शिव पूरी तरह से पारिवारिक व्यक्ति हैं. जहां पुराणों में वैष्णव मत के अनुसार विष्णु भगवान से पहले मानवीय स्वरूप में आकर तब महानता के चरम पर पहुंचते हैं, वहीं शिव जैसे हैं वह वैसे ही स्वरूप में दिखाई देते हैं और उसी स्वरूप में देवत्व की पदवी तक पहुंचते हैं. शिव का ऐसा होना सहजता का संदेश है और इसीलिए भारतीय परिवारों में सामान्य तौर पर शिव पूजन की बड़ी मान्यता है. गांव-गांव में तो यह कहावत बड़ी ही मशहूर रही है कि 'एक लोटा जल-सब समस्या हल'
कैसे हुई शिव की उत्पत्ति?
बात शिव के उद्गम और उनके प्राकट्य की आती है तो स्कंद पुराण कहता है सृष्टि की शुरुआत में एक प्रकाश स्तंभ प्रकट हुआ. इसी प्रकाश स्तंभ का कोई आदि कोई अंत नहीं था. खुद त्रिलोकपति भगवान विष्णु और ब्रह्मा भी इसका ओर-छोर नहीं खोज पाए. तब उनकी प्रार्थना पर शिव अपने साकार रूप में सामने आए. इसी तरह शिवलिंग का अस्तित्व सामने आया. शिवलिंगम, शिव की प्रकृति का चिह्न है और उनकी पहचान का स्वरूप है.
यहीं से शिव के अविनाशी कॉन्सेप्ट की अवधारणा भी निकलती है. सनातन का जो अद्वैत 'अहम् ब्रह्मास्मि' की बात करता है, उसका ही दूसरा रूप शिवोऽहम् है. ये दोनों ही कॉन्सेप्ट दो होते हुए भी एक ही हैं और यह कहते हैं कि संसार में जो कुछ भी दिख रहा है और जो नहीं भी दिख रहा है, वह ब्रह्म है, वही शिव है. ये व्याख्या हमें फिर से ऋग्वेद की ओर ले चलती है, जहां लिखा है एकम् सत विप्रः बहुधा वदंति. इसी सूक्त की व्याख्या छान्दोग्य उपनिषद कुछ इस तरह करते हुए कहता है, 'एकोहं बहुस्याम:'. यानि कि मैं एक हूं और बहुत होना चाहता हूं.
ऋग्वेद में रुद्र कौन हैं?
इन सूक्तियों और संदर्भों के बीच अभी हम सिर्फ शिव को चुनते हैं और फिर से ऋग्वेद की ओर चलते हैं, जहां रुद्र का वर्णन है. ऋग्वैदिक युग में जहां एक ओर सूर्य, इंद्र, वरुण, मित्र और आदित्य देवों के लिए सूक्तियां लिखी गई हैं, वहीं ऋग्वेद में एक और सर्वशक्तिशाली देवता का जिक्र हुआ है, जिसे रुद्र कहा गया है. रुद्र इतना शक्तिशाली है कि उसे ही बलवानों में सबसे अधिक बलवान कहा गया है. यहां उसका स्वरूप एक ऐसे युवक के तौर पर है, जो शक्तिशाली है, सामर्थ्यवान है. उसमें अपार बल है.
बलवानों में सबसे बलवान और सबसे बड़े वैद्य भी हैं शिव
ऋग्वेद में रुद्र को पहले एक जगह शक्तिशाली और भयंकर कहा गया है. रुद्र का यही भयंकर रूप आगे की वैदिक रचनाओं और उसके बाद लिखे गए पुराणों में विनाश या प्रलय के देवता के रूप में बदल जाता है. जब पुराणों में त्रिदेवों का सिद्धांत सामने आया तब ब्रह्मा को सृष्टि का सृजनकर्ता, विष्णु को पालक और शिव को संहारक के रूप में पहचाना गया है. पुराणों में संहार के देवता ही वेदों में वर्णित रुद्र हैं ऐसा माना जाता है.
ऋग्वेद में रुद्र को मरुतों का पिता एवं स्वामी भी कहा गया है. रुद्र ने मरुतों को पृश्नि नाम की गायों के थनों से उत्पन्न किया था और वह स्वास्थ्य का देवता भी है.
मा त्वा रुद्र चक्रुधामा नमोभिर मा दुष्टुती वृषभ मा सहूती, उन्नो वीरां अर्पय भेषजेभिर् भिषकतमं त्वा भिषजां श्रणोमि.
