सोच से छुड़ाने वाले श्री रामजी बहुत प्रकार से सोच कर रहे हैं. उनके कमल की पंखुड़ी के समान नेत्रों से (विषाद के आंसुओं का) जल बह रहा है. भक्तों पर कृपा करने वाले भगवान ने लीला करके मनुष्य की दशा दिखलाई है. प्रभु के (लीला के लिए किए गए) प्रलाप को कानों से सुनकर वानरों के समूह व्याकुल हो गए. (इतने में ही) हनुमानजी आ गए, जैसे करुणरस (के प्रसंग) में वीर रस (का प्रसंग) आ गया हो. श्री रामजी हर्षित होकर हनुमानजी से गले मिले. प्रभु परम सुजान (चतुर) और अत्यंत ही कृतज्ञ हैं. तब वैद्य सुषेण ने तुरंत उपाय किया, जिससे लक्ष्मणजी हर्षित होकर उठ बैठे. प्रभु भाई को हृदय से लगाकर मिले. भालू और वानरों के समूह सब हर्षित हो गए. फिर हनुमानजी ने वैद्य को उसी प्रकार वहां पहुंचा दिया, जिस प्रकार वे पहले उसे ले आए थे.
यह समाचार जब रावण ने सुना, तब उसने अत्यंत विषाद से बार-बार सिर पीटा. वह व्याकुल होकर कुंभकर्ण के पास गया और बहुत से उपाय करके उसने उसको जगाया. कुंभकर्ण जगा (उठ बैठा) वह कैसा दिखाई देता है मानो स्वयं काल ही शरीर धारण करके बैठा हो. कुंभकर्ण ने पूछा- हे भाई! कहो तो, तुम्हारे मुख सूख क्यों रहे हैं? उस अभिमानी रावण ने उससे जिस प्रकार से वह सीता को हर लाया था तब से अब तक की सारी कथा कही. फिर कहा- हे तात! वानरों ने सब राक्षस मार डाले. बड़े-बड़े योद्धाओं का भी संहार कर डाला.
दुर्मुख, देवशत्रु (देवान्तक), मनुष्य भक्षक (नरान्तक), भारी योद्धा अतिकाय और अकम्पन तथा महोदर आदि दूसरे सभी रणधीर वीर रणभूमि में मारे गए. तब रावण के वचन सुनकर कुंभकर्ण बिलखकर (दुःखी होकर) बोला- अरे मूर्ख! जगज्जननी जानकी को हर लाकर अब कल्याण चाहता है? हे राक्षसराज! तूने अच्छा नहीं किया. अब आकर मुझे क्यों जगाया? हे तात! अब भी अभिमान छोड़कर श्री रामजी को भजो तो कल्याण होगा. हे रावण! जिनके हनुमान सरीखे सेवक हैं, वे श्री रघुनाथजी क्या मनुष्य हैं? हाय भाई! तूने बुरा किया, जो पहले ही आकर मुझे यह हाल नहीं सुनाया. हे स्वामी! तुमने उस परम देवता का विरोध किया, जिसके शिव, ब्रह्मा आदि देवता सेवक हैं. नारद मुनि ने मुझे जो ज्ञान कहा था, वह मैं तुझसे कहता, पर अब तो समय जाता रहा. हे भाई! अब तो (अन्तिम बार) अंकवार भरकर मुझसे मिल ले. मैं जाकर अपने नेत्र सफल करूं. तीनों तापों को छुड़ाने वाले श्याम शरीर, कमल नेत्र श्री रामजी के जाकर दर्शन करूं. श्री रामचंद्रजी के रूप और गुणों को स्मरण करके वह एक क्षण के लिए प्रेम में मग्न हो गया. फिर रावण से करोड़ों घड़े मदिरा और अनेकों भैंसे मंगवाए. भैंसे खाकर और मदिरा पीकर वह वज्रघात (बिजली गिरने) के समान गरजा. मद से चूर रण के उत्साह से पूर्ण कुंभकर्ण किला छोड़कर चला. सेना भी साथ नहीं ली.
