भरतजी अपनी तीनों माताओं और विशाल सेना के साथ श्रीराम को वन से वापस लेने के लिए निकल पड़े. निषादराज ने वीरों का बढ़िया दल देखकर कहा-लड़ाई का ढोल बजाओ. इतना कहते ही बायीं ओर छींक हुई. शकुन विचारने वालों ने कहा कि खेत सुंदर हैं जीत होगी. एक बूढ़े ने शकुन विचारकर कहा- भरत से मिल लीजिए, उनसे लड़ाई नहीं होगी. भरत श्रीरामचंद्रजी को मनाने जा रहे हैं. शकुन ऐसा कह रहा है कि विरोध नहीं है. यह सुनकर निषादराज गुह ने कहा- बूढ़ा ठीक कह रहा है. जल्दी में कोई काम करके मूर्ख लोग पछताते हैं. भरतजी का शील-स्वभाव बिना समझे और बिना जाने युद्ध करने में हित की बहुत बड़ी हानि है. अतएव हे वीरो! तुम लोग इकट्ठे होकर सब घाटों को रोक लो, मैं जाकर भरतजी से मिलकर उनका भेद लेता हूं. उनका भाव मित्र का है या शत्रु का या उदासीन का, यह जानकर तब आकर वैसा (उसी के अनुसार) प्रबन्ध करूंगा. उनके सुंदर स्वभाव से मैं उनके स्नेह को पहचान लूंगा. वैर और प्रेम छिपाने से नहीं छिपते. ऐसा कहकर वह भेंट का सामान सजाने लगा. उसने कन्द, मूल, फल, पक्षी और हिरन मंगवाए. कहार लोग पुरानी और मोटी पहिना नामक मछलियों के भार भर-भरकर लाए. भेंट का सामान सजाकर मिलने के लिए चले तो मंगलदायक शुभ शकुन मिले. निषादराज ने मुनिराज वसिष्ठजी को देखकर अपना नाम बतलाकर दूर ही से दंडवत-प्रणाम किया. मुनीश्वर वसिष्ठजी ने उसको राम का प्यारा जानकर आशीर्वाद दिया और भरतजी को समझाकर कहा कि यह श्रीरामजी का मित्र है.
यह श्रीरामका मित्र है, इतना सुनते ही भरतजी ने रथ त्याग दिया. वे रथ से उतरकर प्रेम में उमंगते हुए चले. निषादराज गुह ने अपना गांव, जाति और नाम सुनाकर पृथ्वी पर माथा टेककर जोहार की. दंडवत करते देखकर भरतजी ने उठाकर उसको छाती से लगा लिया. हृदय में प्रेम समाता नहीं है, मानो स्वयं लक्ष्मणजी से भेंट हो गई हो. भरतजी गुह को अत्यंत प्रेम से गले लगा रहे हैं. प्रेम की रीति को सब लोग सिहा रहे हैं, मंगल की मूल 'धन्य धन्य' की ध्वनि करके देवता उसकी सराहना करते हुए फूल बरसा रहे हैं. जो लोक और वेद दोनों में सब प्रकार से नीचा माना जाता है, जिसकी छाया के छू जाने से भी स्नान करना होता है, उसी निषाद से अंकवार भरकर (हृदय से चिपटाकर) श्रीरामचंद्रजी के छोटे भाई भरतजी आनंद और प्रेमवश शरीर में पुलकावली से परिपूर्ण हो मिल रहे हैं. जो लोग राम-राम कहकर जंभाई लेते हैं, कोई भी पाप उनके सामने नहीं आते. फिर इस गुह को तो स्वयं श्रीरामचंद्रजी ने हृदय से लगा लिया और कुल समेत इसे जगत पावन बना दिया. कर्मनाशा नदी का जल गंगाजी में पड़ जाता है, तब कहिए, उसे कौन सिर पर धारण नहीं करता? जगत जानता है कि उलटा नाम (मरा-मरा) जपते जपते वाल्मीकिजी ब्रह्म के समान हो गए. मूर्ख और पामर चांडाल, शबर, खस, यवन, कोल और किरात भी रामनाम कहते ही परम पवित्र और त्रिभुवन में विख्यात हो जाते हैं.
इसमें कोई आश्चर्य नहीं है, युग-युगान्तर से यही रीति चली आ रही है. श्रीरघुनाथजी ने किसको बड़ाई नहीं दी? इस प्रकार देवता रामनाम की महिमा कह रहे हैं और उसे सुन-सुनकर अयोध्या के लोग सुख पा रहे हैं. रामसखा निषादराज से प्रेम के साथ मिलकर भरतजी ने कुशल, मंगल और क्षेम पूछी. भरतजी का शील और प्रेम देखकर निषाद उस समय विदेह हो गया. उसके मन में संकोच, प्रेम और आनंद इतना बढ़ गया कि वह खड़ा-खड़ा टकटकी लगाए भरतजी को देखता रहा. फिर धीरज धरकर भरतजी के चरणों की वन्दना करके प्रेम के साथ हाथ जोड़कर विनती करने लगा. हे प्रभो! कुशल के मूल आपके चरणकमलों के दर्शन कर मैंने तीनों कालों में अपना कुशल जान लिया. अब आपके परम अनुग्रह से करोड़ों कुलों सहित मेरा कल्याण हो गया. मेरी करतूत और कुल को समझकर और प्रभु श्रीरामचंद्रजी की महिमा को मन में देख विचार कर जो रघुवीर श्रीरामजी के चरणों का भजन नहीं करता, वह जगत में विधाता के द्वारा ठगा गया है. मैं कपटी, कायर, कुबुद्धि और कुजाति हूं और लोक-वेद दोनों से सब प्रकार से बाहर हूं. पर जबसे श्रीरामचंद्रजी ने मुझे अपनाया है, तभी से मैं विश्व का भूषण हो गया.
