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सनातन धर्म के अनुसार, ब्रह्मा जी को सृष्टि का रचयिता माना जाता है. उन्होंने जल का छिड़काव करके एक विशाल अंड का निर्माण किया, जिसमें सदाशिव ने अपनी चेतना प्रवाहित की. इसी चेतना से विभिन्न अंग उत्पन्न हुए और उन्होंने संपूर्ण पृथ्वी को आवृत कर लिया. इसके उपरांत, ब्रह्मा जी ने सृष्टि की संरचना प्रारंभ की. ब्रह्म पुराण में भी इस बात का जिक्र है कि सृष्टि का जन्म ब्रह्मदेवता द्वारा हुआ है. सत्यार्थ नायक की 'महागाथा' किताब के जरिए जानते हैं कि आखिर ब्रह्मा जी ने किस तरह से सृष्टि की रचना की थी और इसके पीछे की क्या कथा है?
सृष्टि में केवल परब्रह्म था. वह एक सर्वोच्च सिद्धांत (तत्त्व) था जिसका ना कोई आरंभ था, ना अंत. वह परम सत्य था जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता. वह एक दिव्य सार-तत्त्व था जिसके भीतर अनंत क्षमता मौजूद थी. कारण और प्रभाव मिलकर एक हो गए थे. उसका आकार नहीं था किंतु वह निराकार भी नहीं था. उसमें कोई गुण नहीं था किंतु वह गुणों से रहित भी नहीं था. विचारों और इंद्रियों की पहुंच से परे से वह एक विशुद्ध चेतना थी. एक ऐसा उत्प्रेरक, जो खुद तो परिवर्तित नहीं होता किंतु हर तरह का परिवर्तन ला सकता था.
परब्रह्म की इच्छा हुई तभी भौतिक ब्रह्मांड का निर्माण आरंभ हुआ. ब्रह्मांड प्रकट होने को तैयार था. परब्रह्म की इस इच्छा ने एक कंपन पैदा किया जिससे पहली ध्वनि का जन्म हुआ और वह ध्वनि थी-ओम (ऊं). इस एक ध्वनि में समस्त ध्वनियां समाहित थीं. सबसे पहले बनने वाले मूल तत्त्व को महत् तत्त्व कहा गया, जिससे तीन गुणों की उत्पत्ति हुई. सत्व गुण- जो संरक्षण का प्रतीक है, रजो गुण- जो क्रिया को दर्शाता है और तमो गुण- जो विनाश का सूचक है. इन तीन गुणों के पारस्परिक प्रभाव से पांच भौतिक तत्त्वों यानी पंचतत्त्व का जन्म हुआ. वायु, जल, पृथ्वी, अग्नि और आकाश.
इन तत्त्वों के साथ में मिलने से प्रकृति अस्तित्व में आई. इन गुणों ने पांच इंद्रियों को भी उत्पन्न किया. दृष्टि, श्रवण, स्पर्श, गंध और स्वाद. इन पांचों को महसूस करने के लिए पांच ज्ञानेन्द्रियां विकसित हुईं जिन्हें मन द्वारा संचालित किया गया. पदार्थ की उत्पत्ति के साथ संवेदना प्रकट हुई. इसके बाद जल प्रवाहित हुआ जिसने सब कुछ ढक लिया. हर जगह केवल जल था किंतु ऐसा कुछ नहीं था जो उस जल में डूब जाता. तब परब्रह्म ने स्वयं एक दिव्य स्वरूप धारण किया जो जल से भरे सरोवर में कमल-दल बनकर प्रकट हुआ.
जल को 'नार' और निवास को 'अयन' कहते हैं. इस तरह इस दिव्य स्वरूप को नाम मिला- नारायण. फिर परब्रह्म ने अपना अंश जल में प्रत्यारोपित किया. इस तरह जल ने स्वयं निषेचित होकर उस अंश का पालन-पोषण किया. एक सुनहरा अंड, जो प्रकाश-वृत्त की तरह चमक रहा था. चूंकि यह अंड, परब्रह्म से उत्पन्न हुआ इसलिए इसे 'ब्रह्मांड' कहा गया. फिर नारायण ने विष्णु बनकर इस अंड में प्रवेश किया. जिसमें विष्णु सर्वव्यापी थे और वे संरक्षक कहलाए, उन्हें सत्त्व गुण का अधिष्ठाता माना गया. चूंकि उस सुनहरे वृत्त अर्थात् हिरण्य ने विष्णु को गर्भ की तरह ढक लिया था इसलिए उस अंड को नाम मिला- हिरण्यगर्भ.
विष्णु की नाभि से चौदह पंखुड़ियों वाला एक कमल-पुष्प निकला और फिर इस पुष्प से ब्रह्मा प्रकट हुए. यह परब्रह्म की एक और दिव्य अभिव्यक्ति थी. ब्रह्मा सृष्टि के रचयिता थे. उन्हें रजो गुण का अधिष्ठाता माना गया. सृष्टि के इस जनक के एक हाथ में कमंडल था और दूसरे में माला थी. इस प्रकार नाभि से निकले कमल में से उत्पन्न होने के कारण ब्रह्मा को 'पद्मयोनि' और 'नाभिज' जैसे अन्य नाम मिले.
सीप में जिस तरह मोती पलता है, उस तरह हिरण्यगर्भ के भीतर एक वर्ष रहने के बाद ब्रह्मा ने उस सुनहरे अंडे को दो हिस्सों में विभाजित कर दिया. उसका ऊपर का आधा भाग, स्वर्ग कहलाया और निचले आधे भाग से पृथ्वी बनी. दोनों के बीच में आकाश व्याप्त था. ब्रह्मा ने सृष्टि के चक्र का आरंभ कर दिया था और वे जानते थे कि इसका अंत कैसे होगा. रचना (सर्ग) के बाद संरक्षण (स्थिति) और अंत में, विघटन (प्रलय). इस चक्र का अंत होने पर एक नया चक्र आरंभ होगा. प्रत्येक चक्र के अंत में जब सब कुछ अव्यवस्था के अतिप्राचीन सागर में विलीन हो जाएगा, तो ब्रह्मा इस प्रक्रिया को पुनः आरंभ करेंगे.
चक्रों का एक शाश्वत क्रम. परस्पर गुंथे हुए वृत्तों से निर्मित ब्रह्मांड. यह ब्रह्मांड, अंधकार से भरे आकाश में हुई आतिशबाजी की तरह अस्तित्व में आया था. ब्रह्मा बैठे अपनी इस रचना को निहार रहे थे. फिर उन्होंने ध्यान की अवस्था में प्रवेश किया और उसकी गहराइयों से चारों वेदों की उत्पत्ति हुई. ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद.