Muharram 2024 Date: मुहर्रम की 10 तारीख को रोज-ए-आशुरा कहा जाता है क्योंकि इस दिन पैगम्बर मोहम्मद के नाती इमाम हुसैन की शहादत हुई थी. मुहर्रम महीने को गम या शोक के तौर पर मनाया जाता है.
मुहर्रम के महीने को लेकर शिया और सुन्नी दोनों की मान्यताएं अलग हैं. शिया समुदाय के लोगों को मुहर्रम की 1 तारीख से लेकर 9 तारीख तक रोजा रखने की छूट होती है. शिया उलेमा के मुताबिक, मुहर्रम की 10 तारीख यानी रोज-ए-आशुरा के दिन रोजा रखना हराम होता है. जबकि सुन्नी समुदाय के लोग मुहर्रम की 9 और 10 तारीख को रोजा रखते हैं. हालांकि, इस दौरान रोजा रखना मुस्लिम लोगों पर फर्ज नहीं है. इसे सवाब के तौर पर रखा जाता है.
काले रंग के कपड़े और मातम
मुहर्रम का चांद दिखते ही सभी शिया मुस्लिमों के घरों और इमामबाड़ों में मजलिसों का दौर शुरू हो जाता है. इमाम हुसैन की शहादत के गम में शिया और कुछ इलाकों में सुन्नी मुस्लिम मातम मनाते हैं और जुलूस निकालते हैं. शिया समुदाय में ये सिलसिला पूरे 2 महीने 8 दिन तक चलता है. शिया समुदाय के लोग पूरे महीने मातम मनाते हैं. हर जश्न से दूर रहते हैं. चमक-धमक की बजाए काले रंग के लिबास पहनते हैं.
क्यों नहीं देते मुहर्रम की बधाई
मुहर्रम के महीने की दसवीं तारीख को पैगंबर मोहम्मद के नाती इमाम हुसैन शहीद हुए थे. इस गम में हर साल अशुरा के दिन ताजिए निकाले जाते हैं जो कि शोक का प्रतीक होता है. इसी कारण इस महीने को शोक का महीना भी कहते हैं. इस दिन शिया समुदाय मातम मनाता है और सुन्नी समुदाय रोजा-नमाज करके अपना दुख मनाता है.
इस महीने के पहले दिन नए साल की शुरुआत पर बधाई देने में कोई हर्ज नहीं है लेकिन अशुरा यानी मुहर्रम की दसवीं तारीख के दिन मोहर्रम की बधाई देना गलत है क्योंकि इससे मातम में डूबे लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचती है.
ताजिया निकालने का है रिवाज
वैसे तो मुहर्रम का पूरा महीना बेहद पाक और गम का महीना होता है. लेकिन मुहर्रम का 10वां दिन जिसे रोज-ए-आशुरा कहते हैं, सबसे खास होता है. 1400 साल पहले मुहर्रम के महीने की 10 तारीख को ही पैगम्बर मोहम्मद के नाती इमाम हुसैन को शहीद किया गया था. उसी गम में मुहर्रम की 10 तारीख को ताजिए निकाले जाते हैं.
इस दिन शिया समुदाय के लोग मातम करते हैं. मजलिस पढ़ते हैं, काले रंग के कपड़े पहनकर शोक मनाते हैं. यहां तक कि शिया समुदाय के लोग मुहर्रम की 10 तारीख को भूखे प्यासे रहते हैं क्योंकि इमाम हुसैन और उनके काफिले को लोगों को भी भूखा रखा गया था और भूख की हालत में ही उनको शहीद किया गया था. जबकि सुन्नी समुदाय के लोग रोजा-नमाज करके अपना दुख जाहिर करते हैं.