विज्ञान ने काफी तरक्की कर ली है और समय भी आधुनिक हो चला है, फिर भी प्राचीन काल के कुछ रहस्य और मान्यताएं ऐसी हैं, जिन पर पूरी तरह विश्वास भी नहीं होता है और उन्हें पूरी तरह नकारा भी नहीं जा सकता है. अंधविश्वास और अनसुलझे रहस्यों के बीच की जो बारीक लकीर है, हमारा आज का जीवन उनके ही बीच में कहीं उलझा हुआ है. इसी उलझन के बीच हम आस्था के साथ पर्व, व्रत और त्योहार भी मनाते हैं और उन पर सवाल कर उस बारे में जानने की कोशिश भी करते हैं.
ऐसी ही जिज्ञासा का एक विषय है शीतला अष्टमी. जिसे बसौड़ा पूजन या बसौड़ा व्रत के नाम से जाना जाता है. पूर्वी उत्तर प्रदेश या ऐसा कह लीजिए कि समूचे उत्तर भारत में ये एक ऐसा दिन होता है, जब रात में ही पकवान बनाकर रख लिए जाते हैं. अगले दिन दोपहर तक का व्रत होता है और फिर इसके बाद किसी पेड़ के नीचे, मंदिर के पास या तालाब-नदी के घाट के किनारे बसौड़ा पूजन कर इसी बासी भोजन का भोग लगाते हुए प्रसाद खाया जाता है.
शीतला अष्टमी पर बासी भोजन की परंपरा
आमतौर पर हमेशा गर्म और ताजा भोजन की हिदायत दी जाती है, लेकिन ये साल का वो दिन होता है, जब बासी भोजन की परंपरा है और सभी इसे प्रसाद स्वरूप में खाते हैं. होली के बाद आठवें दिन को शीतला अष्टमी के नाम से जाना जाता है. शीतला माता, जो कि देवी दुर्गा या पार्वती का ही एक स्वरूप हैं और इसके अलावा देवी को रोगनाशिनी के नाम से भी जाना जाता है.
सवाल उठता है कि देवी की उत्पत्ति कैसे हुई, उनकी कथा का जिक्र कहां मिलता है और उन्हें बासी भोजन का भोग लगाने की परंपरा क्यों है? इन सभी प्रश्नों का उत्तर स्कंद पुराण में दर्ज है, लेकिन शीतला माता के बारे में जानने से पहले एक रोग के बारे में जान लेना जरूरी होगा, जिसने अभी 60-70 साल पहले तक भारत में बहुत आतंक मचाया था. इसके नाम है चेचक, जिसे चिकन पॉक्स के नाम से जाना जाता है. इसी तरह के इससे मिलते-जुलते कुछ रोग भी हैं, जिन्हें स्माल पॉक्स और मीजल्स नाम से जाना जाता था.
चेचक को देवी का प्रकोप माना जाता था
ग्रामीण भारत में ये सभी रोग बड़ी माता, छोटी माता और खसरा नाम से जाने जाते रहे हैं. इनमें बड़ी माता रोग तो काफी खतरनाक हुआ करता था. जिसने कई लोगों को जान ले ली और अगर वे बच गए तो वह किसी न किसी शारीरिक दिव्यांगता का शिकार हो गए. इसके बुरे प्रभाव में लोगों की आंखें चली जाना, शरीर पर खासतौर पर चेहरे पर भयानक दाग-धब्बे हो जाना शामिल रहा है. आप आज किसी बुजुर्ग को देखेंगे तो कहीं न कहीं उनके शरीर पर चेचक के दाग दिख जाएंगे और पूछने पर वह चेचक की भयावह स्थिति का जिक्र भी करेंगे.
चेचक के टीके का आविष्कार होने के बाद देश में बड़े पैमाने पर वैक्सिनेशन (टीकाकरण) चला. स्कूलों में कैंप लगाकर युद्ध स्तर पर टीके लगाए गए. पुराने लोगों की बांह पर कंधे से थोड़ा नीचे सिक्के या मुहर जितनी बड़ी आकार के धब्बे देखे जा सकते हैं, यह धब्बा चेचक का टीका लगने के कारण ही बना हुआ है.
ग्रामीण भारत चेचक को बड़ी माता कहता और मानता था, लिहाजा इस बीमारी को 'देवी का प्रकोप' माना जाता था. 90 के दशक में चेचक का रोग होने पर लोगों में ये शब्दावली आम थी कि 'माता निकल आई' हैं. इसी तरह स्मॉल पॉक्स को छोटी माता कहा जाता था. देवी और माता से जुड़े होने के कारण इसे दैवीय प्रकोप माना जाता था और फिर जिस गांव में चेचक के केस आते थे वहां पूरा का पूरा गांव देवी के स्वरूप शीतला माता की पूजा में जुट जाता था.
