में जयपुर के राजा माधो सिंह द्वितीय ने समुद्र के जहाज और रेल से दो चीते इंग्लैंड से मंगवाए थे. राजस्थान के जंगलों खासकर ढूंढाड़ के जंगलों में जब चीते खत्म हो गए तो जयपुर के राजा माधो सिंह द्वितीय ने 1914 में हैदराबाद के निजाम को पत्र लिखकर चीता मांगा था. लेकिन जवाब में हैदराबाद के निजाम ने लिखा कि यहां भी चीते खत्म हो गए हैं.
जयपुर में आज भी मुहल्ला चीतावलान है जहां निजाम भवन में अफगान से आए परिवार जयपुर राजघराने के चीते पालते थे और ट्रेनिंग देते थे. 1921 में जब इंग्लैंड से विल फ्रायड भारत आए तो जयपुर महाराज ने आग्रह किया कि हमारे जंगलों में चीते खत्म हो गए हैं और पालतू चीते भी मर गए हैं. इसलिए हमें चीते भेज दीजिए.
जहाज और रेल के जरिए जयपुर लाए गए चीते
जयपुर के इतिहासकार जितेंद्र सिंह शेखावत के अनुसार, विल फ्रायड की मौत हो गई. मगर उनकी पत्नी ने वादा निभाया और कावस जदीन फर्म के जरीए चीते के दो शावक समुद्री जहाज से भेजे. फिर वहां से चीतों को रेल के जरिए जयपुर लाया गया.
चीता पालने के लिए मिलता था लाइसेंस
जयपुर राजघराने में उपलब्ध दस्तावेजों के अनुसार, 26 अगस्त 1931 से नन्हे खान को रामनिवास बाग जन्तु आलय में चीते की देखभाल के लिए 10 रुपए महीने मिलते थे. जयपुर के रामगंज मुहल्ले में बहुत सारे परिवारों के चीता पालने के लाइसेंस मिलते थे. ये मुगलों से लेकर अंग्रेजों तक को शिकार का खेल दिखाते थे. राजा भी इन्हें अपने साथ शिकार पर ले जाते थे.
अकबर के पास थे 9000 चीते
बता दें कि भारत में सदियों तक चीतों के जरिए शिकार का प्रचलन रहा है. बाघ की तुलना में चीतों पर नियंत्रण करना आसान था. जो सबसे पहला रिकॉर्ड मिलता है चीतों की मौजूदगी का, वो है 12वीं सदी के संस्कृत दस्तावेज मनसोलासा. इसे सन 1127 से 1138 के बीच शासन करने वाले कल्याणी चालुक्य शासक सोमेश्वरा-तृतीय ने तैयार किया था. मुगल काल में अकबर ने शिकार के लिए चीतों का भरपूर उपयोग किया था. कहा जाता है कि उसके पास 9000 चीते थे.
जहांगीर ने चीतों की मदद से 400 एंटीलोप का शिकार किया
जहांगीर ने 1605 से 1627 के बीच चीतों की मदद से 400 एंटीलोप का शिकार किया था. इनमें से ज्यादातर शिकार पालम परगना में किए गए थे. जो आज की तारीख में नई दिल्ली के इंटरनेशनल एयरपोर्ट के पास था. देश के कुछ राज्यों में चीतों को पकड़ने की प्रक्रिया तेजी से चल रही थी. जैसे राजस्थान का जोधपुर और झुंझुनू, पंजाब का बंठिडा और हरियाणा का हिसार. चीतों को पकड़ने के बाद उन्हें कैद में रखा जाता था. इसके बाद आना शुरू हो गया ब्रिटिश राज.
ब्रिटिश राज में चीतों की प्रजाति होने लगी विलुप्त
ब्रिटिश शासकों को चीतों में कम रुचि थी. वो बड़े शिकार करते थे. शेर, बाघ, बाइसन और हाथी. चाय और कॉफी प्लांटेशन और विकास कार्यों के नाम पर ब्रिटिश राज में जंगलों का सफाया होने लगा. रहने लायक जगह की कमी और ज्यादा शिकार की वजह से चीतों की प्रजाति धीरे-धीरे विलुप्त होने लगी.
कोल्हापुर और भावनगर में मंगवाए गए चीते
1920 तक राजे-महाराजे चीतों की मदद से शिकार करने की प्रथा जारी रखे हुए थे. इस दौर में चीतों का सबसे ज्यादा शिकार कोल्हापुर और भावनगर के महाराजाओं ने किया. जंगल में इस समय चीते दिखना बंद हो गए थे. इतना ही नहीं, इस दौर में अफ्रीका से चीते खरीदे जाते थे.
1918 से 1939 के बीच कोल्हापुर और भावनगर में अफ्रीका से कई चीते खरीद कर मंगवाए गए. कहा जाता है कि प्रथम विश्व युद्ध के ठीक पहले भावनगर के महाराजा भावसिंहजी द्वितीय ने केन्या से कई चीते मंगवाए थे.
30 के दशक में भावनगर में 32 इंपोर्टेड चीते थे. स्वतंत्र भारत में भी चीतों का आयात जारी था लेकिन ये सिर्फ चिड़ियाघरों में प्रदर्शन के लिए. 1949 से 1989 तक देश के सात चिड़ियाघरों में 25 चीते मौजूद थे. ये सभी विदेशों से आए थे.