मुहर्रम के महीने में इमाम हुसैन की शहादत के गम में मातम, मजलिस के साथ-साथ ताजियादारी को लेकर शिया और सुन्नी समुदाय के लोगों में काफी मतभेद है. हुसैन की याद में शिया समुदाय के लोग बड़ी अकीदत के साथ ताजियादारी करते हैं. जबकि सुन्नी ताजियादारी के खिलाफ हैं और इसे बिदत (इस्लाम का हिस्सा नहीं) मानते हैं.
किसे कहते हैं ताजिया-
शिया मौलाना जलाल हैदर नकवी ने आजतक से बातचीत करते हुए कहा कि 10 मुहर्रम को इमाम हुसैन और उनके 72 साथियों के शहादत के याद में ताजियादारी की जाती है. उन्होंने ये भी बताया कि इराक में इमाम हुसैन का रोजा-ए-मुबारक ( दरगाह ) है, जिसकी हुबहू कॉपी (शक्ल) बनाई जाती है, जिसे ताजिया कहा जाता है.
ताजियादारी की शुरुआत-
ताजियादारी की शुरुआत भारत से हुई है. तत्कालीन बादशाह तैमूर लंग ने मुहर्रम के महीने में इमाम हुसैन के रोजे (दरगाह) की तरह से बनवाया और उसे ताजिया का नाम दिया गया. मौलाना जलाल नकवी कहते हैं, यहीं से ताजियादारी की शुरुआत हुई है. इसके बाद ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती जब भारत आए तो उन्होंने अजमेर में एक इमाम बाड़ा बनवाया और उसमें ताजिया रखने की एक जगह भी बनाई. यहीं से दुनिया के देशों में ताजियादारी का दौर शुरू हुआ. पाकिस्तान और फिर बंगालदेश में भी ताजियादारी शुरू हुई.
शिया उलेमा के मुताबिक, मुहर्रम का चांद निकलने की पहली तारीख को ही ताजिया रखने का सिलसिला शुरू हो जाता है और फिर उन्हें 10 मुहर्रम को कर्बला में दफन कर दिया जाता है.
मौलाना हामिद नोमानी ने सुन्नी समुदाय में ताजियादारी को निषेध बताया है. बरेलवी और देवबंदी दोनों विचाराधारा ताजियादारी को इस्लाम के खिलाफ मानती हैं. बरेलवी आलिम अहमद रजा खां ने भी ताजियादारी को गलत बताया है.
नोमानी कहते हैं कि ताजियादारी का मुहर्रम से कोई लेना देना नहीं है. ये सिर्फ हिंदुस्तान में ही है. शिया समुदाय के लोग सबसे ज्यादा इराक और ईरान में हैं, लेकिन वहां ताजियादारी नहीं की जाती है.
हालांकि हामिद नोमानी कहते हैं कि इमाम हुसैन की शहादत से हमें सबक मिलता है. ये इस्लाम की तारीखी जंग है, लेकिन प्रतीकात्मक तौर पर हम इसे नहीं मनाते हैं.
दिल्ली के फतेहपुरी मस्जिद के शाही इमाम मौलाना मुफ्ती मुकर्रम ने कहा कि ताजियादारी का इस्लाम से कोई दूर-दूर तक वास्ता नहीं है. ऐसे में जो शरीयत का हिस्सा है ही नहीं तो उसे मनाना गलत है. हालांकि, इमाम हुसैन के गम में शरबत बांटना, खाना खिलाना और लोगों की मदद करना जायज है. जबकि कुछ लोग सुन्नी समुदाय में भी हैं जो ताजियादारी करते हैं उन्हें शरीयत की फिक्र नहीं और न ही इस्लाम की जानकारी.
अहल-ए-हदीस फिरके से ताल्लुक रखने वाले मौलाना महमूद रहमानी ने कहा कि ताजियादारी बिदत है. हम इसे गलत मानते हैं. इस्लाम में सिर्फ मुहर्रम की 9 और 10 तारीख को रोजा रखने का हुक्म आया है. लेकिन उसका भी ताल्लुक इमाम हुसैन की शहादत से नहीं है.
रहमानी ने कहा कि अल्लाह के रसूल मक्के से जब मदीना तशरीफ लाए तो यहूदी लोग 10 मुहर्रम का रोजा रखते थे, तो नबी ने उनसे पूछा कि आप रोजा क्यों रखते हो? यहूदियों ने कहा कि आज ही के दिन फिरौन से हजरत मूसा को निजात मिली थी.
फिरौन को उसी दिन हलक किया गया था. नबी ने कहा कि हम लोग इस पर
शुक्रगुजारी के ज्यादा हकदार हैं. हम हजरत मूसा के लिए आपसे ज्यादा
वफादार हैं और नबी ने उस साल 10 मुहर्रम को रोजा रखा. इसके बाद कहा कि अगले
साल से मुहर्रम की 9 और 10 दोनों तारीख को रोजा रखा जाएगा ताकि हम यहूदी से
अलग रहें. बाकी इमाम हुसैन की शहादत का गम है.
ताजियादारी के बिदत के सवाल पर शिया मौलाना जलाल हैदर नकवी कहते हैं कि ताजियादारी को लेकर कोई मतभेद नहीं है, लेकिन वहाबी लोग इसे बिदत कहते हैं. जबकि, इस्लाम में बहुत सारी चीजें नबी के बाद जुड़ी हैं. जैसे तीन तलाक न नबी के दौर में थी और न ही पहले सहाबा के दौर में, लेकिन दूसरे सहाबा के दौर से शुरू हुई और सुन्नी मुस्लिम उसे मानते हैं.
शिया नहीं सुन्नी-हिंदू भी करते हैं ताजियादारी-
ताजियादारी शिया ही नहीं बल्कि सुन्नी और हिंदू समुदाय के लोग भी करते हैं. अवध के इलाके में बड़ी तादात में सुन्नी और हिंदू धर्म के लोग इमाम हुसैन की आस्था में ताजिया रखते हैं.
ताजिया से रोजगार-
भारत में ताजिया का एक बड़ा कारोबार है. भारत में कई शहर हैं जहां लोगों की रोजी रोटी ताजिया से जुड़ी हुईं हैं. फैजाबाद के रुदौली कस्बा में अवध की सबसे ज्यादा ताजिया बनाए जाते हैं. सैय्यद कासिम कहते हैं कि ताजिया की कमाई से लोग पूरे साल का खर्च चलाते हैं. दो लाख से तीन लाख रुपये की कमाई एक साल में ही लोग कर लेते हैं, जो इससे जुड़े हुए हैं.