उसे देखकर विभीषण आगे आए और उसके चरणों पर गिरकर अपना नाम सुनाया. छोटे भाई को उठाकर उसने हृदय से लगा लिया और श्री रघुनाथजी का भक्त जानकर वे उसके मन को प्रिय लगे. विभीषण ने कहा- हे तात! परम हितकर सलाह एवं विचार करने पर रावण ने मुझे लात मारी. उसी ग्लानि के मारे मैं श्री रघुनाथजी के पास चला आया. दीन देखकर प्रभु के मन को मैं (बहुत) प्रिय लगा. कुंभकर्ण ने कहा- हे पुत्र! सुन, रावण तो काल के वश हो गया है (उसके सिर पर मृत्यु नाच रही है). वह क्या अब उत्तम शिक्षा मान सकता है? हे विभीषण! तू धन्य है, धन्य है. हे तात! तू राक्षस कुल का भूषण हो गया. हे भाई! तूने अपने कुल को दैदीप्यमान कर दिया, जो शोभा और सुख के समुद्र श्री रामजी को भजा. मन, वचन और कर्म से कपट छोड़कर रणधीर श्री रामजी का भजन करना. हे भाई! मैं काल (मृत्यु) के वश हो गया हूं, मुझे अपना-पराया नहीं सूझता, इसलिए अब तुम जाओ. भाई के वचन सुनकर विभीषण लौट गए और वहां आए, जहां त्रिलोकी के भूषण श्री रामजी थे. विभीषण ने कहा- हे नाथ! पर्वत के समान (विशाल) देह वाला रणधीर कुंभकर्ण आ रहा है. वानरों ने जब कानों से इतना सुना, तब वे बलवान किलकिलाकर (हर्षध्वनि करके) दौड़े. वृक्ष और पर्वत उखाड़कर उठा लिए और क्रोध से दांत कटकटाकर उन्हें उसके ऊपर डालने लगे.
रीछ-वानर एक-एक बार में ही करोड़ों पहाड़ों के शिखरों से उस पर प्रहार करते हैं, परन्तु इससे न तो उसका मन ही मुड़ा (विचलित हुआ) और न शरीर ही टाले टला, जैसे मदार के फलों की मार से हाथी पर कुछ भी असर नहीं होता! तब हनुमानजी ने उसे एक घूंसा मारा, जिससे वह व्याकुल होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा और सिर पीटने लगा. फिर उसने उठकर हनुमानजी को मारा. वे चक्कर खाकर तुरंत ही पृथ्वी पर गिर पड़े. फिर उसने नल-नील को पृथ्वी पर पछाड़ दिया और दूसरे योद्धाओं को भी जहां-तहां पटककर डाल दिया. वानर सेना भाग चली. सब अत्यंत भयभीत हो गए, कोई सामने नहीं आता. सुग्रीव समेत अंगदादि वानरों को मूर्छित करके फिर वह अपरिमित बल की सीमा कुंभकर्ण वानरराज सुग्रीव को कांख में दाबकर चला. श्री रघुनाथजी वैसे ही नरलीला कर रहे हैं, जैसे गरुड़ सर्पों के समूह में मिलकर खेलता हो. जो भौंह के इशारे मात्र से (बिना परिश्रम के) काल को भी खा जाता है, उसे कहीं ऐसी लड़ाई शोभा देती है? भगवान् (इसके द्वारा) जगत को पवित्र करने वाली वह कीर्ति फैलाएंगे, जिसे गा-गाकर मनुष्य भवसागर से तर जाएगे. मूर्च्छा जाती रही, तब मारुति हनुमानजी जागे और फिर वे सुग्रीव को खोजने लगे.
सुग्रीव की भी मूर्च्छा दूर हुई, तब वे (मुर्दे से होकर) खिसक गए और कांख से नीचे गिर पड़े. कुम्भकर्ण ने उनको मृतक जाना. उन्होंने कुम्भकर्ण के नाक-कान दांतों से काट लिए और फिर गरज कर आकाश की ओर चले, तब कुम्भकर्ण ने जाना. उसने सुग्रीव का पैर पकड़कर उनको पृथ्वी पर पछाड़ दिया. फिर सुग्रीव ने बड़ी फुर्ती से उठकर उसको मारा और तब बलवान सुग्रीव प्रभु के पास आए और बोले- कृपानिधान प्रभु की जय हो, जय हो, जय हो. नाक-कान काटे गए, ऐसा मन में जानकर बड़ी ग्लानि हुई और वह क्रोध करके लौटा. एक तो वह स्वभाव (आकृति) से ही भयंकर था और फिर बिना नाक-कान का होने से और भी भयानक हो गया. उसे देखते ही वानरों की सेना में भय उत्पन्न हो गया. 'रघुवंशमणि की जय हो, जय हो' ऐसा पुकारकर वानर हूह करके दौड़े और सबने एक ही साथ उस पर पहाड़ और वृक्षों के समूह छोड़े. रण के उत्साह में कुंभकर्ण विरुद्ध होकर (उनके) सामने ऐसा चला मानो क्रोधित होकर काल ही आ रहा हो. वह करोड़-करोड़ वानरों को एक साथ पकड़कर खाने लगा! वे उसके मुंह में इस तरह घुसने लगे मानो पर्वत की गुफा में टिड्डियां समा रही हों. करोड़ों वानरों को पकड़कर उसने शरीर से मसल डाला. करोड़ों को हाथों से मलकर पृथ्वी की धूल में मिला दिया. पेट में गए हुए भालू और वानरों के ठट्ट के ठट्ट उसके मुख, नाक और कानों की राह से निकल-निकलकर भाग रहे हैं. रण के मद में मत्त राक्षस कुंभकर्ण इस प्रकार गर्वित हुआ, मानो विधाता ने उसको सारा विश्व अर्पण कर दिया हो और उसे वह ग्रास कर जाएगा. सब योद्धा भाग खड़े हुए, वे लौटाए भी नहीं लौटते. आंखों से उन्हें सूझ नहीं पड़ता और पुकारने से सुनते नहीं!
