Ramcharitmanas: अयोध्या में नवनिर्मित राम मंदिर की तैयारियां जोर-शोर से चल रही हैं. भगवान राम की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा 22 जनवरी को होगी. रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा के अवसर पर अयोध्या के साथ-साथ पूरा देश राममय हो रहा है. इस खास मौके पर हम आपको तुलसीदास द्वारा अवधी में लिखी गई राम की कहानी बता रहे हैं. आज हम जानेंगे कि भगवान राम ने सीता के स्वयंवर में कैसे शिव धनुष तोड़ा था.
जनकजी ने शतानन्द जी को बुलाया और उन्हें तुरंत ही विश्वामित्र मुनि के पास भेजा. उन्होंने आकर जनकजी की विनती सुनाई. विश्वामित्र जी ने हर्षित होकर दोनों भाइयों को बुलाया. शतानन्द जी के चरणों की वन्दना करके प्रभु श्रीरामचन्द्रजी गुरुजी के पास जा बैठे. तब मुनि ने कहा- हे तात! चलो, जनकजी ने बुला भेजा है. चलकर सीताजी के स्वयंवर को देखना चाहिए. देखें ईश्वर किसको बड़ाई देते हैं. लक्ष्मणजी ने कहा- हे नाथ! जिसपर आपकी कृपा होगी, वही बड़ाई का पात्र होगा (धनुष तोड़ने का श्रेय उसी को प्राप्त होगा). इस श्रेष्ठ वाणी को सुनकर सब मुनि प्रसन्न हुए. सभी ने सुख मानकर आशीर्वाद दिया. फिर मुनियों के समूह सहित कृपालु श्रीरामचन्द्रजी धनुषयज्ञशाला देखने चले. दोनों भाई रंगभूमि में आए हैं, ऐसी खबर जब सब नगरनिवासियों ने पाई, तब बालक, जवान, बूढ़े, स्त्री, पुरुष सभी घर और काम-काज को भुलाकर चल दिए. जब जनकजी ने देखा कि बड़ी भीड़ हो गई है, तब उन्होंने सब विश्वासपात्र सेवकों को बुलवा लिया और कहा- तुम लोग तुरंत सब लोगों के पास जाओ और सब किसी को यथायोग्य आसन दो.
राजकुअँर तेहि अवसर आए। मनहुँ मनोहरता तन छाए।।
गनु सागर नागर बर बीरा। सुंदर स्यामल गौर सरीरा।।
उन सेवकों ने कोमल और नम्र वचन कहकर उत्तम, मध्यम, नीच और लघु (सभी श्रेणी के) स्त्री-पुरुषों को अपने-अपने योग्य स्थान पर बैठाया. उसी समय राजकुमार (राम और लक्ष्मण) वहां आए. वे ऐसे सुंदर हैं मानो साक्षात मनोहरता ही उनके शरीरों पर छा रही हो. सुंदर सांवला और गोरा उनका शरीर है. वे गुणों के समुद्र, चतुर और उत्तम वीर हैं. जनक समेत रानियां उन्हें अपने बच्चे के समान देख रही हैं, उनकी प्रीति का वर्णन नहीं किया जा सकता. योगियों को वे शान्त, शुद्ध, सम और स्वतःप्रकाश परम तत्व के रूप में दिखे. हरिभक्तों ने दोनों भाइयों को सब सुखों के देने वाले इष्टदेव के समान देखा.
जनकजी भी दोनों भाइयों को देखकर हर्षित हुए. मुनि ने राजा से कहा- रंगभूमि की रचना बड़ी सुंदर है. सब मंचों से एक मंच अधिक सुंदर, उज्ज्वल और विशाल था. राजा ने मुनि सहित दोनों भाइयों को उसपर बैठाया. प्रभु को देखकर सब राजा हृदय में ऐसे हार गए (निराश एवं उत्साहहीन हो गए) जैसे पूर्ण चन्द्रमा के उदय होने पर तारे प्रकाशहीन हो जाते हैं. उनके तेज को देखकर सबके मन में ऐसा विश्वास हो गया कि रामचन्द्रजी ही धनुष को तोड़ेंगे, इसमें संदेह नहीं. इधर उनके रूप को देखकर सबके मन में यह निश्चय हो गया कि शिवजी के विशाल धनुष को जो सम्भव है न टूट सके बिना तोड़े भी सीताजी श्रीरामचन्द्रजी के ही गले में जयमाल डालेंगी. दूसरे राजा, जो अविवेक से अंधे हो रहे थे और अभिमानी थे, यह बात सुनकर बहुत हंसे. उन्होंने कहा- धनुष तोड़ने पर भी विवाह होना कठिन है, फिर बिना तोड़े तो राजकुमारी को ब्याह ही कौन सकता है. काल ही क्यों न हो, एक बार तो सीता के लिए उसे भी हम युद्ध में जीत लेंगे.