शीतला माता की पूजा विधि
शीतला माता की पूजा के लिए एक रात पहले ही भोजन तैयार हो जाता था, फिर अगले दिन दोपहर तक का व्रत रखा जाता. आस-पास नीम की पत्तियों से बनी झाड़ू से सफाई की जाती, मटके से जल का छिड़काव किया जाता था और फिर सूर्य के सिर पर चढ़ आने के समय देवी को भोग लगाकर घड़े में हल्दी मिले जल से देवी को धार चढ़ाई जाती थी. फिर देवी से आस-पड़ोस, पर्यावरण, वातावरण और लोगों के शरीर को शीतल रखने की कामना की जाती थी.
चेचक के लिए ये सारी मान्यताएं इसलिए थीं, क्योंकि इसका कोई इलाज या दवा विकसित नहीं थी और इसके साथ एक पौराणिक कथा भी जुड़ी रही, जिसका मूल वर्णन स्कंद पुराण में किया गया है. यही पुराण कथा कुछ अदल-बदल के साथ लोककथा और दंतकथा बनकर लोगों के बीच मशहूर रही.
'शीतला' शब्द का अर्थ है 'ठंडक देने वाली'. देवी चेचक (विस्फोटक रोग), ज्वर, और अन्य त्वचा संबंधी रोगों से मुक्ति दिलाने वाली मानी जाती हैं. उनका वाहन गर्दभ (गधा) है, और वे अपने हाथों में झाड़ू, सूप, कलश, और नीम के पत्ते धारण करती हैं. ये प्रतीक स्वच्छता, रोग निवारण, और शीतलता के संकेत हैं.
स्कंद पुराण में है देवी का जिक्र
स्कंद पुराण, में शीतला माता का जिक्र "काशी खंड" और "नागर खंड" जैसे कुछ हिस्सों में मिलता है. उनकी कथा देवी दुर्गा के विभिन्न रूपों और उनके ही अनेक नामों में से एक नाम के तौर पर सामने आती है. स्कंद पुराण में उनकी उत्पत्ति और महत्व को "शीतलाष्टक" जैसे स्तोत्रों के माध्यम से भी समझा जा सकता है, जो भगवान शिव द्वारा रचित माना जाता है. स्कंद पुराण, काशी खंड, अध्याय 23 और नागर खंड में शीतला माता का उल्लेख अप्रत्यक्ष रूप से दुर्गा के अवतारों के संदर्भ में आता है. यहां उनका जिक्र "रोगहरणी" (रोगों को हरने वाली) के रूप में किया गया है.
देवी की उत्पत्ति की कई कथाएं
शीतला माता की उत्पत्ति कैसे हुई, इसकी कथा स्कंद पुराण और लोक परंपराओं के आधार पर कुछ इस तरह कही जाती है , जैसे धरती पर अकाल पड़ने पर देवी दुर्गा ने शाकुंभरी रूप में अवतार लेकर फलों और सब्जियों की उत्पत्ति की, उसी तरह जब पृथ्वी पर रोगों और महामारियों का प्रकोप बढ़ गया, खास तौर पर चेचक (शीतला रोग) ने मानवजाति को संकट में डाल दिया, तब मां दुर्गा ने मानवजाति की रक्षा के लिए खुद को 'शीतला' रूप में प्रकट किया. यह रूप शीतलता और रोग निवारण का प्रतीक था. शीतला माता का यह अवतार इसलिए विशेष था क्योंकि यह न केवल रोगों को नष्ट करता था, बल्कि पीड़ितों को शीतलता और शांति भी प्रदान करता था.
इसी तरह एक कथा ऐसी भी है कि, जब पृथ्वी पर चेचक का प्रकोप फैला, तो भगवान शिव ने पार्वती से इस संकट को दूर करने के लिए कहा. पार्वती ने अपने तेज से एक ऐसी शक्ति को जन्म दिया, जो रोगों को शांत करने में सक्षम थी. इस शक्ति ने शीतला माता का रूप लिया. शिव ने ही उनकी महिमा का वर्णन करते हुए "शीतलाष्टक" की रचना की, जो भक्तों के लिए रोगमुक्ति का साधन बना.
