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अघोरी साधुओं की रहस्यमयी दुनिया... कैसा होता है जीवन, नागा बाबाओं से कितने अलग

अघोरी साधु भगवान शिव को मोक्ष का मार्ग मानकर उनकी घोर साधना करते हैं और शिव को सर्वज्ञ, सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान मानते हैं. अघोरी जन्म-मृत्यु के भय से परे माने जाते हैं और इसी वजह से ये श्मशान में भी रहते हैं. अघोरी और नागा साधुओं के बीच भी अंतर होते हैं.

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अघोरी साधुओं की अनोखी दुनिया (फाइल फोटोः बंदीप सिंह)
अघोरी साधुओं की अनोखी दुनिया (फाइल फोटोः बंदीप सिंह)

संगम नगरी प्रयागराज में महाकुंभ का शुभारंभ होने जा रहा है. आस्था के इस समागम में देश-दुनिया से साधु-संत हिस्सा लेने आ रहे हैं. तमाम अखाड़ों के संतों के अलावा महामंडलेश्वर और अघोरी साधु भी कुंभ का हिस्सा होंगे. हम आपको अघोरी साधुओं की रहस्यमयी दुनिया के बारे में बताएंगे, क्योंकि इन्हें लेकर कई तरह के मिथक और भ्रांतियां लोगों के बीच हैं. साथ ही आम धारणा के मुताबिक लोग इन अघोरी साधुओं को तांत्रिक समझ बैठते हैं और कई बार तो इनके पास आने से डरते हैं.

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कौन होते हैं अघोरी 

सबसे पहले आपको बताते हैं कि आखिर अघोरी शब्द कहां से आया. अघोरी शब्द दरअसल संस्कृत के अघोर से निकला है जिसके मतलब है कि जो निर्भय हो. अघोरी शिव के पूजक माने जाते हैं और मुख्य रूप से कपालिका परंपरा को मानने वाले होते हैं, इसी वजह से हमेशा कपाल यानी नरमुंड इनके साथ रहता है. अघोरी साधु शिव के अलावा शक्ति के रूप काली के उपासक माने जाते हैं. इसी वजह से वह अपने शरीर पर राख लपेटे रहते हैं, रुद्राक्ष की माला और नर मुंड भी इनकी वेशभूषा का हिस्सा होते हैं. 

आमतौर पर अघोरी साधु एकांत में रहते हैं और सार्वजनिक रूप से कम नजर आते हैं. कुंभ जैसे धार्मिक आयोजनों में ही इन्हें सावर्जनिक तौर पर देखा जाता है. ऐसे साधु श्मशान या किसी दुर्गम इलाके में रहते हैं, जहां सभी का जाना मुमिकन नहीं होता, क्योंकि ऐसी जगह इनकी साधना के लिए सबसे अनुकूल मानी जाती है. अघोरी संप्रदाय 18वीं सदी में हुए बाबा कीनाराम का अनुसरण करते हैं और उनके द्वारा किए गए कामों को अपनी परंपरा का हिस्सा मानते हैं. सबसे पहले अघोरी की उत्पत्ति काशी से हुई थी और तब से ये देशभर के मंदिरों में फैल गए. 

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अघोरी बाबा

श्मशान में रहकर करते हैं साधना

अघोरी साधु शिव को मोक्ष का मार्ग मानकर उनकी घोर साधना करते हैं और शिव को सर्वज्ञ, सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान मानते हैं. अघोरी जन्म-मृत्यु के भय से परे माने जाते हैं और इसी वजह से ये श्मशान में रहने से भी बिल्कुल नहीं डरते. यही नहीं, कई बार तो मुर्दों के साथ रात गुजारने से लेकर चिता का मांस खाने से भी परहेज नहीं करते. चिता से अधजला मांस खाने को भी वह अपनी परंपरा का हिस्सा मानते हैं. मान्यता है कि अगर ऐसा करने में उन्हें डर न लगे, घृणा न हो तो वे अपनी साधना में पक्के हो रहे हैं. 

अघोरी: अन टोल्ड स्टोरी नाम से किताब लिखने वाले मयूर कलबाग बताते हैं अघोरियों के बारे में धारणा है कि वे मानव मांस खाते हैं, शराब पीते और उन्हें तांत्रिक की तरह दिखाया जाता है. लेकिन इसके पीछे पूरी सच्चाई नहीं है, वह ऐसा करते हैं, लेकिन सिर्फ यही करते है, ये भी सच नहीं है. ये भी उनकी साधना का एक हिस्सा है. इसके जरिए वह बताते हैं कि वह कुछ भी खाकर-पीकर जीवित रह सकते हैं. मयूर बताते हैं कि किसी आम आदमी के लिए रात के वक्त श्मशान जाना तक मुमकिन नहीं, लेकिन अघोरी वहां कई-कई दिनों तक रहते हैं. वह फोटो या वीडियो लेना भी कई बार पसंद नहीं करते, मैं जिन अघोरियों से मिला कम से कम वो इसके लिए तैयार नहीं थे, क्योंकि इसकी वजह शायद वो छवि है जो आम लोगों के बीच बनी हुई है. वह तंत्र करते हैं, साथ में मंत्र भी करते हैं. लेकिन दूसरों के लिए नहीं, न ही इस विद्या का दुरुपयोग करते हैं. वह अपनी साधना को सिद्ध करने के लिए इनका सहारा लेते हैं.

