उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले में पौराणिक और ऐतिहासिक माघ मेले का आगाज हो गया है. पुरातन काल में ये मेला तिब्बत और भारत के व्यापार का केंद्र रहा है. 9 दिवसीय इस मेले में जिले भर के ग्रामीण आकर मेल मिलाप कर मेले का आनंद लेते हैं.
कोरोना काल के बाद काशी विश्वनाथ नगरी उत्तरकाशी के प्रसिद्ध माघ मेले (बाड़ाहाट कु थौलू) का आगाज 14 जनवरी से हो गया है. 9 दिवसीय इस माघ मेले का धार्मिक और ऐतिहासिक महत्व है. धार्मिक मान्यताओं में यह मेला महाभारत काल से जुड़ा है. वहीं, ऐतिहासिक महत्व यह है कि यह मेला भारत और तिब्बत के व्यापार का साक्षी रहा है. जिला पंचायत हर साल इस मेले का आयोजन करता आ रहा है.
माघ मेले का पौराणिक नाम बाड़ाहाट का थौलू है. बाड़ाहाट का अर्थ बड़ा हाट यानी बड़ा बाजार है. बाड़ाहाट में आजादी से पहले तिब्बत के व्यापारी यहां सेंधा नमक, ऊन, सोना जड़ी-बूटी, गाय, घोड़े बेचने के लिए आते थे. उस समय यह मेला एक माह तक चलता था. तिब्बत के व्यापारी यहां से धान, गेहूं लेकर वापस लौटते थे.
इस मेले में टिहरी और उत्तरकाशी के ग्रामीण अपने देवताओं के साथ आते थे. गंगा स्नान के साथ-साथ खरीददारी भी करते थे. उत्तरकाशी का माघ मेला राजशाही के नियंत्रण में था. राजशाही के समय इस माघ मेले में तिब्बत से आने वाले व्यापारियों का हिसाब-किताब रखने के लिए अंतिम मालगुजार मुखबा निवासी पंडित विद्यादत्त सेमवाल थे. ये तिब्बत के व्यापारी टिहरी राज दरबार तक सामान पहुंचाते थे.
माघ मेले में 1962 तक तिब्बत के व्यापारी आते थे. उसके बाद जब सीमाएं बंद हुईं तो तिब्बत के व्यापारियों का यहां आना भी बंद हो गया लेकिन, इस पौराणिक और ऐतिहासिक मेले के आयोजन की परंपरा अभी भी चल रही है. धार्मिक महत्व के लिहाज से भी इस मेले को महाभारत काल का माना जाता है.
महाभारत के आदि पर्व में उल्लेख है कि वनवास के दौरान पांडव यहां आए थे. उत्तरकाशी के पास में लाक्षागृह था, जो आज लक्षेश्वर के नाम से जाना जाता है. इसीलिए इस मेले में पांडव नृत्य का भी खास महत्व है. मेले में पांडवों की विशेष पूजा अर्चना होती है.