चैत्र नवरात्र देवी दुर्गा की आराधना के दिन हैं. इन नौ दिनों के मायने सिर्फ इतने भर ही नहीं हैं, आप नौ दिन भजन-पूजन और व्रत करें, बल्कि विक्रम संवत की शुरुआत के ये पहले 9 दिन हमारी चेतना और जागृति के भी दिन हैं. यह शारीरिक और आत्मिक शुद्धि का समय है. देवी दुर्गा की आराधना विकारों को दूर कर सकारात्मकता को अपनाने का समय है. दुर्गा देवी इसलिए भी इसकी प्रधान और ईष्ट भगवती हैं, क्योंकि उन्होंने व्यवहारिक तौर पर भी नकारात्मक शक्तियों को दूर किया है, बल्कि उनका नाम दुर्गा भी इसीलिए पड़ा है, क्योंकि उन्होंने नकारात्मक तत्वों को दूर करने के दुर्गम कार्य को सिद्ध किया है.
पौराणिक कथाओं में है दुर्गम विजय का जिक्र
पौराणिक कथाओं में इसका जिक्र दुर्गम विजय के तौर पर मिलता है. ऐसा कहा जाता है कि मां अंबा ने दुर्गम नाम के एक असुर का वध किया था और फिर उसी असुर पर विजय के बाद देवी दुर्गा कहलाईं. देवी भागवत पुराण में इस कथा का वर्णन विस्तार से मिलता है.
कथा कुछ ऐसी है कि, असुर हिरण्याक्ष के वंश में रुरु नाम का एक दैत्य हुआ था. इसी का पुत्र था दुर्गम. राजा बनते ही दुर्गम स्वर्ग विजय के सपने देखने लगा था. इसके लिए उसने एक चाल चली. उसने ब्रह्माजी की तपस्या कर चतुराई से वेदों को मांग लिया था. इससे संसार में असंतुलन पैदा हो गया. दुर्गमासुर ने वरदान के स्वरूप वेदों को छिपा दिया और इस तरह ज्ञान के लुप्त हो जाने के बाद पाप का साम्राज्य फैलाने लगा. परिणाम हुआ कि ऋषि शालाओं में वेदमंत्रों के पाठ बंद हो गए. लोग सहजता-सरलता भूलकर कठोर होने लगे. संसार में अकाल पड़ गया और सभ्यता नष्ट होने लगी.
देवी का शताक्षी और शाकुंभरी अवतार
तब भगवान विष्णु और देवताओं के आह्वान पर देवी अंबा प्रकट हुईं और उन्होंने जब धरती वासियों के कष्ट सुनें तो उन्हें देखने के लिए अपने शरीर पर आंखें ही आंखें प्रकट कर लीं. करुणा से उन आंखों से जल बहने लगा और इससे नदियां फिर से बहने लगीं. देवी का यह स्वरूप शताक्षी कह लाया. इसके बाद, देवी ने शाक-सब्जियों को प्रकट कर उनसे लोगों का भरण पोषण किया और फिर शाकुंभरी कहलाईं. शाकुंभरी पीठ 51 शक्ति पीठों में से एक है और उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में देवी का स्थान है. जहां श्रद्धालु दर्शनों के लिए पहुंचते हैं.
असुर दुर्गम से देवी ने मनुष्यता को बचाया
देवी के इन दो स्वरूपों के कारण धरती पर फिर से परिवर्तन होने लगा. अब बारी थी, असुर दुर्गम के अत्याचारों के नाश की. धरती पर अनायास हुए इस परिवर्तन की सारी गाथा कहने एक दूत पाताल की ओर भाग चला. दुर्गम से उसने पृथ्वी की हरियाली का हाल सुनाते हुए कहा- राक्षसराज आपका प्रभाव समाप्त हो गया. इस बात से क्रोधित असुर ने उसका शीष काट डाला और खुद ही सारा रहस्य समझने सेना सहित चल पड़ा. पृथ्वी पर पहुंचकर वह चौंका और इसे फिर से नष्ट करने के लिए प्रहार किया, लेकिन देवी ने एक सुरक्षा चक्र बनाकर मनुष्यों की रक्षा कर ली. दुर्गम ने सामने आने की चेतावनी दी देवताओं सहित देवी उसके सामने प्रकट हो गईं.