शिव बताते हैं कि जब विकास अपने चरम पर पहुंचकर विनाश करने लगता है तो फिर वह उसका संहार करके फिर से सृजन के लिए जमीन तैयार करते हैं. यही वजह है कि अगर विष्णुजी पुराण पुरुष हैं तो शिव कालपुरुष हैं. वह इसीलिए महाकाल कहलाते हैं. वह मृत्यु नहीं मोक्ष देते हैं और उनकी तीसरी आंख सिर्फ विनाश नहीं बल्कि जागृति का प्रतीक है. महामृत्युंजय मंत्र भी यही कहता है.
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥
हम तीन नेत्रों वाले उसे तत्पुरुष की वास्तविकता का चिन्तन करते हैं जो जीवन की मधुर परिपूर्णता को पोषित करता है और वृद्धि करता है. हम जिन बंधनों में उलझे हुए हैं, ककड़ी की तरह हम इस बंधन वाले तने से अलग होकर मोक्ष धारण करें, इस बंधन मे बार-बार बांधने वाली मृत्यु का भय छूटे, हम अमरत्व को समझें और इसके आनंद से वंचित न हों. शिव से उत्पन्न हम शिव में मिल जाएं, शिवोऽहम् शिवॊऽहम् .
रुद्र से शिव बनने का सफर
रुद्र से शिव बनने के सफर में जब पुराणों की ओर बढ़ते हैं तो शिव का स्वरूप सिर्फ संहारक का नहीं रह जाता है, बल्कि वह कृपालु, दयालु और जल्दी प्रसन्न हो जाने वाले देवता के रूप में सामने आते हैं. उनकी सबसे बड़ी खासियत है कि वह परिवार वाले हैं और परिवार की कल्पना के पहले उदाहरण हैं, जिसमें पति-पत्नी, बेटे-बेटियां, भाई-बहन का पूरा ब्योरा मिलता है. सनातनी कहानियों के जरिए जब एक आदर्श परिवार का उदाहरण दिया जाता है तो श्रीराम से भी पहले शिव परिवार का नाम लिया जाता है.
क्यों पूजनीय है शिव परिवार?
कहते हैं कि सबसे अधिक तनाव वाला परिवार शिव परिवार ही है, जहां चाहें तो सभी एक-दूसरे के विरोधी हो सकते हैं. मसलन, शिव का वाहन नंदी एक बैल है, जबकि पार्वती का वाहन केहरि एक शेर है. शेर और बैल एक-दूसरे के विरोधी हैं. शिवजी के गले में पड़ा नाग, गणेश के वाहन चूहे का विरोधी है, तो वहीं कार्तिकेय का वाहन मोर, शिव के नाग का विरोधी है. आपस में इतना तनाव होने के बाद भी शिव परिवार में जो प्रेम है, वही प्रेम हमारे परिवारों में होना चाहिए. ऐसा कहा जाता है, इसीलिए शिव परिवार की एक साथ पूजा की जाती है. शिव परिवार ही भारतीय परिवार की प्रेरणा है और संतुलन का सबसे खूबसूरत उदाहरण है.
कैलाश है शिव का स्थान
दूसरा ये कि जहां अन्य देवताओं के स्वर्ग में होने या किसी ऐसे लोक में होने की बात कही जाती है, जिसे कल्पना ही माना जाता है, लेकिन शिव स्थान के तौर पर कैलाश की मान्यता है, जो कि मौजूद है और उसकी मौजूदगी कोई कल्पना नहीं है. इससे ये तो स्पष्ट है कि शिव किसी पहाड़ी जनजाति के प्रमुख और मुखिया जरूर रहे होंगे और उन्होंने अपने योग व ध्यान के बल पर ही उस सहज स्थिति को पा लिया होगा जो उन्हें ईश्वरत्व की ओर ले जाती है.
शिवा ट्रिलॉजी की अपनी सीरीज में लेखक अमीश त्रिपाठी कल्पना में ही सही, लेकिन इसी मत को सामने रखते हैं कि शिव, एक गुमनाम पहाड़ी कबीले से निकल कर आए प्राचीन आदिवासी हैं और उनके लिए प्रकृति अपने सहज स्वरूप में ही मान्य है.
इस बात को बल स्कंद पुराण में वर्णित दक्ष प्रजापति की कथा से भी मिलता है, जहां वैष्णव संप्रदाय को मानने वाला दक्ष, शिव को जंगली, आदिवासी और कपाली बताकर उनका अपमान करता है. वह उन्हें अखाद्य खाने वाला कहता है और इसके अलावा वह उन्हें असामाजिक भी बताता है. दक्ष ने भले ही यह बात गुस्से में कही हो, लेकिन वह सही ही कह रहा था.