कुंभकर्ण ने वानर सेना को तितर-बितर कर दिया. यह सुनकर राक्षस सेना भी दौड़ी. श्री रामचंद्रजी ने देखा कि अपनी सेना व्याकुल है और शत्रु की नाना प्रकार की सेना आ गई है. तब कमलनयन श्री रामजी बोले- हे सुग्रीव! हे विभीषण! और हे लक्ष्मण! सुनो, तुम सेना को संभालना. मैं इस दुष्ट के बल और सेना को देखता हूं. हाथ में शार्गंधनुष और कमर में तरकस सजाकर श्री रघुनाथजी शत्रु सेना को दलन करने चले. प्रभु ने पहले तो धनुष का टंकार किया, जिसकी भयानक आवाज सुनते ही शत्रु दल बहरा हो गया. फिर सत्यप्रतिज्ञ श्री रामजी ने एक लाख बाण छोड़े. वे ऐसे चले मानो पंखवाले काल सर्प चले हों. जहां-तहां बहुत से बाण चले, जिनसे भयंकर राक्षस योद्धा कटने लगे. उनके चरण, छाती, सिर और भुजदण्ड कट रहे हैं. बहुत से वीरों के सौ-सौ टुकड़े हो जाते हैं. घायल चक्कर खा-खाकर पृथ्वी पर पड़ रहे हैं. उत्तम योद्धा फिर संभलकर उठते और लड़ते हैं. बाण लगते ही वे मेघ की तरह गरजते हैं. बहुत से तो कठिन बाणों को देखकर ही भाग जाते हैं. बिना मुण्ड (सिर) के प्रचंड रुंड (धड़) दौड़ रहे हैं और 'पकड़ो, पकड़ो, मारो, मारो' का शब्द करते हुए गा (चिल्ला) रहे हैं. प्रभु के बाणों ने क्षण मात्र में भयानक राक्षसों को काटकर रख दिया. फिर वे सब बाण लौटकर श्री रघुनाथजी के तरकस में घुस गए. कुंभकर्ण ने मन में विचार कर देखा कि श्री रामजी ने क्षण मात्र में राक्षसी सेना का संहार कर डाला. तब वह महाबली वीर अत्यंत क्रोधित हुआ और उसने गंभीर सिंहनाद किया.
वह क्रोध करके पर्वत उखाड़ लेता है और जहां भारी-भारी वानर योद्धा होते हैं, वहां डाल देता है. बड़े-बड़े पर्वतों को आते देखकर प्रभु ने उनको बाणों से काटकर धूल के समान (चूर-चूर) कर डाला. फिर श्री रघुनाथजी ने क्रोध करके धनुष को तानकर बहुत से अत्यंत भयानक बाण छोड़े. वे बाण कुंभकर्ण के शरीर में घुसकर पीछे से इस प्रकार निकल जाते हैं कि उनका पता नहीं चलता, जैसे बिजलियां बादल में समा जाती हैं. उसके काले शरीर से रुधिर बहता हुआ ऐसे शोभा देता है, मानो काजल के पर्वत से गेरु के पनाले बह रहे हों. उसे व्याकुल देखकर रीछ वानर दौड़े. वे ज्यों ही निकट आए, त्यों ही वह हंसा, और बड़ा घोर शब्द करके गरजा तथा करोड़-करोड़ वानरों को पकड़कर वह गजराज की तरह उन्हें पृथ्वी पर पटकने लगा और रावण की दुहाई देने लगा. यह देखकर रीछ-वानरों के झुंड ऐसे भागे जैसे भेड़िए को देखकर भेड़ों के झुंड! वानर-भालू व्याकुल होकर आर्तवाणी से पुकारते हुए भाग चले. वे कहने लगे- यह राक्षस दुर्भिक्ष के समान है, जो अब वानर कुल रूपी देश में पड़ना चाहता है. हे कृपा रूपी जल के धारण करने वाले मेघ रूप श्री राम! हे खर के शत्रु! हे शरणागत के दुःख हरने वाले! रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए! करुणा भरे वचन सुनते ही भगवान् धनुष-बाण सुधारकर चले. महाबलशाली श्री रामजी ने सेना को अपने पीछे कर लिया और वे अकेले क्रोधपूर्वक आगे बढ़े.