यह घमंड की बात सुनकर दूसरे राजा, जो धर्मात्मा, हरिभक्त और सयाने थे, मुसकराये. उन्होंने कहा- राजाओं के गर्व दूर करके श्रीरामचन्द्रजी सीताजी को ब्याहेंगे. रही युद्ध की बात, सो महाराज दशरथ के रण में बांके पुत्रों को युद्ध में तो जीत ही कौन सकता है. गाल बजाकर व्यर्थ ही मत मरो. मन के लड्डुओं से भी कहीं भूख बुझती है? हमारी परम पवित्र (निष्कपट) सीख को सुनकर सीताजी को अपने जी में साक्षात जगज्जननी समझो. और श्रीरघुनाथजी को जगत का पिता (परमेश्वर) विचारकर, नेत्र भरकर उनकी छवि देख लो ऐसा अवसर बार-बार नहीं मिलेगा.
वहीं दूसरी ओर, सयानी सखियां सीताजी को साथ लेकर मनोहर वाणी से गीत गाती हुई चलीं. सीताजी के नवल शरीर पर सुंदर साड़ी सुशोभित है. जगज्जननी की महान छवि अतुलनीय है. सब आभूषण अपनी-अपनी जगह पर शोभित हैं, जिन्हें सखियों ने अंग-अंग में भलीभांति सजाकर पहनाया है. जब सीताजी ने रंगभूमि में पैर रखा, तब उनका दिव्य रूप देखकर स्त्री-पुरुष सभी मोहित हो गए. देवताओं ने हर्षित होकर नगाड़े बजाए और पुष्प बरसाकर अप्सराएं गाने लगीं. सीताजी के करकमलों में जयमाला सुशोभित है. सब राजा चकित होकर अचानक उनकी ओर देखने लगे. सीताजी चकित चित्त से श्रीरामजी को देखने लगीं, तब सब राजा लोग मोह के वश हो गए. सीताजी ने मुनि के पास बैठे हुए दोनों भाइयों को देखा तो उनके नेत्र अपना खजाना पाकर ललचाकर वहीं श्रीरामजी में जा लगे. परन्तु गुरुजनों की लाज से तथा बहुत बड़े समाज को देखकर सीताजी सकुचा गईं.
रावण और बाणासुर भी नहीं उठा पाए थे धनुष
छल से जो राक्षस वहां राजाओं के वेष में बैठे थे, उन्होंने प्रभु को प्रत्यक्ष काल के समान देखा. राजाओं की भुजाओं का बल चन्द्रमा है, शिवजी का धनुष राहु है, वह भारी है, कठोर है, यह सबको विदित है. बड़े भारी योद्धा रावण और बाणासुर भी इस धनुष को देखकर चुपके-से चलते बने. उसी शिवजी के कठोर धनुष को आज इस राजसमाज में जो भी तोड़ेगा, तीनों लोकों की विजय के साथ ही उसको जानकीजी बिना किसी विचार के हठपूर्वक वरण करेंगी. प्रण सुनकर सब राजा ललचा उठे. जो वीरता के अभिमानी थे, वे मन में बहुत ही तमतमाए. कमर कसकर अकुलाकर उठे और अपने इष्टदेवों को सिर नवाकर चले. वे तमककर शिवजी के धनुष की ओर देखते हैं और फिर निगाह जमाकर उसे पकड़ते हैं. करोड़ों भांति से जोर लगाते हैं, पर वह उठता ही नहीं. जिन राजाओं के मन में कुछ विवेक है, वे धनुष के पास ही नहीं जाते. वे मूर्ख राजा तमककर (किटकिटाकर) धनुष को पकड़ते हैं, परंतु जब नहीं उठता तो लजाकर चले जाते हैं, मानो वीरों की भुजाओं का बल पाकर वह धनुष अधिक-अधिक भारी होता जाता है. तब दस हजार राजा एक ही बार धनुष को उठाने लगे, तो भी वह उनके टाले नहीं टलता.
तमकि धरहिं धनुमूढ़ नृप उठइ न चलहिं लजाइ।
मनहुँ पाइ भट बाहुबलु अधिकु अधिकु गरुआइ।।
जब किसी से नहीं टूटा शिवजी का धनुष
शिवजी का वह धनुष कैसे नहीं डिगता था, जैसे कामी पुरुष के वचनों से सती का मन (कभी) चलायमान नहीं होता. सब राजा उपहास के योग्य हो गए. जैसे वैराग्य के बिना संन्यासी उपहास के योग्य हो जाता है. कीर्ति, विजय, बड़ी वीरता- इन सबको वे धनुष के हाथों बरबस हारकर चले गए. राजा लोग हृदय से हारकर श्रीहीन (हतप्रभ) हो गए और अपने-अपने समाज में जा बैठे. राजाओं को असफल देखकर जनक अकुला उठे और ऐसे वचन बोले जो मानो क्रोध में सने हुए थे. मैंने जो प्रण ठाना था, उसे सुनकर द्वीप-द्वीप के अनेकों राजा आए. देवता और दैत्य भी मनुष्य का शरीर धारण करके आए तथा और भी बहुत से रणधीर वीर आए, परंतु धनुष को तोड़कर मनोहर कन्या, बड़ी विजय और अत्यन्त सुंदर कीर्ति को पाने वाला मानो ब्रह्मा ने किसी को रचा ही नहीं.