सामाजिक खाई को पाटने वाले हैं शिव
उसकी इस बात में झलक मिलती है कि पौराणिक काल में भी समाज के बीच एक गहरी खाई थी, जहां नगरीय सभ्यता में पलने वाले लोग खुद को कथित तौर पर विकसित मानते थे और जो इस दायरे में नहीं आते थे, उन्हें तुच्छ समझते थे. शिव उसी तुच्छता को अपनाने वाले अग्रणी लोगों में से एक रहे और यही शिवत्व भी है.
शिव के अवतारों में जिस तरह के स्वरूपों का वर्णन होता है उसमें कहीं भी किसी बड़े घराने या राजपरिवार से जुड़ाव का जिक्र नहीं है, बल्कि वह सारे अवतार जनजातियों से ही जुड़े हुए हैं. इनमें सबसे प्रमुख है, शिव का किरात अवतार. महाकवि भारवि ने संस्कृत साहित्य में इसी अवतार को लेकर 'किरातार्जुनीयम' लिख दिया है. महाभारत के सभा पर्व, वन पर्व और आदि पर्व में एक पूरी किरात जाति का जिक्र है, जो कि संभवतः हिमालय की तलहटी में रहते थे तो वहीं, वन पर्व वाले हिस्से में अर्जुन का किरात रूपी शिव से युद्ध का वर्णन है.
शिव का किरात अवतार
कथा कुछ ऐसी है कि, बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञात वास पाए पांडवों को श्रीकृष्ण ने अलग-अलग कार्य सौंपे थे. उन्होंने अर्जुन को दिव्यास्त्रों को इकट्ठा करने भेजा था. इसमें सबसे जरूरी पाशुपतास्त्र था जो कि शिवजी के ही पास था. इसलिए अर्जुन उनकी तपस्या करने लगा. उधर, महादेव शिव ने अर्जुन की परीक्षा लेने के लिए किरात (शिकारी) का वेश धारण किया और वहां पहुंच गए, जहां अर्जुन तपस्या कर रहा था. उसी समय मूकासुर नाम का एक दैत्य जंगली सूअर बनकर उस नगर में आतंक मचा रहा था. उसके उत्पात से ऋषि-मुनियों के आश्रमों में कोलाहल मच गया.
इससे अर्जुन का ध्यान भंग हो गया. विकराल सूअर को उत्पात मचाते देखकर उसने धनुष उठाया और बाण चला दिया, लेकिन अर्जुन ने देखा कि सूअर के शरीर में दो तीर एकसाथ आ घुसे थे. इधर-उधर नजर फिराने पर वही किरात थोड़ी दूर पर धनुष ताने खड़ा था. सूअर को किसने मारा, इस बात पर अर्जुन और किरात बहस करने लगे. अहंकार में अर्जुन ने खुद को श्रेष्ठ गुरु का शिष्य और श्रेष्ठ कुल का पुत्र बताया. इसके बाद शिवजी और अर्जुन में युद्ध छिड़ गया. अर्जुन के सभी बाणों को किरात ने काट डाला लेकिन किरात को खरोंच तक नहीं लगी.
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किरात अवतारी शिव को नहीं पहचान सका अर्जुन
अर्जुन ने किरात पर तलवार फेंकी लेकिन वह टूट गई. निहत्थे अर्जुन ने एक विशाल पेड़ उखाड़ कर किरात पर फेंका, लेकिन किरात के शरीर से टकराते ही पेड़ तिनके की तरह टूटकर बिखर गया. इसके बाद किरात ने अर्जुन को उठाकर दूर फेंक दिया. शिवजी का स्पर्श पाते ही अर्जुन सोचने लगा कि मैं तो शिवजी की तपस्या करने आया था और ये कहां युद्ध में उलझ गया. ऐसा सोचते ही अर्जुन ने रेत से शिवलिंग बनाया और पूजा करने लगा. इसी बीच किरात ने उसे फिर ललकारा. अर्जुन ने इस बार जैसे ही किरात को देखा तो अवाक रह गया, क्योंकि जो फूलों की माला अर्जुन ने शिवलिंग पर चढ़ाई थी, वही किरात के गले में दिख रही थी.यह देखकर अर्जुन को समझ में आ गया कि किरात के रूप में कोई और नहीं स्वयं भगवान शंकर हैं.