उन्होंने धनुष को खींचकर सौ बाण संधान किए. बाण छूटे और उसके शरीर में समा गए. बाणों के लगते ही वह क्रोध में भरकर दौड़ा. उसके दौड़ने से पर्वत डगमगाने लगे और पृथ्वी हिलने लगी. उसने एक पर्वत उखाड़ लिया. रघुकुल तिलक श्री रामजी ने उसकी वह भुजा ही काट दी. तब वह बाएं हाथ में पर्वत को लेकर दौड़ा. प्रभु ने उसकी वह भुजा भी काटकर पृथ्वी पर गिरा दी. भुजाओं के कट जाने पर वह दुष्ट कैसी शोभा पाने लगा, जैसे बिना पंख का मंदराचल पहाड़ हो. उसने उग्र दृष्टि से प्रभु को देखा. मानो तीनों लोकों को निगल जाना चाहता हो. वह बड़े जोर से चिग्घाड़ करके मुंह फैलाकर दौड़ा. आकाश में सिद्ध और देवता डरकर हा! हा! हा! इस प्रकार पुकारने लगे. करुणानिधान भगवान ने देवताओं को भयभीत जाना. तब उन्होंने धनुष को कान तक तानकर राक्षस के मुख को बाणों के समूह से भर दिया. तो भी वह महाबली पृथ्वी पर न गिरा. मुख में बाण भरे हुए वह (प्रभु के) सामने दौड़ा. मानो काल रूपी सजीव तरकस ही आ रहा हो. तब प्रभु ने क्रोध करके तीक्ष्ण बाण लिया और उसके सिर को धड़ से अलग कर दिया. वह सिर रावण के आगे जा गिरा उसे देखकर रावण ऐसा व्याकुल हुआ जैसे मणि के छूट जाने पर सर्प. कुंभकर्ण का प्रचण्ड धड़ दौड़ा, जिससे पृथ्वी धंसी जाती थी. तब प्रभु ने काटकर उसके दो टुकड़े कर दिए.
वानर-भालू और निशाचरों को अपने नीचे दबाते हुए वे दोनों टुकड़े पृथ्वी पर ऐसे पड़े जैसे आकाश से दो पहाड़ गिरे हों. उसका तेज प्रभु श्री रामचंद्रजी के मुख में समा गया. यह देखकर देवता और मुनि सभी ने आश्चर्य माना. देवता नगाड़े बजाते, हर्षित होते और स्तुति करते हुए बहुत से फूल बरसा रहे हैं. विनती करके सब देवता चले गए. उसी समय देवर्षि नारद आए. आकाश के ऊपर से उन्होंने श्री हरि के सुंदर वीर रसयुक्त गुण समूह का गान किया, जो प्रभु के मन को बहुत ही भाया. मुनि यह कहकर चले गए कि अब दुष्ट रावण को शीघ्र मारिए. उस समय श्री रामचंद्रजी रणभूमि में आकर (अत्यंत) सुशोभित हुए. अतुलनीय बल वाले कोसलपति श्री रघुनाथजी रणभूमि में सुशोभित हैं. मुख पर पसीने की बूंदें हैं, कमल समान नेत्र कुछ लाल हो रहे हैं. शरीर पर रक्त के कण हैं, दोनों हाथों से धनुष-बाण फिरा रहे हैं. चारों ओर रीछ-वानर सुशोभित हैं. तुलसीदासजी कहते हैं कि प्रभु की इस छवि का वर्णन शेषजी भी नहीं कर सकते, जिनके बहुत से हजार मुख हैं. कुंभकर्ण, जो नीच राक्षस और पाप की खान था, उसे भी श्री रामजी ने अपना परमधाम दे दिया. अतः वे मनुष्य (निश्चय ही) मंदबुद्धि हैं, जो उन श्री रामजी को नहीं भजते. दिन का अन्त होने पर दोनों सेनाएं लौट पड़ीं. आज के युद्ध में योद्धाओं को बड़ी थकावट हुई, परन्तु श्री रामजी की कृपा से वानर सेना का बल उसी प्रकार बढ़ गया, जैसे घास पाकर अग्नि बहुत बढ़ जाती है.