निषादराज की प्रीति को देखकर और सुंदर विनय सुनकर फिर भरतजी के छोटे भाई शत्रुघ्नजी उससे मिले. फिर निषाद ने अपना नाम ले-लेकर सुंदर (नम्र और मधुर) वाणी से सब रानियों को आदरपूर्वक जोहार की. रानियां उसे लक्ष्मणजी के समान समझकर आशीर्वाद देती हैं कि तुम सौ लाख वर्षों तक सुखपूर्वक जिओ. नगर के स्त्री-पुरुष निषाद को देखकर ऐसे सुखी हुए, मानो लक्ष्मणजी को देख रहे हों. सब कहते हैं कि जीवन का लाभ तो इसी ने पाया है, जिसे कल्याणस्वरूप श्रीरामचंद्रजी ने भुजाओं में बांधकर गले लगाया है. निषाद अपने भाग्य की बड़ाई सुनकर मन में परम आनन्दित हो सबको अपने साथ लिवा ले चला. उसने अपने सब सेवकों को इशारे से कह दिया. वे स्वामी का रुख पाकर चले और उन्होंने घरों में, वृक्षों के नीचे, तालाबों पर तथा बगीचों और जंगलों में ठहरने के लिए स्थान बना दिए. भरतजी ने जब श्रृंगवेरपुर को देखा, तब उनके सब अंग प्रेम के कारण शिथिल हो गए. वे निषाद को लाग दिए (अर्थात् उसके कंधे पर हाथ रखे चलते हुए) ऐसे शोभा दे रहे हैं, मानो विनय और प्रेम शरीर धारण किए हुए हों. इस प्रकार भरतजी ने सब सेना को साथ में लिए हुए जगत को पवित्र करने वाली गंगाजी के दर्शन किए. श्रीरामघाट को [जहां श्रीरामजी ने स्नान-सन्ध्या की थी] प्रणाम किया. उनका मन इतना आनंदमग्न हो गया, मानो उन्हें स्वयं श्रीरामजी मिल गए हों.
नगर के नर-नारी प्रणाम कर रहे हैं और गंगाजी के ब्रह्मरूप जल को देख-देखकर आनन्दित हो रहे हैं. गंगाजी में स्नान कर हाथ जोड़कर सब यही वर मांगते हैं कि श्रीरामचंद्रजी के चरणों में हमारा प्रेम कम न हो. भरतजी ने कहा- हे गंगे! आपकी रज सबको सुख देने वाली तथा सेवक के लिए तो कामधेनु ही है. मैं हाथ जोड़कर यही वरदान मांगता हूं कि श्रीसीतारामजी के चरणों में मेरा स्वाभाविक प्रेम हो. इस प्रकार भरतजी स्नान कर और गुरुजी की आज्ञा पाकर तथा यह जानकर कि सब माताएं स्नान कर चुकी हैं, डेरा उठा ले चले. लोगों ने जहां-तहां डेरा डाल दिया. भरतजी ने सभी का पता लगाया कि सब लोग आकर आराम से टिक गए हैं या नहीं. फिर देवपूजन करके आज्ञा पाकर दोनों भाई श्रीरामचंद्रजी की माता कौसल्याजी के पास गए. चरण दबाकर और कोमल वचन कह-कहकर भरतजी ने सब माताओं का सत्कार किया. फिर भाई शत्रुघ्न को माताओं की सेवा सौंपकर आपने निषाद को बुला लिया. सखा निषादराज के हाथ से हाथ मिलाए हुए भरतजी चले. प्रेम कुछ थोड़ा नहीं है, जिससे उनका शरीर शिथिल हो रहा है. भरतजी सखा से पूछते हैं कि मुझे वह स्थान दिखलाओ और नेत्र और मन की जलन कुछ ठंडी करो. जहां सीताजी, श्रीरामजी और लक्ष्मण रात को सोए थे. ऐसा कहते ही उनके नेत्रों के कोयों में प्रेमाश्रुओं का जल भर आया. भरतजी के वचन सुनकर निषाद को बड़ा विषाद हुआ. वह तुरंत ही उन्हें वहां ले गया जहां पवित्र अशोक के वृक्ष के नीचे श्रीरामजी ने विश्राम किया था. भरतजी ने वहां अत्यंत प्रेम से आदरपूर्वक दंडवत-प्रणाम किया.
कुशों की सुंदर साथरी देखकर उसकी प्रदक्षिणा करके प्रणाम किया. श्रीरामचंद्रजी के चरण-चिह्नों की रज आंखों में लगाई. उस समय के प्रेम की अधिकता कहते नहीं बनती. भरतजी ने दो-चार स्वर्ण विन्दु (सोने के कण या तारे आदि जो सीताजी के गहने-कपड़ों से गिर पड़े थे) देखे तो उनको सीताजी के समान समझकर सिर पर रख लिया. उनके नेत्र प्रेमाश्रु के जलसे भरे हैं और हृदय में ग्लानि भरी है. वे सखा से सुंदर वाणी में ये वचन बोले. ये स्वर्ण के कण या तारे भी सीताजी के विरह से ऐसे श्रीहत (शोभाहीन) एवं कान्तिहीन हो रहे हैं, जैसे रामवियोग में अयोध्या के नर-नारी विलीन शोक के कारण क्षीण हो रहे हैं. जिन सीताजी के पिता राजा जनक हैं, इस जगत में भोग और योग दोनों ही जिनकी मुट्ठी में हैं, उन जनकजी को मैं किसकी उपमा दूं? सूर्यकुल के सूर्य राजा दशरथजी जिनके ससुर हैं, जिनको अमरावती के स्वामी इन्द्र भी सिहाते थे; और प्रभु श्रीरघुनाथजी जिनके प्राणनाथ हैं, जो इतने बड़े हैं कि जो कोई भी बड़ा होता है, वह श्रीरामचंद्रजी की दी हुई बड़ाई से ही होता है; उन श्रेष्ठ पतिव्रता स्त्रियों में शिरोमणि सीताजी की साथरी (कुशशय्या) देखकर मेरा हृदय हहराकर (दहलकर) फट नहीं जाता; हे शंकर! यह वज्र से भी अधिक कठोर है! मेरे छोटे भाई लक्ष्मण बहुत ही सुंदर और प्यार करने योग्य हैं. ऐसे भाई न तो किसी के हुए, न हैं, न होने के ही हैं. जो लक्ष्मण अवध के लोगों को प्यारे, माता-पिता के दुलारे और श्रीसीतारामजी के प्राणप्यारे हैं.
जिनकी कोमल मूर्ति और सुकुमार स्वभाव है, जिनके शरीर में कभी गरम हवा भी नहीं लगी, वे वन में सब प्रकार की विपत्तियां सह रहे हैं. हाय! इस मेरी छाती ने कठोरता में करोड़ों वज्रों का भी निरादर कर दिया, नहीं तो यह कभी की फट गई होती. श्रीरामचंद्रजी ने जन्म (अवतार) लेकर जगत को प्रकाशित (परम सुशोभित) कर दिया. वे रूप, शील, सुख और समस्त गुणों के समुद्र हैं. पुरवासी, कुटुम्बी, गुरु, पिता-माता सभी को श्रीरामजी का स्वभाव सुख देने वाला है. शत्रु भी श्रीरामजी की बड़ाई करते हैं. बोल-चाल, मिलने के ढंग और विनय से वे मनको हर लेते हैं. करोड़ों सरस्वती और अरबों शेषजी भी प्रभु श्रीरामचंद्रजी के गुणसमूहों की गिनती नहीं, जो सुखस्वरूप रघुवंश शिरोमणि श्रीरामचंद्रजी मंगल और आनंद के भंडार हैं, वे पृथ्वी पर कुशा बिछाकर सोते हैं. विधाता की गति बड़ी ही बलवान है. श्रीरामचंद्रजी ने कानों से भी कभी दुख का नाम नहीं सुना. महाराज स्वयं जीवन-वृक्ष की तरह उनकी सार-संभाल किया करते थे. सब माताएं भी रात-दिन उनकी ऐसी सार-संभाल करती थीं, जैसे पलक नेत्रों की और सांप अपनी मणि की करते हैं. वही श्रीरामचंद्रजी अब जंगलों में पैदल फिरते हैं और कन्द-मूल तथा फल-फूलों का भोजन करते हैं. अमंगल की मूल कैकेयी को धिक्कार है, जो अपने प्राणप्रियतम पति से भी प्रतिकूल हो गई. मुझ पापों के समुद्र और अभागे को धिक्कार है, धिक्कार है, जिसके कारण ये सब उत्पात हुए. विधाता ने मुझे कुलका कलंक बनाकर पैदा किया और कुमाता ने मुझे स्वामीद्रोही बना दिया.
यह सुनकर निषादराज प्रेमपूर्वक समझाने लगा- हे नाथ! आप व्यर्थ विषाद किसलिए करते हैं? श्रीरामचंद्रजी आपको प्यारे हैं और आप श्रीरामचंद्रजी को प्यारे हैं. यही निचोड़ है, दोष तो प्रतिकूल विधाता को है. प्रतिकूल विधाता की करनी बड़ी कठोर है, जिसने माता कैकेयी को बावली बना दिया. उस रात को प्रभु श्रीरामचंद्रजी बार-बार आदरपूर्वक आपकी बड़ी सराहना करते थे. निषादराज कहता है कि श्रीरामचंद्रजी को आपके समान अतिशय प्रिय और कोई नहीं है, मैं सौगंध खाकर कहता हूं. परिणाम में मंगल होगा, यह जानकर आप अपने हृदय में धैर्य धारण कीजिए. श्रीरामचंद्रजी अन्तर्यामी तथा संकोच, प्रेम और कृपा के धाम हैं, यह विचारकर और मन में दृढ़ता लाकर चलिए और विश्राम कीजिए. सखा के वचन सुनकर, हृदय में धीरज धरकर श्रीरामचंद्रजी का स्मरण करते हुए भरतजी डेरे को चले. नगर के सारे स्त्री-पुरुष यह समाचार पाकर बड़े आतुर होकर उस स्थान को देखने चले. वे उस स्थान की परिक्रमा करके प्रणाम करते हैं और कैकेयी को बहुत दोष देते हैं. नेत्रों में जल भर-भर लेते हैं और प्रतिकूल विधाता को दूषण देते हैं. कोई भरतजी के स्नेह की सराहना करते हैं और कोई कहते हैं कि राजा ने अपना प्रेम खूब निबाहा. सब अपनी निन्दा करके निषाद की प्रशंसा करते हैं. उस समय के विमोह और विषाद को कौन कह सकता है?
इस प्रकार रातभर सब लोग जागते रहे. सबेरा होते ही खेवा लगा. सुंदर नाव पर गुरुजी को चढ़ाकर फिर नई नाव पर सब माताओं को चढ़ाया. चार घड़ी में सब गंगाजी के पार उतर गए. तब भरतजी ने उतरकर सबको संभाला. प्रातःकाल की क्रियाओं को करके माता के चरणों की वन्दना कर और गुरुजी को सिर नवाकर भरतजी ने निषादगणों को (रास्ता दिखलाने के लिए) आगे कर लिया और सेना चला दी. निषादराज को आगे करके पीछे सब माताओं की पालकियां चलाईं. छोटे भाई शत्रुघ्नजी को बुलाकर उनके साथ कर दिया. फिर ब्राह्मणों सहित गुरुजी ने गमन किया. तदंतर आप (भरतजी) ने गंगाजी को प्रणाम किया और लक्ष्मण सहित श्रीसीतारामजी का स्मरण किया. भरतजी पैदल ही चले. उनके साथ कोतल (बिना सवार के) घोड़े बागडोर से बंधे हुए चले जा रहे हैं. उत्तम सेवक बार-बार कहते हैं कि हे नाथ! आप घोड़े पर सवार हो लीजिए. भरतजी जवाब देते हैं कि श्रीरामचंद्रजी तो पैदल ही गए और हमारे लिए रथ, हाथी और घोड़े बनाए गए हैं. मुझे उचित तो ऐसा है कि मैं सिर के बल चलकर जाऊं. सेवक का धर्म सबसे कठिन होता है. भरतजी की दशा देखकर और कोमल वाणी सुनकर सब सेवकगण ग्लानि के मारे गले जा रहे हैं.
प्रेम में उमंग-उमंगकर सीताराम-सीताराम कहते हुए भरतजी ने तीसरे पहर प्रयाग में प्रवेश किया. उनके चरणों में छाले कैसे चमकते हैं, जैसे कमल की कली पर ओस की बूंदें चमकती हों. भरतजी आज पैदल ही चलकर आए हैं, यह समाचार सुनकर सारा समाज दुखी हो गया. जब भरतजी ने यह पता पा लिया कि सब लोग स्नान कर चुके, तब त्रिवेणी पर आकर उन्हें प्रणाम किया. फिर विधिपूर्वक (गंगा-यमुना के) श्वेत और श्याम जल में स्नान किया और दान देकर ब्राह्मणों का सम्मान किया. श्याम और सफेद (यमुनाजी और गंगाजी की) लहरों को देखकर भरतजी का शरीर पुलकित हो उठा और उन्होंने हाथ जोड़कर कहा - हे तीर्थराज ! आप समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं. आपका प्रभाव वेदों में प्रसिद्ध और संसार में प्रकट है. मैं अपना धर्म (न मांगने का क्षत्रियधर्म) त्यागकर आपसे भीख मांगता हूं. आर्त्त मनुष्य कौन-सा कुकर्म नहीं करता? ऐसा हृदय में जानकर सुजान उत्तम दानी जगत में मांगने वाले की वाणी को सफल किया करते हैं (अर्थात वह जो मांगता है, सो दे देते हैं). मुझे न अर्थ की रुचि (इच्छा) है, न धर्म की, न काम की और न मैं मोक्ष ही चाहता हूं. जन्म-जन्म में मेरा श्रीरामजी के चरणों में प्रेम हो, बस, यही वरदान मांगता हूं, दूसरा कुछ नहीं. स्वयं श्रीरामचंद्रजी भी भले ही मुझे कुटिल समझें और लोग मुझे गुरुद्रोही तथा स्वामीद्रोही भले ही कहें; पर श्रीसीतारामजी के चरणों में मेरा प्रेम आपकी कृपा से दिन-दिन बढ़ता ही रहे.
मेघ चाहे जन्मभर चातक की सुधि भुला दे और जल मांगने पर वह चाहे वज्र और पत्थर (ओले) ही गिरावे, पर चातक की रटन घटने से तो उसकी बात ही घट जाएगी. उसकी तो प्रेम बढ़ने में ही सब तरह से भलाई है. जैसे तपाने से सोने पर आब (चमक) आ जाती है, वैसे ही प्रियतम के चरणों में प्रेम का नियम निबाहने से प्रेमी सेवक का गौरव बढ़ जाता है. भरतजी के वचन सुनकर बीच त्रिवेणी में से सुंदर मंगल देने वाली कोमल वाणी हुई. हे तात भरत! तुम सब प्रकार से साधु हो. श्रीरामचंद्रजी के चरणों में तुम्हारा अथाह प्रेम है. तुम व्यर्थ ही मन में ग्लानि कर रहे हो. श्रीरामचंद्र को तुम्हारे समान प्रिय कोई नहीं है. त्रिवेणीजी के अनुकूल वचन सुनकर भरतजी का शरीर पुलकित हो गया, हृदय में हर्ष छा गया. भरतजी धन्य हैं, धन्य हैं, कहकर देवता हर्षित होकर फूल बरसाने लगे. तीर्थराज प्रयाग में रहने वाले वानप्रस्थ, ब्रह्मचारी, गृहस्थ और उदासीन (संन्यासी) सब बहुत ही आनन्दित हैं और दस-पांच मिलकर आपस में कहते हैं कि भरतजी का प्रेम और शील पवित्र और सच्चा है. श्रीरामचंद्रजी के सुंदर गुणसमूहों को सुनते हुए वे मुनिश्रेष्ठ भरद्वाजजी के पास आए. मुनि ने भरतजी को दंडवत-प्रणाम करते देखा और उन्हें अपना मूर्तिमान सौभाग्य समझा. उन्होंने दौड़कर भरतजी को उठाकर हृदय से लगा लिया और आशीर्वाद देकर कृतार्थ किया. मुनि ने उन्हें आसन दिया. वे सिर नवाकर इस तरह बैठे मानो भागकर संकोच के घर में घुस जाना चाहते हैं.
उनके मन में यह बड़ा सोच है कि मुनि कुछ पूछेंगे तो मैं क्या उत्तर दूंगा. भरतजी के शील और संकोच को देखकर ऋषि बोले- भरत! सुनो, हम सब खबर पा चुके हैं. विधाता के कर्तव्य पर कुछ वश नहीं चलता. माता की करतूत को समझकर (याद करके) तुम हृदय में ग्लानि मत करो. हे तात! कैकेयी का कोई दोष नहीं है, उसकी बुद्धि तो सरस्वती बिगाड़ गई थी. यह कहते भी कोई भला न कहेगा, क्योंकि लोक और वेद दोनों ही विद्वानों को मान्य है. किन्तु हे तात! तुम्हारा निर्मल यश गाकर तो लोक और वेद दोनों बड़ाई पावेंगे. यह लोक और वेद दोनों को मान्य है और सब यही कहते हैं कि पिता जिसको राज्य दे वही पाता है. राजा सत्यव्रती थे; तुमको बुलाकर राज्य देते, तो सुख मिलता, धर्म रहता और बड़ाई होती. सारे अनर्थ की जड़ तो श्रीरामचंद्रजी का वनगमन है, जिसे सुनकर समस्त संसार को पीड़ा हुई. वह श्रीराम का वनगमन भी भावीवश हुआ. बेसमझ रानी तो भावीवश कुचाल करके अन्त में पछताई. उसमें भी तुम्हारा कोई तनिक-सा भी अपराध कहे, तो वह अधम, अज्ञानी और असाधु है. यदि तुम राज करते तो भी तुम्हें दोष न होता, सुनकर श्रीरामचंद्रजी को भी सन्तोष ही होता. हे भरत! अब तो तुमने बहुत ही अच्छा किया; यही मत तुम्हारे लिए उचित था. श्रीरामचंद्रजी के चरणों में प्रेम होना ही संसार में समस्त सुंदर मंगलों का मूल है.
सो वह (श्रीरामचंद्रजी के चरणों का प्रेम) तो तुम्हारा धन, जीवन और प्राण ही है; तुम्हारे समान बड़भागी कौन है? हे तात! तुम्हारे लिए यह आश्चर्य की बात नहीं है. क्योंकि तुम दशरथजी के पुत्र और श्रीरामचंद्रजी के प्यारे भाई हो. हे भरत! सुनो, श्रीरामचंद्रजी के मन में तुम्हारे समान प्रेमपात्र दूसरा कोई नहीं है. लक्ष्मणजी, श्रीरामजी और सीताजी तीनों को सारी रात उस दिन अत्यंत प्रेम के साथ तुम्हारी सराहना करते ही बीती. प्रयागराज में जब वे स्नान कर रहे थे, उस समय मैंने उनका यह मर्म जाना. वे तुम्हारे प्रेम में मग्न हो रहे थे. तुम पर श्रीरामचंद्रजी का ऐसा ही (अगाध) स्नेह है जैसा मूर्ख (विषयासक्त) मनुष्य का संसार में सुखमय जीवनपर होता है. यह श्रीरघुनाथजी की बहुत बड़ाई नहीं है. क्योंकि श्रीरघुनाथजी तो शरणागत के कुटुम्बभर को पालने वाले हैं. हे भरत! मेरा यह मत है कि तुम तो मानो शरीरधारी श्रीरामजी के प्रेम ही हो. हे भरत! तुम्हारे लिए (तुम्हारी समझ में) यह कलंक है, पर हम सबके लिए तो उपदेश है. श्रीरामभक्तिरूपी रस की सिद्धि के लिए यह समय गणेश (बड़ा शुभ) हुआ है. हे तात! तुम्हारा यश निर्मल नवीन चंद्रमा है और श्रीरामचंद्रजी के दास कुमुद और चकोर हैं; परंतु यह तुम्हारा यशरूपी चंद्रमा सदा उदय रहेगा; कभी अस्त होगा ही नहीं. जगदरूपी आकाश में यह घटेगा नहीं, वरं दिन-दिन दूना होगा. त्रैलोक्यरूपी चकवा इस यशरूपी चंद्रमा पर अत्यंत प्रेम करेगा और प्रभु श्रीरामचंद्रजी का प्रतापरूपी सूर्य इसकी छवि को हरण नहीं करेगा. यह चंद्रमा रात-दिन सदा सब किसी को सुख देने वाला होगा. कैकेई का कुकर्मरूपी राहु इसे ग्रास नहीं करेगा. यह चंद्रमा श्रीरामचंद्रजी के सुंदर प्रेमरूपी अमृत से पूर्ण है. यह गुरु के अपमानरूपी दोष से दूषित नहीं है. तुमने इस यशरूपी चंद्रमा की सृष्टि करके पृथ्वी पर भी अमृत को सुलभ कर दिया. अब श्रीरामजी के भक्त इस अमृत से तृप्त हो लें. राजा भगीरथ गंगाजी को लाए, जिनका स्मरण ही सम्पूर्ण सुंदर मंगलों की खान है.
दशरथजी के गुणसमूहों का तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता; अधिक क्या, जिनकी बराबरी का जगत में कोई नहीं है. जिनके प्रेम और संकोच (शील) के वश में होकर स्वयं (सच्चिदानन्दघन) भगवान श्रीराम आकर प्रकट हुए, जिन्हें श्रीमहादेवजी अपने हृदय के नेत्रों से कभी अघाकर नहीं देख पाए (अर्थात जिनका स्वरूप हृदय में देखते-देखते शिवजी कभी तृप्त नहीं हुए), परंतु उनसे भी बढ़कर तुमने कीर्तिरूपी अनुपम चंद्रमा को उत्पन्न किया, जिसमें श्रीरामप्रेम ही हिरन के चिह्न के रूप में बसता है. हे तात! तुम व्यर्थ ही हृदय में ग्लानि कर रहे हो. पारस पाकर भी तुम दरिद्रता से डर रहे हो! हे भरत! सुनो, हम झूठ नहीं कहते. हम उदासीन हैं (किसी का पक्ष नहीं करते), तपस्वी हैं (किसी की मुंहदेखी नहीं कहते) और वन में रहते हैं (किसी से कुछ प्रयोजन नहीं रखते). साधनों का उत्तम फल हमें लक्ष्मणजी, श्रीरामजी और सीताजी का दर्शन प्राप्त हुआ. सीता-लक्ष्मण सहित श्रीराम दर्शन रूप उस महान फल का परम फल यह तुम्हारा दर्शन है. प्रयागराज समेत हमारा बड़ा भाग्य है. हे भरत! तुम धन्य हो, तुमने अपने यश से जगत को जीत लिया है. ऐसा कहकर मुनि प्रेम में मग्न हो गए.
भारद्वाज मुनि के वचन सुनकर सभासद हर्षित हो गए. 'साधु-साधु' कहकर सराहना करते हुए देवताओं ने फूल बरसाए. आकाश में और प्रयागराज में ‘धन्य, धन्य’ की ध्वनि सुन-सुनकर भरतजी प्रेम में मग्न हो रहे हैं. भरतजी का शरीर पुलकित है, हृदय में श्रीसीतारामजी हैं और कमल के समान नेत्र प्रेमाश्रु के जल से भरे हैं. वे मुनियों की मंडली को प्रणाम करके गदगद वचन बोले- मुनियों का समाज है और फिर तीर्थराज है. यहां सच्ची सौगंध खाने से भी भरपूर हानि होती है. इस स्थान में यदि कुछ बनाकर कहा जाय, तो इसके समान कोई बड़ा पाप और नीचता न होगी. मैं सच्चे भाव से कहता हूं. आप सर्वज्ञ हैं, और श्रीरघुनाथजी हृदय के भीतर की जानने वाले हैं. मैं कुछ भी असत्य कहूंगा तो आपसे और उनसे छिपा नहीं रह सकता. मुझे माता कैकेयी की करनी का कुछ भी सोच नहीं है.
और न मेरे मन में इसी बात का दुख है कि जगत मुझे नीच समझेगा. न यही डर है कि मेरा परलोक बिगड़ जाएगा और न पिताजी के मरने का ही मुझे शोक है. क्योंकि उनका सुंदर पुण्य और सुयश विश्वभर में सुशोभित है. उन्होंने श्रीराम-लक्ष्मण सरीखे पाए. फिर जिन्होंने श्रीरामचंद्रजी के विरह में अपने क्षणभंगुर शरीर को त्याग दिया, ऐसे राजा के लिए सोच करने का कौन प्रसंग है? सोच इसी बात का है कि श्रीरामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी पैरों में बिना जूती के मुनियों का वेष बनाए वन-वन में फिरते हैं.
वे वल्कल वस्त्र पहनते हैं, फलों का भोजन करते हैं, पृथ्वी पर कुश और पत्ते बिछाकर सोते हैं और वृक्षों के नीचे निवास करके नित्य सर्दी, गर्मी, वर्षा और हवा सहते हैं. इसी दुख की जलन से निरन्तर मेरी छाती जलती रहती है. मुझे न दिन में भूख लगती है, न रात को नींद आती है. मैंने मन-ही-मन समस्त विश्व को खोज डाला, पर इस कुरोग की औषधि कहीं नहीं है. माता का कुमत (बुरा विचार) पापों का मूल बढ़ई है. उसने हमारे हित का बसूला बनाया. उससे कलहरूपी कुकाठ का कुयन्त्र बनाया और चौदह वर्ष की अवधिरूपी कठिन कुमन्त्र पढ़कर उस यन्त्र को गाड़ दिया. (यहां माता का कुविचार बढ़ई है, भरत को राज्य बसूला है, राम का वनवास कुयन्त्र है और चौदह वर्ष की अवधि कुमन्त्र है). मेरे लिए उसने यह सारा कुठाट (बुरा साज) रचा और सारे जगत को बारहबाट (छिन्न-भिन्न) करके नष्ट कर डाला. यह कुयोग श्रीरामचंद्रजी के लौट आने पर ही मिट सकता है और तभी अयोध्या बस सकती है, दूसरे किसी उपाय से नहीं.
भरतजी के वचन सुनकर मुनि ने सुख पाया और सभी ने उनकी बहुत प्रकार से बड़ाई की. मुनि ने कहा- हे तात! अधिक सोच मत करो. श्रीरामचंद्रजी के चरणों का दर्शन करते ही सारा दुख मिट जाएगा. इस प्रकार मुनिश्रेष्ठ भरद्वाजजी ने उनका समाधान करके कहा- अब आपलोग हमारे प्रेमप्रिय अतिथि बनिए और कृपा करके कन्द-मूल, फल-फूल जो कुछ हम दें, स्वीकार कीजिए. मुनि के वचन सुनकर भरत के हृदय में सोच हुआ कि यह बेमौके बड़ा बेढब संकोच आ पड़ा! फिर गुरुजनों की वाणी को महत्त्वपूर्ण (आदरणीय) समझकर, चरणों की वन्दना करके हाथ जोड़कर बोले- हे नाथ! आपकी आज्ञा को सिर चढ़ाकर उसका पालन करना, यह हमारा परम धर्म है. भरतजी के ये वचन मुनिश्रेष्ठ के मन को अच्छे लगे. उन्होंने विश्वासपात्र सेवकों और शिष्यों को पास बुलाया. और कहा कि भरत की पहुनई (आतिथ्य-सत्कार) करनी चाहिए. जाकर कन्द, मूल और फल लाओ. उन्होंने ‘हे नाथ! बहुत अच्छा' कहकर सिर नवाया और तब वे बड़े आनन्दित होकर अपने-अपने काम को चल दिए. मुनि को चिन्ता हुई कि हमने बहुत बड़े मेहमान को न्योता है. अब जैसा देवता हो, वैसी ही उसकी पूजा भी होनी चाहिए. यह सुनकर ऋद्धियां और अणिमादि सिद्धियां आ गईं और बोलीं- हे गोसाईं! जो आपकी आज्ञा हो सो हम करें. मुनिराज ने प्रसन्न होकर कहा- छोटे भाई शत्रुघ्न और समाजसहित भरतजी श्रीरामचंद्रजी के विरह में व्याकुल हैं, इनकी पहुनई (आतिथ्य-सत्कार) करके इनके श्रम को दूर करो. ऋद्धि-सिद्धि ने मुनिराज की आज्ञा को सिर चढ़ाकर अपने को बड़भागिनी समझा. सब सिद्धियां आपस में कहने लगीं- श्रीरामचंद्रजी के छोटे भाई भरत ऐसे अतिथि हैं, जिनकी तुलना में कोई नहीं आ सकता. अतः मुनि के चरणों की वन्दना करके आज वही करना चाहिए जिससे सारा राज-समाज सुखी हो. ऐसा कहकर उन्होंने बहुत से सुंदर घर बनाए, जिन्हें देखकर विमान भी विलखते से हैं.
उन घरों में बहुत-से भोग और ऐश्वर्य का सामान भरकर रख दिया, जिन्हें देखकर देवता भी ललचा गए. दासी-दास सब प्रकार की सामग्री लिए हुए मन लगाकर उनके मनों को देखते रहते हैं. जो सुख के सामान स्वर्ग में भी स्वप्न में भी नहीं हैं ऐसे सब सामान सिद्धियों ने पलभर में सजा दिए. पहले तो उन्होंने सब किसी को, जिसकी जैसी रुचि थी वैसे ही सुंदर सुखदायक निवासस्थान दिए और फिर कुटुम्ब सहित भरतजी को दिए, क्योंकि ऋषि भरद्वाजजी ने ऐसी ही आज्ञा दे रखी थी. मुनिश्रेष्ठ ने तपोबल से ब्रह्मा को भी चकित कर देने वाला वैभव रच दिया. जब भरतजी ने मुनि के प्रभाव को देखा तो उसके सामने उन्हें (इन्द्र, वरुण, यम, कुबेर आदि) सभी लोकपालों के लोक तुच्छ जान पड़े. सुख की सामग्री का वर्णन नहीं हो सकता, जिसे देखकर ज्ञानी लोग भी वैराग्य भूल जाते हैं. आसन, सेज, सुंदर वस्त्र, चंदोवे, वन, बगीचे, भांति-भांति के पक्षी और पशु, सुगन्धित और अमृत के समान स्वादिष्ट फल, अनेकों प्रकार के (तालाब, कुएं, बावली आदि) निर्मल फूल जलाशय तथा अमृत के भी अमृत- सरीखे पवित्र खान-पान के पदार्थ थे, जिन्हें देखकर सब लोग संयमी पुरुषों की भांति सकुचा रहे हैं. सभी के डेरों में कामधेनु और कल्पवृक्ष हैं, जिन्हें देखकर इन्द्र और इन्द्राणी को भी अभिलाषा होती है.
वसन्त ऋतु है. शीतल, मन्द, सुगन्ध तीन प्रकार की हवा बह रही है. सभी को (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) चारों पदार्थ सुलभ हैं. माला, चन्दन, स्त्री आदि भोगों को देखकर सब लोग हर्ष और विषाद के वश हो रहे हैं. सम्पत्ति (भोग-विलास की सामग्री) चकवी है और भरतजी चकवा हैं और मुनि की आज्ञा खेल है, जिसने उस रात को आश्रमरूपी पिंजड़े में दोनों को बंद कर रखा और ऐसे ही सबेरा हो गया. प्रातःकाल भरतजी ने तीर्थराज में स्नान किया और समाज सहित मुनि को सिर नवाकर और ऋषि की आज्ञा तथा आशीर्वाद को सिर चढ़ाकर दंडवत करके बहुत विनती की. तदंतर रास्ते की पहचान रखने वाले लोगों (कुशल पथप्रदर्शकों) के साथ सब लोगों को लिए हुए भरतजी चित्रकूट में चित्त लगाए चले. भरतजी रामसखा गुह के हाथ में हाथ दिए हुए ऐसे जा रहे हैं, मानो साक्षात प्रेम ही शरीर धारण किए हुए हो. न तो उनके पैरों में जूते हैं और न सिरपर छाया है. उनका प्रेम, नियम, व्रत और धर्म निष्कपट (सच्चा) है. वे सखा निषादराज से लक्ष्मणजी, श्रीरामचंद्रजी और सीताजी के रास्ते की बातें पूछते हैं, और वह कोमल वाणी से कहता है. श्रीरामचंद्रजी के ठहरने की जगहों और वृक्षों को देखकर उनके हृदय में प्रेम रोके नहीं रुकता. भरतजी की यह दशा देखकर देवता फूल बरसाने लगे. पृथ्वी कोमल हो गई और मार्ग मंगल का मूल बन गया.
बादल छाया किए जा रहे हैं, सुख देने वाली सुंदर हवा बह रही है. भरतजी के जाते समय मार्ग जैसा सुखदायक हुआ, वैसा श्रीरामचंद्रजी को भी नहीं हुआ था. रास्ते में असंख्य जड़-चेतन जीव थे. उनमें से जिनको प्रभु श्रीरामचंद्रजी ने देखा, अथवा जिन्होंने प्रभु श्रीरामचंद्रजी को देखा वे सब उसी समय परमपद के अधिकारी हो गए. परंतु अब भरतजी के दर्शन ने तो उनका भव (जन्म-मरण) रूपी रोग मिटा ही दिया. भरतजी के लिए यह कोई बड़ी बात नहीं है, जिन्हें श्रीरामजी स्वयं अपने मन में स्मरण करते रहते हैं. जगत में जो भी मनुष्य एक बार 'राम' कह लेते हैं, वे भी तरने-तारने वाले हो जाते हैं! फिर भरतजी तो श्रीरामचंद्रजी के प्यारे तथा उनके छोटे भाई ठहरे. तब भला उनके लिए मार्ग मंगल (सुख) दायक कैसे न हो? सिद्ध, साधु और श्रेष्ठ मुनि ऐसा कह रहे हैं और भरतजी को
देखकर हृदय में हर्ष-लाभ करते हैं. भरतजी के इस प्रेम के प्रभाव को देखकर देवराज इन्द्र को सोच हो गया कि कहीं इनके प्रेमवश श्रीरामजी लौट न जाएं और हमारा बना-बनाया काम बिगड़ जाए, संसार भले के लिए भला और बुरे के लिए बुरा है. उसने गुरु बृहस्पतिजी से कहा- हे प्रभो! वही उपाय कीजिए जिससे श्रीरामचंद्रजी और भरतजी की भेंट ही न हो. श्रीरामचंद्रजी संकोची और प्रेम के वश हैं और भरतजी प्रेम के समुद्र हैं. बनी-बनाई बात बिगड़ना चाहती है, इसलिए कुछ छल ढूंढ़कर इसका उपाय कीजिए.
इन्द्र के वचन सुनते ही देवगुरु बृहस्पतिजी मुस्कुराए.उन्होंने हजार नेत्रों वाले इन्द्र को (ज्ञानरूपी) नेत्रों से रहित (मूर्ख) समझा और कहा- हे देवराज ! माया के स्वामी श्रीरामचंद्रजी के सेवक के साथ कोई माया करता है तो वह उलटकर अपने ही ऊपर आ पड़ती है. उस समय (पिछली बार) तो श्रीरामचंद्रजी का रुख जानकर कुछ किया था. परंतु इस समय कुचाल करने से हानि ही होगी. हे देवराज! श्रीरघुनाथजी का स्वभाव सुनो, वे अपने प्रति किए हुए अपराध से कभी रुष्ट नहीं होते, पर जो कोई उनके भक्त का अपराध करता है, वह श्रीराम की क्रोधाग्नि में जल जाता है. लोक और वेद दोनों में इतिहास प्रसिद्ध है. इस महिमा को दुर्वासाजी जानते हैं. सारा जगत श्रीराम को जपता है, वे श्रीरामजी जिनको जपते हैं उन भरतजी के समान श्रीरामचंद्रजी का प्रेमी कौन होगा? हे देवराज! रघुकुलश्रेष्ठ श्रीरामचंद्रजी के भक्त का काम बिगाड़ने की बात मन में भी न लाइए. ऐसा करने से लोक में अपयश और परलोक में दुख होगा और शोक का सामान दिनो दिन बढ़ता ही चला जाएगा.
हे देवराज! हमारा उपदेश सुनो. श्रीरामजी को अपना सेवक परम प्रिय है. वे अपने सेवक की सेवा से सुख मानते हैं और सेवक के साथ वैर करने से बड़ा भारी वैर मानते हैं. यद्यपि वे सम हैं- उनमें न राग है, न रोष है और न वे किसी का पाप-पुण्य और गुण-दोष ही ग्रहण करते हैं. उन्होंने विश्व में कर्म को ही प्रधान कर रखा है. जो जैसा करता है, वह वैसा ही फल भोगता है. तथापि वे भक्त और अभक्त के हृदय के अनुसार सम और विषम व्यवहार करते हैं. गुणरहित, निर्लेप, मानरहित और सदा एकरस भगवान श्रीराम भक्त के प्रेमवश ही सगुण हुए हैं. श्रीरामजी सदा अपने सेवकों (भक्तों) की रुचि रखते आए हैं. वेद, पुराण, साधु और देवता इसके साक्षी हैं. ऐसा हृदय में जानकर कुटिलता छोड़ दो और भरतजी के चरणों में सुंदर प्रीति करो. हे देवराज इन्द्र! श्रीरामचंद्रजी के भक्त सदा दूसरों के हित में लगे रहते हैं, वे दूसरों के दुख से दुखी और दयालु होते हैं. फिर, भरतजी तो भक्तों के शिरोमणि हैं, उनसे बिलकुल न डरो. प्रभु श्रीरामचंद्रजी सत्यप्रतिज्ञ और देवताओं का हित करने वाले हैं. और भरतजी श्रीरामजी की आज्ञा के अनुसार चलने वाले हैं. तुम व्यर्थ ही स्वार्थ के विशेष वश होकर व्याकुल हो रहे हो. इसमें भरतजी का कोई दोष नहीं, तुम्हारा ही मोह है. देवगुरु बृहस्पतिजी की श्रेष्ठ वाणी सुनकर इन्द्र के मन में बड़ा आनंद हुआ और उनकी चिन्ता मिट गई. तब हर्षित होकर देवराज फूल बरसाकर भरतजी के स्वभाव की सराहना करने लगे. इस प्रकार भरतजी मार्ग में चले जा रहे हैं. उनकी प्रेममई दशा देखकर मुनि और सिद्ध लोग भी सिहाते हैं. भरतजी जभी 'राम' कहकर लंबी सांस लेते हैं, तभी मानो चारों ओर प्रेम उमड़ पड़ता है.
उनके प्रेम और दीनता से पूर्ण वचनों को सुनकर वज्र और पत्थर भी पिघल जाते हैं. अयोध्यावासियों का प्रेम कहते नहीं बनता. बीच में निवास करके भरतजी यमुनाजी के तटपर आए. यमुनाजी का जल देखकर उनके नेत्रों में जल भर आया. श्रीरघुनाथजी के (श्याम) रंग का सुंदर जल देखकर सारे समाजसहित भरतजी प्रेमविह्वल होकर श्रीरामजी के विरहरूपी समुद्र में डूबते-डूबते विवेकरूपी जहाज पर चढ़ गए. उस दिन यमुनाजी के किनारे निवास किया. समयानुसार सबके लिए खान-पान आदि की सुंदर व्यवस्था हुई. निषादराज का संकेत पाकर रात-ही-रात में घाट-घा टकी अगणित नावें वहां आ गईं, जिनका वर्णन नहीं किया जा सकता. सबेरे एक ही खेवे में सब लोग पार हो गए और श्रीरामचंद्रजी के सखा निषादराज की इस सेवा से सन्तुष्ट हुए. फिर स्नान करके और नदी को सिर नवाकर निषादराज के साथ दोनों भाई चले. आगे अच्छी-अच्छी सवारियों पर श्रेष्ठ मुनि हैं, उनके पीछे सारा राजसमाज जा रहा है. उसके पीछे दोनों भाई बहुत सादे भूषण वस्त्र और वेष से पैदल चल रहे हैं. सेवक, मित्र और मन्त्री के पुत्र उनके साथ हैं. लक्ष्मण, सीताजी और श्रीरघुनाथजी का स्मरण करते जा रहे हैं. जहां-जहां श्रीरामजी ने निवास और विश्राम किया था, वहां-वहां वे प्रेमसहित प्रणाम करते हैं. मार्ग में रहने वाले स्त्री-पुरुष यह सुनकर घर और काम-काज छोड़कर दौड़ पड़ते हैं और उनके रूप (सौन्दर्य) और प्रेम को देखकर वे सब जन्म लेने का फल पाकर आनन्दित होते हैं.
गांवों की स्त्रियां एक-दूसरी से प्रेमपूर्वक कहती हैं- सखी! ये राम-लक्ष्मण हैं कि नहीं? हे सखी! इनकी अवस्था, शरीर और रंग-रूप तो वही है. शील, स्नेह उन्हीं के सदृश है और चाल भी उन्हीं के समान है. परंतु हे सखी! इनका न तो वह वेष (वल्कल वस्त्रधारी मुनिवेष) है, न सीताजी ही संग हैं. और इनके आगे चतुरंगिणी सेना चली जा रही है. फिर इनके मुख प्रसन्न नहीं हैं, इनके मन में खेद है. हे सखी! इसी भेद के कारण सन्देह होता है. उसका तर्क (युक्ति) अन्य स्त्रियों के मन भाया. सब कहती हैं कि इसके समान सयानी (चतुर) कोई नहीं है. उसकी सराहना करके और 'तेरी वाणी सत्य है' इस प्रकार उसका सम्मान करके दूसरी स्त्री मीठे वचन बोली. श्रीरामजी के राजतिलक का आनंद जिस प्रकार से भंग हुआ था वह सब कथाप्रसंग प्रेमपूर्वक कहकर फिर वह भाग्यवती स्त्री श्रीभरतजी के शील, स्नेह और स्वभाव की सराहना करने लगी. वह बोली- देखो, ये भरतजी पिता के दिए हुए राज को त्यागकर पैदल चलते और फलाहार करते हुए श्रीरामजी को मनाने के लिए जा रहे हैं. इनके समान आज कौन है? भरतजी का भाईपना, भक्ति और इनके आचरण कहने और सुनने से दुख और दोषों के हरने वाले हैं. हे सखी! उनके सम्बन्ध में जो कुछ भी कहा जाए, वह थोड़ा है. श्रीरामचंद्रजी के भाई ऐसे क्यों न हों?
छोटे भाई शत्रुघ्न सहित भरतजी को देखकर हम सब भी आज धन्य (बड़भागिनी) स्त्रियों की गिनती में आ गईं. इस प्रकार भरतजी के गुण सुनकर और उनकी दशा देखकर स्त्रियां पछताती हैं और कहती हैं- यह पुत्र कैकेयी जैसी माता के योग्य नहीं है. कोई कहती हैं- इसमें रानी का भी दोष नहीं है. यह सब विधाता ने ही किया है, जो हमारे अनुकूल है. कहां तो हम लोक और वेद दोनों की विधि (मर्यादा) से हीन, कुल और करतूत दोनों से मलिन तुच्छ स्त्रियां, जो बुरे देश (जंगली प्रान्त) और बुरे गांव में बसती हैं और स्त्रियों में भी नीच स्त्रियां हैं! और कहां यह महान पुण्यों का परिणामस्वरूप इनका दर्शन! ऐसा ही आनंद और आश्चर्य गांव-गांव में हो रहा है. मानो मरुभूमि में कल्पवृक्ष उग गया हो. भरतजी का स्वरूप देखते ही रास्ते में रहने वाले लोगों के भाग्य खुल गए! मानो देवयोग से सिंहलद्वीप के बसने वालों को तीर्थराज प्रयाग सुलभ हो गया हो! इस प्रकार अपने गुणों सहित श्रीरामचंद्रजी के गुणों की कथा सुनते और श्रीरघुनाथजी को स्मरण करते हुए भरतजी चले जा रहे हैं. वे तीर्थ देखकर स्नान और मुनियों के आश्रम तथा देवताओं के मन्दिर देखकर प्रणाम करते हैं, और मन-ही-मन यह वरदान मांगते हैं कि श्रीसीतारामजी के चरणकमलों में प्रेम हो. मार्ग में भील, कोल आदि वनवासी तथा वानप्रस्थ, ब्रह्मचारी, संन्यासी और विरक्त मिलते हैं. उनमें से जिस-तिस से प्रणाम करके पूछते हैं कि लक्ष्मणजी, श्रीरामजी और जानकीजी किस वन में हैं? वे प्रभु के सब समाचार कहते हैं और भरतजी को देखकर जन्म का फल पाते हैं.
जो लोग कहते हैं कि हमने उनको कुशलपूर्वक देखा है, उनको ये श्रीराम-लक्ष्मण के समान ही प्यारे मानते हैं. इस प्रकार सबसे सुंदर वाणी से पूछते और श्रीरामजी के वनवास की कहानी सुनते जाते हैं. उस दिन वहीं ठहरकर दूसरे दिन प्रातःकाल ही श्रीरघुनाथजी का स्मरण करके चले. साथ के सब लोगों को भी भरतजी के समान ही श्रीरामजी के दर्शन की लालसा लगी हुई है. सबको मंगलसूचक शकुन हो रहे हैं. सुख देने वाले (पुरुषों के दाहिने और स्त्रियों के बाएं) नेत्र और भुजाएं फड़क रही हैं. समाजसहित भरतजी को उत्साह हो रहा है कि श्रीरामचंद्रजी मिलेंगे और दुख का दाह मिट जाएगा. जिसके जी में जैसा है, वह वैसा ही मनोरथ करता है. सब स्नेहरूपी मदिरा से छके (प्रेम में मतवाले हुए) चले जा रहे हैं. अंग शिथिल हैं, रास्ते में पैर डगमगा रहे हैं और प्रेमवश विह्वल वचन बोल रहे हैं. रामसखा निषादराज ने उसी समय स्वाभाविक ही सुहावना पर्वतशिरोमणि कामदगिरि दिखलाया, जिसके निकट ही पयस्विनी नदी के तट पर सीताजी समेत दोनों भाई निवास करते हैं. सब लोग उस पर्वत को देखकर 'जानकी जीवन श्रीरामचंद्रजी की जय हो.' ऐसा कहकर दंडवत-प्रणाम करते हैं. राजसमाज प्रेम में ऐसा मग्न है मानो श्रीरघुनाथजी अयोध्या को लौट चले हों. भरतजी का उस समय जैसा प्रेम था, वैसा शेषजी भी नहीं कह सकते. कवि के लिए तो वह वैसा ही अगम है जैसा अहंता और ममता से मलिन मनुष्यों के लिए ब्रह्मानन्द!