चैत्र नवरात्र का आगमन होने वाला है. घरों में घट स्थापना के लिए तैयारी जा रही है. देवी दुर्गा के व्रत और अनुष्ठान वाले यह नौ दिन बहुत ही पावन माने जाते हैं. एक तो इसी दिन से विक्रमी संवत के नव वर्ष की शुरुआत होती है तो दूसरा यह कि अध्यात्मिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी यह समय बदलाव का होता है. इस दौरान चंद्रमा के आकर्षण बल के कारण मन में उथल-पुथल सी स्थिति रहती है और इसी को साधने का पर्व है नवरात्र.
देवी के शताक्षी और शाकुंभरी अवतार
नौ दिन के इस अनुष्ठान की ईष्ट देवी दुर्गा हैं. उनकी पूजा कई स्वरूपों में की जाती है, लेकिन उनके स्वरूप को समझने की भी जरूरत है, क्योंकि वह सिर्फ एक देवी का नाम नहीं है, बल्कि सामाजिक ताने-बाने और जीवन के लिए जरूरी जो भी नियम हैं, उनकी शुरुआत हैं. देवी का एक नाम शताक्षी और शाकुंभरी है. शताक्षी नाम का अर्थ है, सौ आंखों वाली और शाकुंभरी का अर्थ है, शाक-सब्जी से भरण-पोषण करने वाली. सवाल है कि देवी को ये दोनों नाम कैसे मिले?
देवी भागवत पुराण में है कथा
देवी भागवत पुराण में इस कथा का जिक्र मिलता है. हुआ ऐसा कि, देवी भुवनेश्वरी की प्रेरणा से ब्रह्मदेव ने सृष्टि की रचना और पालक विष्णु ने आत्मिक शक्तियों से सूर्य-चंद्रमा और अन्य देवों को प्रकट कर सभी को उनके लोक दिए और उन्हें स्थापित किया. महादेव शिव के आदेश से असुर पाताल लोक के अधिपति बनाए गए और स्वयंभू मनु के निर्देशन में पृथ्वी पर मानव समाज प्रगति की राह पर चला. श्रीहरि योगमाया के सहयोग से पालन-पोषण का काम देखते थे. देवी सरस्वती ने ब्रह्म प्रेरणा से पृथ्वी को सरस बनाया, जगत में वाणी और शब्द दिए. ब्रह्मदेव ने वेद रचे और देवताओं को उसका ज्ञान दिया. मनुष्यों के लिए यह ज्ञान साधना के बल पर अर्जित करने का नियम बनाया गया.
असुर क्यों करते थे युद्ध
इधर, खुद को पाताल लोक मिलने से असुर स्वर्ग के प्रति जलन रखते थे, वेदों के ज्ञान को भी स्वर्ग में दिए जाने से वह अपमानित महसूस करते थे. वे यह नहीं समझते थे कि यह दोनों ही अमूल्य निधि दी या ली नहीं जा सकती, बल्कि तप-साधना से ही पाई जा सकती है. असुर दिए हुए राज्य को अस्वीकार करते रहे और सहज प्राप्त की जा सकने वाली निधियों के लिए लड़ते रहे. उनकी कई पीढ़ियां इसी में खप गईं.
रुरु दैत्य के वंश में जन्मा था दुर्गम असुर
यह क्रम लगातार चल रहा था. एक बार की बात है. असुर हिरण्याक्ष के वंश में रुरु नाम का एक दैत्य हुआ. पीढ़ियों से चलते आ रहे हठ के फलस्वरूप उसने भी स्वर्ग की लालसा में युद्ध को निमंत्रण दिया, लेकिन मारा गया. उसके बाद उसका पुत्र दुर्गमासुर राजा बना. इसका एक नाम दुर्गम भी था, और राजा बनते ही दुर्गम ने पीढ़ियों से चले आ रहे हठ को ही आगे बढ़ाने का काम किया.