बुखार फैलाने वाले राक्षस की कथा
कथाओं के इस सिलसिले में स्कंद पुराण में एक ऐसे राक्षस की कल्पना की गई है, जो ज्वरासुर नाम से प्रसिद्ध हुआ. राक्षस बुखार का दानव था और इसने ही पृथ्वी पर ज्वर और चेचक जैसी बीमारियों को फैलाना शुरू किया. उसका आतंक इतना बढ़ गया कि मानवजाति और देवता दोनों संकट में पड़ गए. तब देवी दुर्गा ने शीतला के रूप में अवतार लिया और ज्वरासुर का संहार किया. इस युद्ध में शीतला माता ने अपनी झाड़ू से रोगों को साफ किया, नीम के पत्तों से औषधि प्रदान की, और कलश से शीतल जल छिड़ककर पृथ्वी को शुद्ध किया. इस घटना के बाद उन्हें 'रोगनाशिनी' और 'शीतलादेवी' के नाम से पूजा जाने लगा.
शीतला माता का स्वरूप
स्कंद पुराण में उनके शीतलाष्टक के पहले श्लोक में उनके स्वरूप का वर्णन है:
वन्देऽहं शीतलां देवीं रासभस्थां दिगम्बराम्.
मार्जनीकलशोपेतां शूर्पालंकृतमस्तकाम्॥
यहां उनके वाहन (गर्दभ), दिगंबर रूप (दिव्य शक्ति का प्रतीक), और हाथ में झाड़ू-कलश का उल्लेख उनकी उत्पत्ति और कार्य से जुड़ा है.
महाभारत में इस्तेमाल हुए हैं बायो वैपन्स
स्कंदपुराण में जिस ज्वराअसुर का जिक्र हुआ है, दक्षिण भारत के आंचलिक भागों में इसी नाम से मिलते-जुलते एक देवता की पूजा की जाती है. हिंदी में इसे ज्वरादेव समझा जा सकता है, लेकिन अलग-अलग स्थानीय भाषाओं में उनके अलग-अलग नाम हैं. महाभारत के शांति पर्व में ज्वर का प्रारंभिक उल्लेख मिलता है, जिसमें उसे तीन पैरों और तीन सिरों वाले एक राक्षस के तौर पर बताया गया है. इसका ही नाम ज्वर था जो शिव के पसीने से उत्पन्न हुआ था. हरिवंश पुराण के अनुसार, जब कृष्ण ने अपने नाती (पौत्र) अनिरुद्ध को बचाने के लिए बाणासुर से युद्ध किया था तब बाणासुर की ओर से महादेव शिव को युद्ध करना पड़ा था. शिव ने बाणासुर की रक्षा के लिए महेश्वर ज्वर बनाया और इसे कृष्ण की सेना पर फेंका.
इसके जवाब में कृष्ण ने वैष्णव ज्वर उत्पन्न किया. इस तरह दोनों ज्वरों के बीच युद्ध हुआ, जिसमें कृष्ण ज्वर विजयी रहा. महेश्वर ज्वर कमजोर पड़ गया और वैष्णव ज्वर को विष्णु ने शांत किया. इन दोनों ज्वरों की टकराहट में मानवजाति पर बुरा असर पड़ा और यहीं से माना जाता है, लोगों के बीच बुखार और चेचक जैसी बीमारियों का सिलसिला शुरू हो गया. इसे ही शांत करने के लिए देवी शीतला प्रकट रूप में आईं और फिर उनकी पूजा शुरू हुई.
इसे एक तरीके से पहले बॉयोलॉजिकल वॉर के तौर पर भी देखा जा सकता है, जब युद्ध में बायो वेपन्स यानी जैविक हथियारों का प्रयोग किया गया था.
दक्षिण भारत में हैं ज्वरदेव के मंदिर
चरक संहिता जैसे चिकित्सा ग्रंथों में भी ज्वरदेव का उल्लेख मिलता है. हरिवंश में वर्णित महेश्वर ज्वर का विवरण विष्णु पुराण, ब्रह्म पुराण और स्कंद पुराणों में दिए गए विवरण से मेल खाता है. विष्णु धर्मेत्तर पुराण में ज्वर के मूर्तिकला, चित्रकला और नृत्य में चित्रण के बारे में विस्तार से बताया गया है. हालांकि, इसकी जो भी मूर्तियां और प्रतिमाएं उपलब्ध हैं, उनमें दर्ज डिटेल के विपरीत काफी अंतर देखने को मिलता है.
उदाहरण के लिए, 13वीं शताब्दी के तिरुविदैमरुदुर के ज्वरहरेश्वर मंदिर में एक प्रतिमा है. यह प्रतिमा चार हाथों वाली है. उनके पिछले हाथों में अग्नि और कुल्हाड़ी है. सामने का बायां हाथ गजहस्त मुद्रा में और दायां हाथ अभय मुद्रा में है. द हिंदू की एक रिपोर्ट को मानें तो, बुखार के देवता का एक खास मंदिर कांची में भी है. इसे भी ज्वरहरेश्वर मंदिर कहा जाता है, जिसमें ज्वरतीर्थम नाम का एक तालाब भी है.