उधर राक्षस दिन-रात इस प्रकार घटते जा रहे हैं, जिस प्रकार अपने ही मुख से कहने पर पुण्य घट जाते हैं. रावण बहुत विलाप कर रहा है. बार-बार भाई (कुंभकर्ण) का सिर कलेजे से लगाता है. स्त्रियां उसके बड़े भारी तेज और बल को बखान करके हाथों से छाती पीट-पीटकर रो रही हैं. उसी समय मेघनाद आया और उसने बहुत सी कथाएं कहकर पिता को समझाया. और कहा- कल मेरा पुरुषार्थ देखिएगा. अभी बहुत बड़ाई क्या करूं? हे तात! मैंने अपने इष्टदेव से जो बल और रथ पाया था, वह बल और रथ अब तक आपको नहीं दिखलाया था. इस प्रकार डींग मारते हुए सबेरा हो गया. लंका के चारों दरवाजों पर बहुत से वानर आ डटे. इधर काल के समान वीर वानर-भालू हैं और उधर अत्यंत रणधीर राक्षस दोनों ओर के योद्धा अपनी-अपनी जय के लिए लड़ रहे हैं. हे गरुड़ उनके युद्ध का वर्णन नहीं किया जा सकता.
मेघनाद उसी (पूर्वोक्त) मायामय रथ पर चढ़कर आकाश में चला गया और अट्टहास करके गरजा, जिससे वानरों की सेना में भय छा गया. वह शक्ति, शूल, तलवार, कृपाण आदि अस्त्र, शास्त्र एवं वज्र आदि बहुत से आयुध चलाने तथा फरसे, परिघ, पत्थर आदि डालने और बहुत से बाणों की वृष्टि करने लगा.
आकाश में दसों दिशाओं में बाण छा गए, मानो मघा नक्षत्र के बादलों ने झड़ी लगा दी हो. 'पकड़ो, पकड़ो, मारो' ये शब्द सुनाई पड़ते हैं. पर जो मार रहा है, उसे कोई नहीं जान पाता. पर्वत और वृक्षों को लेकर वानर आकाश में दौड़कर जाते हैं. पर उसे देख नहीं पाते, इससे दुःखी होकर लौट आते हैं. मेघनाद ने माया के बल से अटपटी घाटियों, रास्तों और पर्वतों-कन्दराओं को बाणों के पिंजरे बना दिए. अब कहां जाएं, यह सोचकर (रास्ता न पाकर) वानर व्याकुल हो गए. मानो पर्वत इंद्र की कैद में पड़े हों. मेघनाद ने मारुति हनुमान्, अंगद, नल और नील आदि सभी बलवानों को व्याकुल कर दिया. फिर उसने लक्ष्मणजी, सुग्रीव और विभीषण को बाणों से मारकर उनके शरीर को छलनी कर दिया. फिर वह श्री रघुनाथजी से लड़ने लगा. वह जो बाण छोड़ता है, वे सांप होकर लगते हैं. जो स्वतंत्र, अनन्त, एक (अखंड) और निर्विकार हैं, वे खर के शत्रु श्री रामजी (लीला से) नागपाश के वश में हो गए (उससे बंध गए) श्री रामचंद्रजी सदा स्वतंत्र, एक, (अद्वितीय) भगवान हैं. वे नट की तरह अनेकों प्रकार के दिखावटी चरित्र करते हैं. रण की शोभा के लिए प्रभु ने अपने को नागपाश में बांध लिया, किन्तु उससे देवताओं को बड़ा भय हुआ. जिनका नाम जपकर मुनि भव (जन्म-मृत्यु) की फांसी को काट डालते हैं, वे सर्वव्यापक और विश्व निवास (विश्व के आधार) प्रभु कहीं बंधन में आ सकते हैं?
श्री रामजी की इस सगुण लीलाओं के विषय में बुद्धि और वाणी के बल से तर्क (निर्णय) नहीं किया जा सकता. ऐसा विचार कर जो तत्त्वज्ञानी और विरक्त पुरुष हैं, वे सब तर्क (शंका) छोड़कर श्री रामजी का भजन ही करते हैं. मेघनाद ने सेना को व्याकुल कर दिया. फिर वह प्रकट हो गया और दुर्वचन कहने लगा. इस पर जाम्बवान ने कहा- अरे दुष्ट! खड़ा रह. यह सुनकर उसे बड़ा क्रोध बढ़ा. अरे मूर्ख! मैंने बूढ़ा जानकर तुझको छोड़ दिया था. अरे अधम! अब तू मुझे ही ललकारने लगा है? ऐसा कहकर उसने चमकता हुआ त्रिशूल चलाया. जाम्बवान उसी त्रिशूल को हाथ से पकड़कर दौड़ा. और उसे मेघनाद की छाती पर दे मारा. वह देवताओं का शत्रु चक्कर खाकर पृथ्वी पर गिर पड़ा. जाम्बवान ने फिर क्रोध में भरकर पैर पकड़कर उसको घुमाया और पृथ्वी पर पटककर उसे अपना बल दिखलाया. किन्तु वरदान के प्रताप से वह मारे नहीं मरता. तब जाम्बवान ने उसका पैर पकड़कर उसे लंका पर फेंक दिया. इधर देवर्षि नारदजी ने गरुड़ को भेजा. वे तुरंत ही श्री रामजी के पास आ पहुंचे. पक्षीराज गरुड़जी सब माया-सर्पों के समूहों को पकड़कर खा गए. तब सब वानरों के झुंड माया से रहित होकर हर्षित हुए. पर्वत, वृक्ष, पत्थर और नख धारण किए वानर क्रोधित होकर दौड़े. निशाचर विशेष व्याकुल होकर भाग चले और भागकर किले पर चढ़ गए. मेघनाद की मूर्च्छा छूटी, (तब) पिता को देखकर उसे बड़ी शर्म लगी. मैं अजय (अजेय होने को) यज्ञ करूं, ऐसा मन में निश्चय करके वह तुरंत श्रेष्ठ पर्वत की गुफा में चला गया.
