अपने जमाने के मशहूर शायर मीर-तकी-मीर 300 साल पहले जब लखनऊ आए थे, तब यहां की फिजा रंगीन थी. आसमां, आसमानी नहीं था, बल्कि कहीं लाल, कहीं पीला तो कहीं गुलाबी था. जमीं से फलक तक और जहां तक निगाह जाती थी तहां-तहां सिर्फ रंग ही रंग नजर आते थे. मीर साहब की नजरों ने ये देखा तो बोल पड़े...
होली खेले असफउद्दौला वज़ीर,
रंग सोबत अजब हैं ख़ुरदोपीर
कुमकुमे जो मारकर भरकर गुलाल,
जिसके लगता आकर फिर मेहंदी लाल
असल में शायर मीर साहब ने तब के नवाब रहे आसफ़उद्दौला को यूं खुशदिली से होली मनाते देखा तो पहले तो अचरज में पड़े और फिर उन्होंने अवध की असली रंगत को पहचाना तो उसके कायल हो गए.
बेलौस अंदाज और बेलाग अदा का त्योहार है होली
होली त्योहार ही ऐसा है. बेलौस अंदाज और बेलाग अदा का त्योहार. आदमी इस दिन हाथ नहीं मिलाता, सीधे गलबहियां करता है. गले मिलने की इस बात के जिक्र पर जोर इसलिए है कि दो मर्दों के बीच गले मिलने वाली एक्टिविटी बहुत आम नहीं है. दो मर्द यूं झट से किसी को गले नहीं लगा लेते हैं, लेकिन होली एक ऐसा मौका होता है, जहां दो मर्द भी बड़ी मोहब्बत के साथ एक-दूसरे के कंधों पर सिर टिकाकर तीन बार गले मिलने की रस्म अदायगी करते हैं. यहां थोड़ा रुककर ईद का भी जिक्र कर लेना चाहिए, जो इसी तरह गले लगने और गले मिलने का त्योहार है.
चर्चा में है '52 जुमा एक होली' का बयान
होली और ईद की बात करने की जरूरत इसलिए पड़ी कि इस वक्त दोनों का ही मौका है. होली का माहौल बना ही हुआ है और रमजान के तीस रोज बाद ईद भी आएगी, लेकिन चर्चा में है एक बयान, जिसमें कहा गया कि 'जुमा साल में 52 बार आता है और होली एक दिन.' इस बात के क्या मायने हैं और इसे लेकर किसने क्या कहा? इन सवालों के जवाब नहीं तलाशने हैं, बल्कि इस बहाने याद आ गए हैं वो किस्से जिन्होंने होली की यादों को और रंगीन बना दिया है.
जब अवध में मुहर्रम के दिन खेली गई होली
किस्सा अवध का ही है. अवध के नवाब थे वाजिद अली शाह. कहते हैं कि वो जमकर होली खेलते थे और इस रंग भरे समारोह में खुद भी बड़े जोश के साथ हिस्सा लेते थे. उनके शासन के दौरान ऐसा हुआ कि संयोग से होली और मुहर्रम एक ही दिन पड़ गए. होली हर्षोल्लास का मौक़ा है, जबकि मुहर्रम मातम का दिन. लखनऊ अवध की राजधानी थी और वहां हिंदुओं ने मुसलमानों की भावनाओं की क़द्र करते हुए उस साल होली न मनाने का फैसला किया.
खुद होली के रंग में शामिल हुए नवाब
मुहर्रम के मातम के बाद नवाब वाज़िद अली शाह ने पूछा कि शहर में होली क्यों नहीं मनाई जा रही? उन्हें जब वजह बताई गई, तो वाज़िद अली शाह ने कहा कि हिंदुओं ने मुसलमानों की भावनाओं का सम्मान किया इसलिए अब ये मुसलमानों का फर्ज बनता है कि वो हिंदुओं की भावनाओं का सम्मान करें. उन्होंने घोषणा की कि पूरे अवध में उसी दिन होली भी मनेगी और वह खुद होली खेलने वालों में सबसे पहले शामिल हुए.
नवाब वाजिद अली शाह तो होली के ऐसे दीवाने थे कि उन्होंने होली के लिए कविता भी रची थी. इसकी एक बानगी देखिए.
मोरे कन्हैया जो आए पलट के,
अबके होली मैं खेलूंगी डटके,
उनके पीछे मैं चुपके से जाके,
रंग दूंगी उन्हें भी लिपटके
इसी तरह, अवध गंगा-जमुनी तहजीब को लेकर एक और दिलचस्प नजीर पेश करता है. उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले में एक जगह है देवा शरीफ. यहां होली के दिन भारत की उस सोच की तस्वीर नजर आती है जिसमें हिंदू-मुसलमान एक रंग में रंगे नजर आते हैं. यहां हाजी वारिस अली शाह की दरगाह पर होने वाली होली एकता की ऐसी मिसाल कायम करती है कि, इस जैसी कोई दूसरी मिसाल नजर नहीं आती.
