भारत में ऐसे अनेक संत-महात्माओं ने जन्म लिया, जिनका संपूर्ण जीवन एक आदर्श के रूप में आज भी लोगों को धर्म की राह पर चलने की प्रेरणा देता है. ऐसे ही संत हुए श्री आदि शंकराचार्य, जिनकी हिंदू जीवन पद्वति को वैश्विक स्तर पर पहचान दिलवाने में अहम भूमिका रही है. हिंदू धार्मिक मान्यताओं पर नजर डालें तो उन्हें भगवान शंकर का अवतार भी माना है. आदि शंकराचार्य ने लगभग पूरे भारत की यात्रा की लेकिन अपने जीवन का अधिकांश समय इन्होंने उत्तर भारत में ही बिताया.
7 वर्ष की आयु में लिया था संन्यास
7 वर्ष का आयु में संन्यास लेने वाले शंकराचार्य ने मात्र 2 वर्ष की आयु में सारे वेदों, उपनिषद, रामायण, महाभारत को कंठस्थ कर लिया था. शंकराचार्य ऐसे संन्यासी थे जिन्होंने गृहस्थ जीवन त्यागने के बाद भी अपनी मां का अंतिम संस्कार किया. हिंदू मान्यताओं के अनुसार आदि शंकराचार्य का जन्म सन 788 में दक्षिण भारत के केरल में स्थित कालड़ी ग्राम में हुआ था. आदि शंकराचार्य ने अपने गुरू से ना सिर्फ शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया, बल्कि कम उम्र में ही उन्होंने ब्रह्मत्व का भी अनुभव कर लिया था. काशी में रहकर उन्होंने जीवन के व्यवहारिक और आध्यात्मिक पक्ष के पीछे की सत्यता को भी जाना.
इस वजह से कहलाए शंकराचार्य
शंकराचार्य के माता-पिता ने उनके जन्म के लिए वर्षों तक भगवान शिव की तपस्या की थी. जिसके बाद इस बालक का जन्म हुआ था. लेकिन जन्म के कुछ सालों बाद ही शंकराचार्य मां से आज्ञा लेकर संन्यासी बन गए. संन्यासी बनने के बाद भी लेकिन शंकराचार्य ने अपनी मां का दाह संस्कार किया. समय के साथ शंकर नाम का यह बालक जगद्गगुरु शंकराचार्य कहलाया.
छोटी उम्र में वेदों का ज्ञान
शंकराचार्य ने बचपन में ही वेदों का पूरा ज्ञान प्राप्त कर लिया था. उन्होंने मात्र 16 वर्ष की आयु में 100 से भी ज्यादा ग्रंथों की रचना की थी. अपनी माता से आज्ञा लेकर उन्होंने वैराग्य धारण किया. मात्र 32 साल की उम्र में केदारनाथ में उनकी मृत्यु हो गई. शंकराचार्य ने हिन्दू धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए देश के चारों कोनों में चार मठों की स्थापना भी की. जो बाद में शंकराचार्य पीठ के नाम से पहचाने जाते हैं.
बेहद लोकप्रिय हुआ ये संप्रदाय
श्री आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित अद्वैत वेदांत संप्रदाय नौंवी शताब्दी में बेहद लोकप्रिय हुआ. श्री आदि शंकराचार्य ने प्राचीन भारतीय उपनिषदों के सिद्धान्तों को फिर से एक बार जीवित करने का प्रयास ही नहीं किया, बल्कि ईश्वर के स्वरूप को पूरी आत्मीयता और वास्तविकता के साथ स्वीकार किया. उनका मानना था कि वे लोग जो इस मायावी संसार को वास्तविक मानते हैं और ईश्वर के स्वरूप को नकार देते हैं वह पूरी तरह अज्ञानी होते हैं. इसके बाद संन्यासी समुदाय में सुधार लाने और संपूर्ण भारत को एकता के सूत्र में पिरोने के लिए उन्होंने भारत में चार मठ गोवर्धन पीठ: ऋग्वेद, शारदा पीठ: यजुर्वेद, द्वारका पीठ: साम वेद और ज्योतिर्मठ: अथर्ववेद की स्थापना की.