आचार्य चाणक्य ने अपने नीति शास्त्र में एक श्लोक के जरिए बताया है कि बुरे वक्त में इंसान की बुद्धि और विवेक उसका साथ छोड़ देता है, तो वहीं उन्होंने अन्य श्लोक में धन और श्रेष्ठ गुणों में से उन्होंने सद्गुणों को अधिक प्रभावशाली और अहम बताया है, इसलिए वे कहते हैं कि ऐसे में व्यक्ति के पास बहुत धन का होना या ना होना मायने नहीं रखता.
न निर्मिता केन न दृष्टपूर्वा न श्रूयते हेममयी कुरङ्गी ।
तथाऽपि तृष्णा रघुनन्दनस्य विनाशकाले विपरीतबुद्धिः॥
इन श्लोक के जरिए आचार्य चाणक्य कहते हैं कि बुरे समय में इंसान की बुद्धि और विवेक उसका साथ छोड़ जाते हैं. वो कहते हैं कि विद्वान व्यक्ति भी संकट में उलझकर सोचने-समझने की शक्ति खो बैठता है. इसी संदर्भ में चाणक्य एक उदाहर देते हुए कहते हैं कि संकट से घिरे हुए इंसान का उसी तरह विवेक-शून्य हो जाता है, जिस तरह स्वर्ण-मृग का पीछा करते हुए भगवान राम हो गए थे. यह जानने के बाद भी कि स्वर्ण-मृग नहीं होते, वे उसे मारने के लिए उसके पीछे-पीछे दौड़ पड़े. अर्थात बुरे समय में बुद्धिमान लोग भी अनुचित कार्य कर बैठते हैं.
गुणैरुत्तमतां याति नोच्चैरासनसंस्थिताः ।
प्रासादशिखरस्थोऽपि काकः किं गरुडायते ॥
इस श्लोक में आचार्य चाणक्य ने श्रेष्ठ गुणों और सच्चरित्र का महत्व स्वीकार किया है. वे कहते हैं कि इन्हीं के कारण साधारण इंसान श्रेष्ठता के शिखर की ओर अग्रसर होता है. जिस प्रकार भवन की छत पर बैठने से कौआ गरुड़ नहीं हो जाता है, उसी प्रकार ऊंचे आसन पर विराजमान व्यक्ति महान नहीं होता. महानता के लिए इंसान में सदुगणों एवं सच्चरित्र का होना जरूरी है. इससे वह नीच कुल में जन्म लेकर भी समाज में मान-सम्मान प्राप्त करता है.
गुणा: सर्वत्र पूज्यन्ते न महत्योऽपि सम्पद:।
पूर्णेन्दु किं तथा वन्द्यो निष्कलंको यथा कृश:।।
धन और श्रेष्ठ गुणों में से चाणक्य ने सद्गुणों को अधिक प्रभावशाली और महत्वपूर्ण कहा है. वे कहते हैं कि समाज में सद्गुणों से इंसान का सम्मान होता है. इसके लिए प्रचुर धन का होना या ना होना कोई मतलब नहीं रखता है. चाणक्य कहते हैं कि जिस प्रकार पूर्णिमा के चांद के स्थान पर द्वितीय का छोटा चांद पूजा जाता है, उसी प्रकार सद्गुणों से युक्त इंसान निर्धन एवं नीच कुल से संबंधित होते हुए भी पूजनीय होता है.
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