कहिये, यह लाभ किसको अच्छा नहीं लगता. परंतु किसी ने भी शंकरजी का धनुष नहीं चढ़ाया. अरे भाई! चढ़ाना और तोड़ना तो दूर रहा, कोई तिलभर भूमि भी छुड़ा न सका. अब कोई वीरता का अभिमानी नाराज न हो. मैंने जान लिया, पृथ्वी वीरों से खाली हो गई. अब आशा छोड़कर अपने-अपने घर जाओ. ब्रह्मा ने सीता का विवाह लिखा ही नहीं. यदि प्रण छोड़ता हूं तो पुण्य जाता है इसलिए क्या करूं, कन्या कुंआरी ही रहे. यदि मैं जानता कि पृथ्वी वीरों से शून्य है, तो प्रण करके उपहास का पात्र न बनता. जनक के वचन सुनकर सभी स्त्री-पुरुष जानकीजी की ओर.
राजा दशरथ के शब्द सुन क्रोध में आए लक्ष्मण
ये सुनकर लक्ष्मणजी तमतमा उठे. उनकी भौंहें टेढ़ी हो गईं, होंठ फड़कने लगे और नेत्र क्रोध से लाल हो गए. श्रीरघुवीरजी के डर से कुछ कह तो सकते नहीं, पर जनक के वचन उन्हें बाण-से लगे. जब न रह सके तब श्रीरामचन्द्रजी के चरणकमलों में सिर नवाकर वे यथार्थ वचन बोले- रघुवंशियों में कोई भी जहां होता है, उस समाज में ऐसे वचन कोई नहीं कहता, जैसे अनुचित वचन रघुकुल शिरोमणि श्रीरामजी को उपस्थित जानते हुए भी जनकजी ने कहे हैं. हे सूर्यकुलरूपी कमल के सूर्य! सुनिये, मैं स्वभाव ही से कहता हूं, कुछ अभिमान करके नहीं, यदि आपकी आज्ञा पाऊं, तो मैं ब्रह्मांड को गेंद की तरह उठा लूं. और उसे कच्चे घड़े की तरह फोड़ डालूं. मैं सुमेरु पर्वत को मूली की तरह तोड़ सकता हूं, हे भगवन! आपके प्रताप की महिमा से यह बेचारा पुराना धनुष तो कौन चीज है. ऐसा जानकर हे नाथ! आज्ञा हो तो कुछ खेल करूं, उसे भी देखिये. धनुष को कमल की डंडी की तरह चढ़ाकर उसे सौ योजन तक दौड़ा लिए चला जाऊं. हे नाथ! आपके प्रताप के बल से धनुष को कुकुरमुत्ते की तरह तोड़ दूं. यदि ऐसा न करूं तो प्रभु के चरणों की शपथ है, फिर मैं धनुष और तरकस को कभी हाथ में भी न लूंगा.
ज्यों ही लक्ष्मणजी ने क्रोध भरे वचन बोले कि पृथ्वी डगमगा उठी और दिशाओं के हाथी कांप गए. सभी लोग और सब राजा डर गए. सीताजी के हृदय में हर्ष हुआ और जनकजी संकुचा गए. गुरु विश्वामित्रजी, श्रीरघुनाथजी और सब मुनि मन में प्रसन्न हुए और बार-बार पुलकित होने लगे. श्रीरामचन्द्रजी ने इशारे से लक्ष्मण को मना किया और प्रेमसहित अपने पास बैठा लिया. विश्वामित्रजी शुभ समय जानकर अत्यन्त प्रेमभरी वाणी बोले- हे राम! उठो, शिवजी का धनुष तोड़ो और हे तात! जनक का संताप मिटाओ. गुरु के वचन सुनकर श्रीरामजी ने चरणों में सिर नवाया. उनके मन में न हर्ष हुआ, न विषाद; और वे अपनी खड़े होने की शान से जवान सिंह को भी लजाते हुए सहज स्वभाव से ही उठ खड़े हुए.