अर्जुन किरात के चरणों में गिर पड़े और उसने क्षमा मांगी. तब शिवजी अपने असली रूप में प्रकट हुए. अर्जुन ने वहीं शिव-पूजन करके उन्हें प्रसन्न किया. देवाधिदेव शिव ने अर्जुन के भक्ति और साहस की भूरि-भूरि प्रशंसा की और वरदान स्वरूप अभेद्य पाशुपत अस्त्र दिया और युद्ध में विजय होने का वरदान भी दिया.
शिव का नटराज स्वरूप
इसी तरह शिव का स्वरूप नटराज भी सामने आता है, जिसमें वह नट जाति का प्रतिनिधित्व करते हैं. नट एक घुमंतू जाति रही है और गांव-गांव घूमकर, करतब दिखाकर भरण-पोषण करती आई है. नट जाति की उत्पत्ति शिवजी के इसी स्वरूप से मानी जाती है. स्कंद पुराण के मुताबिक एक बार ऋषियों को अपने त्याग और तप पर अहंकार हो गया. तभी भगवान शंकर और माता पार्वती भिक्षुक के वेश में वहां पहुंचे, सभी स्त्रियां उन्हें प्रणाम करने के लिए यज्ञ छोड़ कर उठ गईं.
इससे उन ऋषियों को बड़ा क्रोध आया और उन्होंने अपनी सिद्धि से कई विषधर सर्पों को महादेव पर आक्रमण करने को कहा किन्तु भगवान शंकर ने सभी सर्पों का दलन कर दिया. तब उन ऋषियों ने अपने अभिमान को एक इंसानी स्वरूप देकर शिवजी पर आक्रमण करने को कहा. अब अपस्मार बौने कद का एक राक्षस बन गया. असल में वह सभी प्राणियों के अभिमान-अहंकार का प्रकट स्वरूप था. अपस्मार ने अपनी शक्ति से माता पार्वती को भ्रमित कर दिया और उन्हें अचेत कर दिया.
शिवजी ने अपस्मार को क्यों नहीं मारा?
ये देख कर भगवान शंकर को गुस्सा आ गया और उन्होंने डमरू बजाकर युद्ध की घोषणा की. चूंकी अपस्मार बौना था, इसलिए उससे बराबरी का युद्ध संभव नहीं था, तब शिवजी ने अपना आकर बढ़ाकर अपस्मार को अपने पैरों के नीचे दबा लिया, और एक पैर पर खड़े होकर बार-बार उस पर कूदने लगे. नटराज रूप में भगवान शंकर ने एक पैर से उसे दबा कर और एक पैर उठाकर अपस्मार की सभी शक्तियों का दलन कर दिया और खुद को संतुलित करते हुए स्थिर हो गए. उनकी यही मुद्रा "अंजलि मुद्रा" कहलाई. शिव ने अमर अपस्मार का वध नहीं किया, बल्कि उसे कंट्रोल किया. यह कथा हमें हमारे घमंड पर नियंत्रण की जरूरत बताती है.
अहंकार, गर्व और अभिमान नष्ट नहीं हो सकते, लेकिन इसे नियंत्रित ही करना होता है.
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हर तुच्छ और त्याज्य के आराध्य हैं शिव
इसी तरह शिव सपेरों, चरवाहों, मूर्तिकारों, किसानों, भील, व्याध (शिकारी), चांडालों (श्मशान में रहने वाले), मल्लाहों, चर्मकारों, वैद्य इस तरह की सभी जातियों के अगुआ-मुखिया रहे हैं और यह सभी उन्हें अपना मानते भी हैं. इसी तरह शिव उन वनस्पतियों के भी संरक्षक हैं, जिन्हें उपयोगी नहीं समझा जाता है. उन्हें मदार का फूल चढ़ाया जाता है. धतूरे के फल, भांग की पत्तियां और बेलपत्र चढ़ाए जाते हैं. किसी अन्य देवता पर पत्ते चढ़ाने का जिक्र नहीं मिलता है, सिवाय शिव को छोड़कर.
सहज ईमानदारी का उत्सव है महाशिवरात्रि
इसलिए भी शिव सामान्य जन के पूजक हैं और फिर इसी आधार पर पौराणिक कथाओं में उन्हें रक्षक, भैरव, काल और महाकाल बताया गया है. दरअसल सहजता ही शिव के काल से महाकाल बनने का सफर है और यह उपाधि चार मुख वाले ब्रह्नमा और 10 अवतारों वाले विष्णु को भी नहीं मिली है. हालांकि इसका अर्थ किसी के महत्व को कम बताना या जताना नहीं है, बल्कि शिव का शिव होना यह संदेश है, आप जैसे हैं, जो भी हैं, उसमें ही ईमानदार रहे हैं. महाशिवरात्रि इसी ईमानदारी का महोत्सव है.