यहां की ज्वरहरेश्वर प्रतिमा में कई सिर एक के ऊपर एक पिरामिड की तरह लगे हैं. शिकागो संग्रहालय में रखी 13वीं-14वीं शताब्दी की नेपाली मूल की एक प्रतिमा में ज्वरदेव बाघ की खाल का वस्त्र पहने हुए हैं, जिसमें बाघ की पूंछ दिखाई देती है. वे सांपों को आभूषण के रूप में धारण किए हुए हैं. कोडवासल मंदिर में ज्वरहरेश्वर का सामने का बायां पैर नृत्य मुद्रा में उठा हुआ है. तिरुत्तुरैपुंडी तालुक में ज्वरहरेश्वर की एक प्रतिमा त्रिशूल, गदा और अंकुश (हाथी का अंकुश) धारण किए हुए है.
तारामंगलम, सेलम जिले में, ज्वरहरेश्वर की तीन सिरों, तीन हाथों और तीन पैरों वाली प्रतिमा है. उनका उठा हुआ बायां पैर एक कमल पुष्प पर रखा है. भवानी में ज्वरहरेश्वर की प्रतिमा में तीन सिर, तीन हाथ, तीन पैर और नौ आंखें हैं, लेकिन इसका कोई वाहन नहीं है.
पूर्वी भारत में ज्वरदेव की प्रतिमाएं
इसी तरह पूर्वी भारत में, ज्वरदेव की पूजा शीतला (चेचक की देवी) और घेंटु (त्वचा रोग के देवता) के साथ की जाती थी, जो हुगली, हावड़ा, मेदिनीपुर, 24 परगना और कोलकाता में आज भी जारी है. कभी-कभी श्रद्धालु ज्वरदेव की छोटी प्रतिमाएं, जिन्हें छालान कहा जाता है, वह चढ़ाते हैं. पश्चिम बंगाल में ज्वर के लिए कोई स्वतंत्र मंदिर नहीं है. बंगाल में ज्वरदेव को फल, चावल, मिठाई और बलि के बकरों से प्रसन्न किया जाता है.
बौद्ध मत में भी ज्वर देव
ज्वरदेवी या देवता का जिक्र बौद्ध मत में भी मिलता है. एक बौद्ध चित्रण में, बुखार की बौद्ध देवी परर्णशबरी को दाईं ओर शीतला और बाईं ओर हयग्रीव के साथ दिखाया गया है. यहां हयग्रीव को ज्वरदेव माना जाता है. पश्चिम बंगाल में समकालीन कच्ची मिट्टी की ज्वरदेव की मूर्तियों में तीन रंग.नीला, काला और धूसर देखे जाते हैं. एक मूर्ति में उन्हें योद्धा जूते पहने हुए दिखाया गया है. ज्वरदेव की मूर्तियां निरंतरता और परिवर्तन दोनों को दर्शाती हैं.
क्यों है बासी भोजन की परंपरा?
अब सवाल उठता है कि आखिर बासी प्रसाद और भोजन की परंपरा क्यों है? इसके पीछे तर्क दिया जाता है कि होली के बाद चैत्र मास का ये समय मौसम के बदलने का समय होता है. ऋतु परिवर्तन के कारण प्रकृति में तो बदलाव हो ही रहे होते हैं, शरीर में कई तरह के बदलाव होते हैं. इसके साथ ही शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता को नए सिरे से विकसित करने की जरूरत होती है जो कि इस मौसम में कमजोर हो ही जाती है.
पाचन क्रिया भी कमजोर पड़ रही होती है और दूसरा वसंत का मौसम होने के कारण पसीना भी कभी-कभी निकल रहा होता है. सर्दी के मौसम में शरीर में टॉक्सिन जमा हो जाता है और इस वक्त शरीर को आंतरिक शोधन की जरूरत पड़ती है. बासी भोजन इसी आंतरिक शोधन और रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ावा देने का जरिया बनता है. इस दौरान ऐसा भोजन किया जाता है जो किण्वन या फर्मेंटेशन की प्रक्रिया से गुजरा हो. फर्मंटेड फूड में गुड बैक्टीरिया होते हैं जो आंतों को मजबूत बनाते हैं. गट हेल्थ के लिए अच्छे होते हैं और इसके साथ ही शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को भी बढ़ाते हैं.
इसीलिए प्राचीन काल से सनातनी परंपरा में बसौड़ा पूजन की रीति चली आ रही है, जो कि हमारे लिए आरोग्य का वरदान है.