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रहस्य की तरह अघोरियों का जीवन

मयूर बताते हैं कि नागा साधुओं के बारें में काफी कुछ बताया गया है और वह आमतौर परिचित से लगते हैं. लेकिन अघोरियों का जीवन अबतक रहस्य है और लोगों को इनके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है. उनको लेकर लोगों के मन में एक प्रकार का डर है लेकिन वह डर अघोरियों को जानकर ही दूर हो सकता है. उनके जीवन का एक मंत्र है कि आप अपना काम करिए और हमें अपने मोक्ष मार्ग पर चलने दीजिए. उन्होंने कहा कि वह भी हमारी तरह आम इंसान ही हैं लेकिन उनके जीवन का लक्ष्य हमसे अलग है. उनकी पूजा-पद्धति और लाइफस्टाइल हमसे अलग है.

difference in naga sadhus and aghori baba photo Unsplash

नागा बाबाओं से कितने अलग अघोरी साधु

यह माना जाता है कि नागा साधु और अघोरी एक ही होते हैं. लेकिन इसके बीच बुनियादी फर्क ये है कि नागा परंपरा अखाड़ों से निकली परंपरा है जिसके जनक आदिगुरु शंकराचार्य माने जाते हैं और यह 8वीं सदी के आसपास की परंपरा है. वहीं, अघोरी परंपरा को लेकर मान्यता है कि इनके गुरु भगवान शिव-विष्णु और ब्रह्म के अवतार कहे जाने वाले भगवान दत्तात्रेय हैं. नागा धर्म के रक्षक कहे जाते हैं और शास्त्र विद्या में पारंगत होते हैं, वहीं अघोरी साधु सिर्फ शिव की साधना में मग्न रहते हैं.  

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अघोरी और नागा साधुओं के बीच एक बड़ा अंतर ये है कि नागा साधु ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं और जीवित रहते ही अपना अंतिम संस्कार कर देते हैं. वहीं अघोरियों में ब्रह्मचर्य के पालन की कोई बाध्यता नहीं है. नागा साधु भिक्षा मांगकर अपना जीवन यापन करते हैं और जो भी मिलता है, उसमें संतुष्टि रखते हैं. वहीं अघोरी चिता के मांस से लेकर कुछ भी खाने के लिए स्वतंत्र हैं. इसके पीछे भी कई बार वे प्रकृति चक्र का हवाला देते हैं और उनका मानना है कि उस मांस को कोई छूता तक नहीं है, ऐसे में उसे खाने में कोई बुराई नहीं है.

नागा और अघोरी साधु दोनों ही शिव की पूजा करते हैं, लेकिन साधना के तौर-तरीके अलग हैं. जैसे नागा साधुओं का काम इंसानों और धर्म की रक्षा करना है. इसके लिए उन्हें पारंपरिक हथियार चलाने की दीक्षा भी दी जाती है. वहीं दूसरी तरफ अघोरी शिव की पूजा करते हुए तंत्र साधना करते हैं. वे इस ताकत का इस्तेमाल लोगों की मदद करने में करते हैं. अघोरी मुख्य रूप से तीन तरह की साधना करते हैं, शव साधना, जिसमें शव को मांस और मदिरा का भोग लगाया जाता है. शिव साधना, जिसमें शव पर एक पैर पर खड़े होकर शिव की साधना की जाती है और श्मशान साधना, जहां हवन किया जाता है.

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नेपाल के काठमांडू स्थित अघोर कुटी, अघोरी साधुओं के प्राचीन स्थानों में से एक है. वहीं भारत में सिद्धपीठ कालीमठ, पश्चिम बंगाल के रामपुरहाट में तारापीठ मंदिर को अघोरी साधुओं का प्रमुख स्थान कहा जाता है. इसी तरह यूपी का चित्रकूट, जहां भगवान दत्तात्रेय का जन्म हुआ था. वह अंत में घर छोड़कर मोक्ष की तलाश में अघोरी बन गए, उनके मंदिर में दर्शन के लिए भी अघोरी साधु चित्रकूट आते हैं.   

 

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