उसने देखा कि देवता वेदमंत्रों की शक्ति से संचालित होते हैं और यज्ञ की हवि से उन्हें ऊर्जा मिलती है तो उसने छल का सहारा लिया. असुर ने कठोर तपस्या कि और ब्रह्मदेव को अपने वरदान में फंसाकर उनसे मांगा कि संसार से वेदों का ज्ञान ही लुप्त कर दिया जाए. ब्रह्मदेव असमंजस में पड़ गए, लेकिन चूंकि वह वचन दे चुके थे, इसलिए उन्हें वेदों का ज्ञान लुप्त करना पड़ा. ऐसा होने से संसार फिर से वहीं उसी दौर में पहुंच गया, जहां वह सभ्यताओं के शुरू होने से पहले की स्थिति में था.
वेदों का ज्ञान मांगने की बजाय वेदों को लुप्त करने का वरदान मांगा
मूर्ख था असुर राजा दुर्गम. वह चाहता तो वेदों का ज्ञान मांग सकता था, लेकिन कहते हैं कि जितनी बुद्धि उतनी सिद्धि. वह ज्ञान मांगने की बजाय ज्ञान को लुप्त करने का वरदान मांग आया था. दुर्गमासुर ने वरदान के स्वरूप वेदों को छिपा दिया और इस तरह ज्ञान के लुप्त हो जाने के बाद पाप का साम्राज्य फैलाने लगा. परिणाम हुआ कि ऋषि शालाओं में वेदमंत्रों के पाठ बंद हो गए. लोग सहजता-सरलता भूलकर कठोर होने लगे.
धरती पर पड़ गया अकाल
इसका असर वातावरण पर भी पड़ा और धरती अकाल ग्रस्त हो गई. सूर्य का तेज बढ़ गया और नदियां सूख गईं. चारों ओर हाहाकार मच गया और यह देख दुर्गम अट्टहास करता हुआ स्वर्ग जीतने चल पड़ा. हवि और यज्ञ भाग न मिलने देवता कमजोर पड़ गए और उन्हें दुर्गम से हारना पड़ा. सारी धरती पर केवल तपिश देखकर देवगण क्षीरसागर पहुंचे.
इस पूरे घटनाक्रम की जानकारी भगवान विष्णु को भी थी. देवताओं के आते ही वह उनकी समस्या समझ गए इसलिए वह उठ खड़े हुए और देवताओं से कहा कि, तुम सब जिस आशा से मेरे पास आए हो, वह मैं पूरी नहीं कर सकता हूं, लेकिन सहयोग कर सकता हूं. उन्होंने कहा कि, इस कष्ट का निवारण सिर्फ जगदंबा ही कर सकती हैं. इसलिए सभी ने मिलकर एक बार फिर देवी को पुकारा. उन्होंने उनको शुंभ-निशुंभ विदारिणी कहा, चंड-मुंड संहारिनी कहकर पुकारा, महिषासुर घातिनी कहकर याद किया और रक्तबीज का वध करने वाली देवताओं को बार-बार अभय देने वाली मां कहकर पुकारा और उनसे सामने आने की विनती की.
तब प्रकट हुईं देवी अंबा
सभी देवताओं की आंखें बंद थीं और भगवान विष्णु के आज्ञाचक्र से एक तेजपुंज निकल रहा था. देवताओं की पुकार सुन देवी अंबिका उसी तेजपुंज से निकलकर अपने भव्य स्वरूप में प्रकट हुईं. देवतागण उन्हें देखकर हर्षित हो गए. तब देवी ने भगवान विष्णु की ओर देखकर कहा-जगतपालक, देवताओं पर अब क्या संकट आया है?
हरि ने कोमल स्वरों में कहा- मेरे आज्ञाचक्र में निवास करने वाली पालन शक्ति की प्रेरणा देवी योगमाया. इस समय केवल देवताओं पर ही संकट नहीं है. आपकी प्रिय संतान मनुष्य भी परेशान है और कष्ट भोग रहा है. वैसे तो आप सब जानती हैं, लेकिन फिर भी आप उनके कष्ट अपनी आंखों से देखें, फिर निर्णय करें कि क्या करना है. असुरों ने तो देवताओं को केवल युद्ध में हराया है, लेकिन मानव जाति पर तो वह अज्ञानता और पाप का बोझ डाल रहा है.
देवी का शताक्षी अवतार
भगवान विष्णु के ऐसे करुणा भरे शब्द सुनकर देवी ने एक ही बार में संपूर्ण विश्व को देखने के लिए 100 नेत्र प्रकट किए. उनका पूरा शरीर दिव्य नेत्रों से भर गया.तब उन्होंने देखा कि मनुष्य प्यास से भटक रहा है. कृषकाय और कमजोर हो चुके हिरण, शेरों से बचाव के लिए भाग नहीं रहे, शेर भी इतने कमजोर हैं कि सामने पड़े आहार को भी नहीं खा रहे.
विश्व इस वक्त प्यासा है. उसे शीतल जल चाहिए, शीतलता देने वाला ज्ञान चाहिए. करुणा न के बराबर है. अत्याचार है, लेकिन दया कहीं नहीं. देवी का अंबा (मां) स्वरूप यह सब देख कर रो पड़ा. उनके आंसू धरती पर गिरे तो जलधारा बन गए. इससे देवी ने फिर से धरती को सींच दिया. देवी का 100 नेत्रों वाला यह रूप शताक्षी कहलाया. शताक्षी का अर्थ होता है सौ आंखों वाली.
शताक्षी स्वरूप का क्या है अर्थ?
अब देवी के इस रूप को ऐसे समझना चाहिए कि देवी ने मनुष्यों को खेती करना सिखाया और सभ्य समाज की फिर से नींव रखी. हो सकता है कि प्राचीन काल में किसी ज्ञानी विद्वान महिला के नेतृत्व में नदियों की जलधारा को नहरों के जरिए मोड़ा गया होगा और फिर उससे जल संकट को दूर किया गया होगा. देवी शताक्षी को ताल-तालाबों और पोखरों की देवी माना जाता है और उन्हें गंगा की बहन मानकर पूजा की जाती है. यहां बता दें कि गंगा और देवी पार्वती आपस में बहने ही हैं, क्योंकि दोनों ही पर्वतराज हिमालय की पुत्री हैं.
इसके अलावा ऋग्वेद में जो वृ्त्त असुर की कथा आती है, वह भी कुछ इसी तरह की जब, इंद्र ने पहाड़ों में बंधे जल को रास्ता दिया और वह धरती पर नदी बनकर बह सका. इससे पहले वृत्त नाम के एक असुर ने नदियों के जल को रोक रखा था.
देवी भागवत पुराण में जिक्र आता है कि, पृथ्वी को सींचने के बाद देवी ने अकाल को दूर करने का निर्णय लिया. उन्होंने अपनी सूक्ष्म शक्ति की ओर देखा और दोनों देवियों के प्रभाव से एक तेजपुंज प्रकट हुआ. देवताओं ने देखा कि चेहरे पर तेज, ग्रामीण वेश और सरलता की प्रतिमूर्ति. एक हाथ में धान्य तो दूसरे में पौधे की लता. देवी अब कृषक अवतार में थीं. वह किसी किसान स्त्री की तरह लग रही थीं. देवी का यह स्वरूप अत्यंत शांति देने वाला मातृस्वरूपा है. कैलाश पर देवी पार्वती अन्नपूर्णा स्वरूप में रहती हैं. उनकी प्रेरणा से जब भगवती के प्रकट स्वरूप ने धरती पर देखा तो द्रवित हो उठीं.
देवी का शाकुंभरी स्वरूप
उन्होंने पहले तो अपने भक्तों का भय दूर किया और उन्हें कृषि कर्म की प्रेरणा दी. देवी की कृपा से धरती फिर से शाक-सब्जियों से हरी-भरी हो गई. देवी का यह स्वरूप शाकंभरी कहलाया. यानी कि शाक से भरण करने वाली. उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में शाकंभरी माता का विख्यात मंदिर है. यह 51 शक्तिपीठों में से एक है. नवरात्र के अलावा भी सामान्य दिनों में देवी के भक्त माता के दर्शन करने यहां पहुंचते हैं.
इसी घटनाक्रम में देवी अंबा को उनका प्रसिद्ध नाम दुर्गा मिला था और आगे चलकर वह मां दुर्गा कहलाईं, देवी को यह नाम मिला कैसे? इसकी जानकारी अगले हिस्से में.