दुर्गमासुर और देवी के बीच हुआ भीषण युद्ध
देवताओं को वहां देखकर दुर्गम ने उन पर मोहिनी अस्त्र का प्रयोग किया और सभी राक्षसों सहित देवी और देवताओं की सेना पर टूट पड़ा. मोहिनी अस्त्र के कारण ही देवता दुर्गम से लड़ने में भ्रमित हो जाते थे और जहां देखते वहां दुर्गम को ही पाते थे. यह दुविधा देखकर देवी को क्रोध आ गया और उनकी भृकुटि तन गईं, केश लहराने लगे, भुजाएं फड़कने लगीं और नेत्रों से अंगार फूटने लगे. इन सभी अंगों से देवी के 64 योगिनी स्वरूप प्रकट हुए और उन सभी की सह शक्तियों ने मिलकर एक अनंत सेना का निर्माण कर लिया. देवी अंबिका ने फिर चंडिका स्वरूप धारण किया और सिंह सवारी कर दानव दल पर टूट पड़ीं.
दोनों ही सेनाओं के बीच भयंकर युद्ध छिड़ गया. दुर्गम लगातार अपनी मायावी शक्तियों से प्रहार करता, लेकिन योगमाया के सामने उसकी एक नहीं चलती. देवी के शरीर से उत्पन्न उग्र शक्तियां भी सेनाओं का संहार कर रही थीं. काली, तारा, बाला, त्रिपुरसुंदरी, भैरवी, रमा, बगला, मातंगी, कामाक्षी, जम्भिनी, मोहिनी, छिन्नमस्ता महाविद्या और इनकी सहायक शक्तियों ने भयंकर युद्ध कर सेना को समाप्त कर डाला. नवें दिन सारी सेना समाप्त हो गई और दसवें दिन केवल रणचंडी और दुर्गम मैदान में बचे रहे. असुर की सारी शक्तियां समाप्त करने के बाद देवी ने त्रिशूल के सहारे उसे उठाया और धरती पर पटक दिया.
देवी ने किया दुर्गमासुर का अंत
हारे हुए दुर्गम ने जब मस्तक ऊपर उठाया तो उसे अनंत आकाश की ऊंचाई तक भुवन मोहिनी स्वरूप दिखाई दिया, और जब खुद को देखा तो पाया कि वह सागर किनारे पड़ी किसी रेत का लक्षांश भी नहीं है. उसने मन ही मन देवी के कल्याणी स्वरूप को देखने की इच्छा प्रकट की तब देवी ने उसे सूक्ष्म रूप से अष्टभुजा स्वरूप के दर्शन कराए. इसके बाद दुर्गम ने त्रिशुल के घात से निकल रहे रक्त के सहारे प्राण त्याग दिए. असुर का अंत होते ही देवताओं ने त्रिदेवों सहित मां अंबिका की स्तुति की.
इस तरह मिला भगवती को देवी दुर्गा का नाम
इस अवसर पर भगवान विष्णु ने कहा, इस असुर के वध का कठिन कार्य आपने सिद्ध किया है, इसने भी अंत समय में आपकी निस्वार्थ भक्ति की है, अतः आज से आप दुर्गमनाशिनी के तौर पर पूजी जाएंगी और आप का नाम देवी दुर्गा होगा. इसी नाम से संसार आपका जप, तप, व्रत और ध्यान करेगा. संसार आपके इसी अष्टभुजी स्वरूप की वंदना करेगा और स्त्री समाज इसी स्वरूप अपने संबल की प्रेरणा मानेगा. इसके बाद देवता भी एक सुर में बोल पड़े- जय मां दुर्गे, जय भवानी दुर्गे. उन्हें एक बार फिर अभय का वरदान मिल गया था. नवरात्र में इन्हीं मां दुर्गा की पूजा की जाती है.