बाराबंकी के देवा शरीफ की होली
यहां होली मनाने के लिए देशभर से हर एक मजहब के लोग पहुंचते हैं और एक साथ होली मनाते हैं. यहां जाति-धर्म की सारी सीमाओं से हटकर भाईचारा दिखाई देता है. हाजी वारिस अली शाह की दरगाह पर खेली जाने वाली होली में उनके संदेश 'जो रब है वही राम' की पूरी झलक दिखाई देती है. करीब सौ साल से ज्यादा समय से इस दरगाह में होली खेली जाती रही है.
हाजी वारिस अली शाह की दरगाह पर खेला जाता है रंग
हाजी वारिस अली शाह की मजार उनके हिन्दू मित्र राजा पंचम सिंह ने बनवाई थी, इसके बनने के साथ ही यहां होली मनाई जा रही है.
सूफी संत हाजी वारिस अली शाह के दरगाह की यह होली बताती है कि, रंगों का कोई मजहब नहीं होता, बल्कि रंगों की खूबसूरती हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करती है. सूफी संत हाजी वारिस अली शाह यह कहते भी थे कि, 'जो रब है वही राम है.' उनके जमाने में लोग होली के दिन गुलाल व गुलाब के फूल लेकर आते थे और उनके कदमो में रखकर होली खेलते थे.
तभी से होली के दिन यहां कौमी एकता गेट से लोग नाचते-गाते गाजे-बाजे के साथ जुलूस निकालते हैं. यह जुलूस हर साल की तरह देवा कस्बे से होता हुआ, दरगाह तक पहुंचता है और इस जुलूस में हर धर्म के लोग शामिल होते हैं. यहां की होली खेलने की परंपरा सैकड़ों साल पहले ब्रिटिश सरकार के जमाने से चली आ रही है. होली पर कई क्विंटल गुलाल और गुलाब से यहां होली खेली जाती है.
होली है ही ऐसी... कोई इसके करीब आए और इसकी रंगत में न रंगे ऐसा कैसे हो सकता है. इस बात को सच साबित करती दिल्ली में हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह, जहां 14वीं सदी से ही वसंत उत्सव मनाया जा रहा है. हर साल वसंत पंचमी से लेकर फागुन तक दरगाह पर फूलों की होली का आलम रहता है.
अमीर खुसरो ने की थी औलिया के दर पर होली की शुरुआत
इस होली की शुरुआत खुद अमीर खुसरो ने की थी. जब औलिया अपने एक भतीजे के गम में ऐसे गमगीन हुए कि उन्हें सुध-बुध न रही, तब खुसरो साहब बड़े परेशान हुए. एक दिन उन्होंने देखा कि कुछ छोटे-छोटे बच्चे और यमुना में पानी भरने जाने वाली पनिहारिनें सरसों के पीले फूल लिए लौट रही थीं.
खुसरो ने पूछा, इसका क्या होगा? तो उन्होंने कहा एक फूल देव को एक फूल प्रेम को. यानी एक फूल पूजा में चढ़ाएंगे और दूसरा अपने प्रेमी को देंगे. खुसरो को ये बात बहुत जंच गई, वह भी औलिया के पास पीलों फूलों की टोकरी और रंग लेकर पहुंचे. उन्होंने रंग खेलने पर एक कविता भी रची.
दैया री मोहे भिजोया री शाह निजाम के रंग में.
कपरे रंगने से कुछ न होवत है
या रंग में मैंने तन को डुबोया री
पिया रंग मैंने तन को डुबोया
जाहि के रंग से शोख रंग सनगी
खूब ही मल मल के धोया री
पीर निजाम के रंग में भिजोया री.
उन्होंने वसंतोत्सव पर भी राग वसंत में रचना की और सबसे प्रसिद्ध गीत लिखा. 700 साल पुराने इस गीत को हाल ही में संजय लीला भंसाली ने अपनी वेब सिरीज हीरामंडी में शामिल किया था.
सकल बन फूल रही सरसों
बन बन फूल रही सरसों
अम्बवा फूटे टेसू फूले
कोयल बोले डार-डार
और गोरी करत सिंगार
मलनियाँ गढवा ले आईं कर सों
सकल बन फूल रही सरसों
तरह तरह के फूल खिलाए
ले गढवा हाथन में आए
निजामुद्दीन के दरवज्जे पर
आवन कह गए आशिक़ रंग
और बीत गए बरसों
सकल बन फूल रही सरसों
होली की रंगत का रंग जिस पर चढ़ा तो ऐसा ही चढ़ा.