बिस्वामित्र समय सुभ जानी। बोले अति सनेहमय बानी।।
उठहु राम भंजहु भवचापा। मेटहु तात जनक परितापा।।
मंच रूपी उदयाचल पर रघुनाथजी रूपी बालसूर्य के उदय होते ही सब संतरूपी कमल खिल उठे और नेत्ररूपी भौरे हर्षित हो गए. प्रेमसहित गुरु के चरणों की वंदना करके श्रीरामचन्द्रजी ने मुनियों से आज्ञा मांगी. उन्होंने पितर और देवताओं की वन्दना करके अपने पुण्यों का स्मरण किया. मुनियों ने मन ही मन कहा यदि हमारे पुण्यों का कुछ भी प्रभाव हो, तो हे गणेश गोसाईं! रामचन्द्रजी शिवजी के धनुष को कमल की डंडी की भांति तोड़ डालें. श्रीरामचन्द्रजी को वात्सल्य प्रेम के साथ देखकर और सखियों को समीप बुलाकर सीताजी की माता स्नेहवश विलखकर ये वचन बोलीं- हे सखी! ये जो हमारे हितू कहलाते हैं, वे भी सब तमाशा देखने वाले हैं. कोई भी इनके गुरु विश्वामित्रजी को समझाकर नहीं कहता कि ये रामजी बालक हैं, इनके लिए ऐसा हठ अच्छा नहीं. रावण और बाणासुर ने जिस धनुष को छुआ तक नहीं और सब राजा घमंड करके हार गए, वही धनुष इस सुकुमार राजकुमार के हाथ में दे रहे हैं. हंस के बच्चे भी कहीं मंदराचल पहाड़ उठा सकते हैं?
उस समय श्रीरामचन्द्रजी को देखकर सीताजी भयभीत हृदय से जिस-तिस देवता से विनती कर रही हैं. वे व्याकुल होकर मन-ही-मन मना रही हैं-हे महेश- भवानी! मुझपर प्रसन्न होइए, मैंने आपकी जो सेवा की है, उसे सुफल कीजिए और मुझपर स्नेह करके धनुष के भारीपन को हर लीजिए. श्रीरामचन्द्रजी जब धनुष के समीप आए, तब सब स्त्री-पुरुषों ने देवताओं और पुण्यों को मनाया. श्रीरामजी ने सब लोगों की ओर देखा और उन्हें चित्र में लिखे हुए से देखकर फिर कृपाधाम श्रीरामजी ने सीताजी की ओर देखा और उन्हें विशेष व्याकुल जाना.
लेत चढ़ावत खैचत गाढ़ें। काहुँ न लखा देख सबु ठाढ़ें।।
तेहि छन राम मध्य धनुतोरा। भरे भुवन धुनि घोर कठोरा।।
राम ने ऐसे तोड़ा शिवजी का धनुष
मन-ही-मन उन्होंने गुरु को प्रणाम किया और बड़ी फुर्ती से धनुष को उठा लिया. जब उसे हाथ में लिया, तब वह धनुष बिजली की तरह चमका और फिर आकाश में मंडल जैसा हो गया. लेते, चढ़ाते और जोर से खींचते हुए किसी ने नहीं लखा (अर्थात ये तीनों काम इतनी फुर्ती से हुए कि धनुष को कब उठाया, कब चढ़ाया और कब खींचा, इसका किसी को पता नहीं लगा). सबने श्रीरामजी को धनुष खींचे खड़े देखा. उसी क्षण श्रीरामजी ने धनुष को बीच से तोड़ डाला. भंयकर कठोर ध्वनि से सब लोक भर गए. घोर, कठोर शब्द से सब लोक भर गए, सूर्य के घोड़े मार्ग छोड़कर चलने लगे. दिग्गज चिंघाड़ने लगे, धरती डोलने लगी, शेष, वाराह और कच्छप कलमला उठे. देवता, राक्षस और मुनि कानों पर हाथ रखकर सब व्याकुल होकर विचारने लगे. जब सबको निश्चय हो गया कि श्रीरामजी ने धनुष को तोड़ डाला, तब सब 'श्रीरामचन्द्रजी की जय' बोलने लगे. शिवजी का धनुष जहाज है और श्रीरामचन्द्रजी की भुजाओं का बल समुद्र है. धनुष टूटने से वह सारा समाज डूब गया, जो मोहवश पहले इस जहाज पर चढ़ा था जिसका वर्णन ऊपर आया है. प्रभु ने धनुष के दोनों टुकड़े पृथ्वी पर डाल दिए. यह देखकर सब लोग सुखी हुए. विश्वामित्र रूपी पवित्र समुद्र में, जिसमें प्रेमरूपी सुंदर अथाह जल भरा है, रामरूपी पूर्णचन्द्र को देखकर पुलकावली रूपी भारी लहरें बढ़ने लगीं. आकाश में बड़े जोर से नगाड़े बजने लगे और देवांगनाएं गान करके नाचने लगीं.