यहां विभीषण ने सलाह विचारी और श्री रामचंद्रजी से कहा- हे अतुलनीय बलवान उदार प्रभो! देवताओं को सताने वाला दुष्ट, मायावी मेघनाद अपवित्र यज्ञ कर रहा है. हे प्रभो! यदि वह यज्ञ सिद्ध हो पाएगा तो हे नाथ! फिर मेघनाद जल्दी जीता न जा सकेगा. यह सुनकर श्री रघुनाथजी ने बहुत सुख माना और अंगदादि बहुत से वानरों को बुलाया और कहा- हे भाइयो! सब लोग लक्ष्मण के साथ जाओ और जाकर यज्ञ को विध्वंस करो. हे लक्ष्मण! संग्राम में तुम उसे मारना. देवताओं को भयभीत देखकर मुझे बड़ा दुःख है. हे भाई! सुनो, उसको ऐसे बल और बुद्धि के उपाय से मारना, जिससे निशाचर का नाश हो. हे जाम्बवान, सुग्रीव और विभीषण! तुम तीनों जन सेना समेत (इनके) साथ रहना. इस प्रकार जब श्री रघुवीर ने आज्ञा दी, तब कमर में तरकस कसकर और धनुष सजाकर (चढ़ाकर) रणधीर श्री लक्ष्मणजी प्रभु के प्रताप को हृदय में धारण करके मेघ के समान गंभीर वाणी बोले- यदि मैं आज उसे बिना मारे आऊं, तो श्री रघुनाथजी का सेवक न कहलाऊं. यदि सैकड़ों शंकर भी उसकी सहायता करें तो भी श्री रघुवीर की दुहाई है, आज मैं उसे मार ही डालूंगा. श्री रघुनाथजी के चरणों में सिर नवाकर शेषावतार श्री लक्ष्मणजी तुरंत चले. उनके साथ अंगद, नील, मयंद, नल और हनुमान आदि उत्तम योद्धा थे.
वानरों ने जाकर देखा कि वह बैठा हुआ खून और भैंसे की आहुति दे रहा है. वानरों ने सब यज्ञ विध्वंस कर दिया. फिर भी वह नहीं उठा, तब वे उसकी प्रशंसा करने लगे. इतने पर भी वह न उठा, तब उन्होंने जाकर उसके बाल पकड़े और लातों से मार-मारकर वे भाग चले. वह त्रिशूल लेकर दौड़ा, तब वानर भागे और वहां आ गए, जहां आगे लक्ष्मणजी खड़े थे. वह अत्यंत क्रोध का मारा हुआ आया और बार-बार भयंकर शब्द करके गरजने लगा. हनुमान और अंगद क्रोध करके दौड़े. उसने छाती में त्रिशूल मारकर दोनों को धरती पर गिरा दिया. फिर उसने प्रभु श्री लक्ष्मणजी पर त्रिशूल छोड़ा. अनन्त (श्री लक्ष्मणजी) ने बाण मारकर उसके दो टुकड़े कर दिए. हनुमानजी और युवराज अंगद फिर उठकर क्रोध करके उसे मारने लगे, उसे चोट न लगी. मेघनाद मारे नहीं मरता, यह देखकर जब वीर लौटे, तब वह घोर चिग्घाड़ करके दौड़ा. उसे क्रुद्ध काल की तरह आता देखकर लक्ष्मणजी ने भयानक बाण छोड़े. वज्र के समान बाणों को आते देखकर वह दुष्ट तुरंत अंतर्धान हो गया और फिर भांति-भांति के रूप धारण करके युद्ध करने लगा. वह कभी प्रकट होता था और कभी छिप जाता था. शत्रु को पराजित न होता देखकर वानर डरे. तब सर्पराज शेषजी (लक्ष्मणजी) बहुत क्रोधित हुए. लक्ष्मणजी ने मन में यह विचार दृढ़ किया कि इस पापी को मैं बहुत खेला चुका. अब और अधिक खेलाना अच्छा नहीं, अब तो इसे समाप्त ही कर देना चाहिए.
कोसलपति श्री रामजी के प्रताप का स्मरण करके लक्ष्मणजी ने वीरोचित दर्प करके बाण का संधान किया. बाण छोड़ते ही उसकी छाती के बीच में लगा. मरते समय उसने सब कपट त्याग दिया. राम के छोटे भाई लक्ष्मण कहां हैं? राम कहां हैं? ऐसा कहकर उसने प्राण छोड़ दिए. अंगद और हनुमान कहने लगे- तेरी माता धन्य है, धन्य है जो तू लक्ष्मणजी के हाथों मरा और मरते समय श्री राम-लक्ष्मण को स्मरण करके तूने उनके नामों का उच्चारण किया. हनुमानजी ने उसको बिना ही परिश्रम के उठा लिया और लंका के दरवाजे पर रखकर वे लौट आए. उसका मरना सुनकर देवता और गंधर्व आदि सब विमानों पर चढ़कर आकाश में आए. वे फूल बरसाकर नगाड़े बजाते हैं और श्री रघुनाथजी का निर्मल यश गाते हैं. हे अनन्त! आपकी जय हो, हे जगदाधार! आपकी जय हो. हे प्रभो! आपने सब देवताओं का (महान विपत्ति से) उद्धार किया. देवता और सिद्ध स्तुति करके चले गए, तब लक्ष्मणजी कृपा के समुद्र श्री रामजी के पास आए. रावण ने ज्यों ही पुत्रवध का समाचार सुना, त्यों ही वह मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा. मंदोदरी छाती पीट-पीटकर और बहुत प्रकार से पुकार-पुकारकर बड़ा भारी विलाप करने लगी. नगर के सब लोग शोक से व्याकुल हो गए. सभी रावण को नीच कहने लगे. तब रावण ने सब स्त्रियों को अनेकों प्रकार से समझाया कि समस्त जगत का यह (दृश्य) रूप नाशवान है, हृदय में विचारकर देखो.
रावण ने उनको ज्ञान का उपदेश किया. वह स्वयं तो नीच है, पर उसकी कथा (बातें) शुभ और पवित्र हैं. दूसरों को उपदेश देने में तो बहुत लोग निपुण होते हैं. पर ऐसे लोग अधिक नहीं हैं, जो उपदेश के अनुसार आचरण भी करते हैं. रात बीत गई, सबेरा हुआ. रीछ-वानर (फिर) चारों दरवाजों पर जा डटे. योद्धाओं को बुलाकर दशमुख रावण ने कहा- लड़ाई में शत्रु के सम्मुख मन डांवाडोल हो, अच्छा है वह अभी भाग जाए. युद्ध में जाकर विमुख होने (भागने) में भलाई नहीं है. मैंने अपनी भुजाओं के बल पर बैर बढ़ाया है. जो शत्रु चढ़ आया है, उसको मैं (अपने ही) उत्तर दे लूंगा. ऐसा कहकर उसने पवन के समान तेज चलने वाला रथ सजाया. सारे जुझाऊ (लड़ाई के) बाजे बजने लगे. सब अतुलनीय बलवान वीर ऐसे चले मानो काजल की आंधी चली हो. उस समय असंख्य अपशकुन होने लगे. पर अपनी भुजाओं के बल का बड़ा गर्व होने से रावण उन्हें गिनता नहीं है. अत्यंत गर्व के कारण वह शकुन-अपशकुन का विचार नहीं करता. हथियार हाथों से गिर रहे हैं. योद्धा रथ से गिर पड़ते हैं. घोड़े, हाथी साथ छोड़कर चिग्घाड़ते हुए भाग जाते हैं. स्यार, गीध, कौए और गदहे शब्द कर रहे हैं. बहुत अधिक कुत्ते बोल रहे हैं. उल्लू ऐसे अत्यंत भयानक शब्द कर रहे हैं, मानो काल के दूत हों.
जो जीवों के द्रोह में रत है, मोह के बस हो रहा है, रामविमुख है और कामासक्त है, उसको क्या कभी स्वप्न में भी सम्पत्ति, शुभ शकुन और चित्त की शांति हो सकती है? राक्षसों की अपार सेना चली. चतुरंगिणी सेना की बहुत सी टुकड़ियां हैं. अनेकों प्रकार के वाहन, रथ और सवारियां हैं तथा बहुत से रंगों की अनेकों पताकाएं और ध्वजाएं हैं. मतवाले हाथियों के बहुत से झुंड चले. मानो पवन से प्रेरित हुए वर्षा ऋतु के बादल हों. रंग-बिरंगे बाना धारण करने वाले वीरों के समूह हैं, जो युद्ध में बड़े शूरवीर हैं और बहुत प्रकार की माया जानते हैं. अत्यंत विचित्र फौज शोभित है. मानो वीर वसंत ने सेना सजाई हो. सेना के चलने से दिशाओं के हाथी डिगने लगे, समुद्र क्षुभित हो गए और पर्वत डगमगाने लगे. इतनी धूल उड़ी कि सूर्य छिप गए. फिर सहसा पवन रुक गया और पृथ्वी अकुला उठी. ढोल और नगाड़े भीषण ध्वनि से बज रहे हैं, जैसे प्रलयकाल के बादल गरज रहे हों. भेरी, नफीरी (तुरही) और शहनाई में योद्धाओं को सुख देने वाला मारू राग बज रहा है. सब वीर सिंहनाद करते हैं और अपने-अपने बल पौरुष का बखान कर रहे हैं. रावण ने कहा- हे उत्तम योद्धाओं! सुनो तुम रीछ-वानरों के ठट्ट को मसल डालो और मैं दोनों राजकुमार भाइयों को मारूंगा. ऐसा कहकर उसने अपनी सेना सामने चलाई. जब सब वानरों ने यह खबर पाई, तब वे श्री राम की दुहाई देते हुए दौड़े.
वे विशाल और काल के समान कराल वानर-भालू दौड़े. मानो पंख वाले पर्वतों के समूह उड़ रहे हों. वे अनेक वर्णों के हैं. नख, दांत, पर्वत और बड़े-बड़े वृक्ष ही उनके हथियार हैं. वे बड़े बलवान हैं और किसी का भी डर नहीं मानते. रावण रूपी मतवाले हाथी के लिए सिंह रूप श्री रामजी का जय-जयकार करके वे उनके सुंदर यश का बखान करते हैं. दोनों ओर के योद्धा जय-जयकार करके अपनी-अपनी जोड़ी जान (चुन) कर इधर श्री रघुनाथजी का और उधर रावण का बखान करके परस्पर भिड़ गए. रावण को रथ पर और श्री रघुवीर को बिना रथ के देखकर विभीषण अधीर हो गए. प्रेम अधिक होने से उनके मन में सन्देह हो गया कि वे बिना रथ के रावण को कैसे जीत सकेंगे. श्री रामजी के चरणों की वंदना करके वे स्नेह पूर्वक कहने लगे. हे नाथ! आपके न रथ है, न तन की रक्षा करने वाला कवच है और न जूते ही हैं. वह बलवान वीर रावण किस प्रकार जीता जाएगा?
कृपानिधान श्री रामजी ने कहा- हे सखे! सुनो, जिससे जय होती है, वह रथ दूसरा ही है. शौर्य और धैर्य उस रथ के पहिए हैं. सत्य और शील (सदाचार) उसकी मजबूत ध्वजा और पताका हैं. बल, विवेक, दम (इंद्रियों का वश में होना) और परोपकार- ये चार उसके घोड़े हैं, जो क्षमा, दया और समता रूपी डोरी से रथ में जोड़े हुए हैं. ईश्वर का भजन ही उस रथ को चलाने वाला चतुर सारथी है. वैराग्य ढाल है और संतोष तलवार है. दान फरसा है, बुद्धि प्रचण्ड शक्ति है, श्रेष्ठ विज्ञान कठिन धनुष है. निर्मल (पापरहित) और अचल (स्थिर) मन तरकस के समान है. शम (मन का वश में होना), (अहिंसादि) यम और (शौचादि) नियम- ये बहुत से बाण हैं. ब्राह्मणों और गुरु का पूजन अभेद्य कवच है. इसके समान विजय का दूसरा उपाय नहीं है.
हे सखे! ऐसा धर्ममय रथ जिसके हो उसके लिए जीतने को कहीं शत्रु ही नहीं है. हे धीरबुद्धि वाले सखा! सुनो, जिसके पास ऐसा दृढ़ रथ हो, वह वीर संसार (जन्म-मृत्यु) रूपी महान् दुर्जय शत्रु को भी जीत सकता है, रावण की तो बात ही क्या है. प्रभु के वचन सुनकर विभीषणजी ने हर्षित होकर उनके चरण कमल पकड़ लिए और कहा- हे कृपा और सुख के समूह श्री रामजी! आपने इसी बहाने मुझे (महान्) उपदेश दिया.