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रामचरितमानस: जब अयोध्या में श्रीराम की दुल्हन बनकर पहुंचीं माता सीता, आनंदित हो उठा पूरा नगर

अयोध्या के राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा 22 जनवरी 2024 को होने जा रही है. इस अवसर पर हम तुलसीदास द्वारा अवधी में लिखी गई राम की कथा का हिंदी रूपांतरण पढ़ेंगे. जिसमें भगवान राम के जन्म से लेकर विजय तक की पूरी कहानी होगी. आज हम पढ़ेंगे जब विवाह के बाद माता सीता श्रीराम की नगरी अयोध्या पहुंची.  

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रामचरितमानस
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रामचरितमानस: अयोध्या में राममंदिर की तैयारियां जोरों शोरों से चल रही हैं. अयोध्या के राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा 22 जनवरी 2024 को होने जा रही है. अयोध्या का राम मंदिर 2.7 एकड़ में राम मंदिर बन रहा है. इसकी ऊंचाई लगभग 162 फीट की होगी. मंदिर के मुख्य द्वार को सिंह द्वार का नाम दिया गया है. इस अवसर पर तुलसीदास द्वारा द्वारा अवधी में लिखी गई राम की कथा का हिंदी रूपांतरण पढ़ेंगे. जिसमें भगवान राम के जन्म से लेकर विजय तक की पूरी कहानी होगी. आज हम पढ़ेंगे जब विवाह के बाद माता सीता श्रीराम की नगरी अयोध्या पहुंची.  

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श्रीराम और सीताजी का विवाह संपन्न हो चुका था. नगर में नित्य नया आनन्द और उत्साह रहता है, दशरथजी का जाना किसी को नहीं सुहाता. तब विश्वामित्रजी और शतानन्दजी ने जाकर राजा जनक को समझाकर कहा- यद्यपि आप स्नेहवश उन्हें नहीं छोड़ सकते, तो भी अब दशरथजी को आज्ञा दीजिए. जनकपुरवासियों ने सुना कि बारात जाएगी, तब वे व्याकुल होकर एक-दूसरे से बात पूछने लगे. जाना सत्य है, यह सुनकर सब ऐसे उदास हो गए मानो सन्ध्या के समय कमल सकुचा गए हों. इस प्रकार जनकजी ने फिर से अपरिमित दहेज दिया, जो कहा नहीं जा सकता और जिसे देखकर लोकपालों के लोकों की सम्पदा भी थोड़ी जान पड़ती थी. इस प्रकार सब सामान सजाकर राजा जनक ने अयोध्यापुरी को भेज दिया. बारात चलेगी, यह सुनते ही सब रानियां ऐसी विकल हो गईं, मानो थोड़े जल में मछलियां छटपटा रही हों. वे बार-बार सीताजी को गोद कर लेती हैं और आशीर्वाद देकर सिखावन देती हैं- तुम सदा अपने पति की प्यारी होओ, तुम्हारा सोहाग अचल हो; हमारी यही आशीष है.

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राजा जनकजी ने किया सबको विदा

उसके बाद सास ने सीताजी को श्रीरामचन्द्रजी को समर्पित किया. स्नेह से सनी हुई श्रेष्ठ वाणी सुनकर श्रीरामचन्द्रजी ने सास का बहुत प्रकार से सम्मान किया तब श्रीरामचन्द्रजी ने हाथ जोड़कर विदा मांगते हुए बार-बार प्रणाम किया. आशीर्वाद पाकर और फिर सिर नवाकर भाइयों सहित श्रीरघुनाथजी चले. विदाई के समय राजा ने जानकीजी को हृदय से लगा लिया. प्रेम के प्रभाव से ज्ञान की महान मर्यादा मिट गई (ज्ञान का बांध टूट गया). सब बुद्धिमान् मन्त्री उन्हें समझाते हैं. तब राजा ने विषाद करने का समय न जानकर विचार किया. बारंबार पुत्रियों को हृदय से लगाकर सुन्दर सजी हुई पालकियां मंगवाईं. सारा परिवार प्रेम में विवश है. राजा ने सुंदर मुहूर्त जानकर सिद्धिसहित गणेशजी का स्मरण करके कन्याओं को पालकियों पर चढ़ाया.

देवता हर्षित होकर फूल बरसा रहे हैं और अप्सराएं गान कर रही हैं. अवधपति दशरथजी नगाड़े बजाकर आनंदपूर्वक अयोध्यापुरी को चले. राजा दशरथजी ने विनती करके प्रतिष्ठित जनों को लौटाया और आदर के साथ सब मंगनों को बुलवाया. उनको गहने-कपड़े, घोड़े-हाथी दिए और प्रेम से पुष्ट करके सबको संपन्न अर्थात बलयुक्त कर दिया. फिर जनकजी दशरथजी से मिले और उसके बाद आदर के साथ वे रूप, शील और गुणों के निधान सब भाइयों से अपने दामादों से मिले. और सुन्दर कमल के समान हाथों को जोड़कर ऐसे वचन बोले जो मानो प्रेम से ही जन्मे हों. हे रामजी! मैं किस प्रकार आपकी प्रशंसा करूं! आप मुनियों और महादेवजी के मनरूपी मानसरोवर के हंस हैं. योगी लोग जिनके लिए क्रोध, मोह, ममता और मद को त्यागकर योगसाधन करते हैं, जो सर्वव्यापक, ब्रह्म, अव्यक्त, अविनाशी, चिदानंद, निर्गुण और गुणों की राशि हैं, जिनको मनसहित वाणी नहीं जानती और सब जिनका अनुमान ही करते हैं, कोई तर्कना नहीं कर सकते; जिनकी महिमा को वेद 'नेति' कहकर वर्णन करता है और जो सच्चिदानन्द तीनों कालों में एकरस (सर्वदा और सर्वथा निर्विकार) रहते हैं; वे ही समस्त सुखों के मूल आप मेरे नेत्रों के विषय हुए. उसके बाद राजा जनकजी ने श्रीरामचन्द्रजी, भरतजी, लक्ष्मणजी और शत्रुघ्नजी से मिलकर उन्हें आशीर्वाद दिया. 

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श्रीरघुनाथजी पहुंचे अयोध्या

रास्ते के गांवों के स्त्री-पुरुष श्रीरामचन्द्रजी को देखकर नेत्रों का फल पाकर सुखी होते हैं. बीच-बीच में सुन्दर मुकाम करती हुई तथा मार्ग के लोगों को सुख देती हुई वह बारात पवित्र दिन में अयोध्यापुरी के समीप आ पहुंची. सुन्दर ढोल बजने लगे. श्रीरघुनाथजी की पुरी (अयोध्या) को देखकर ब्रह्मा आदि सब देवता सिहाते हैं. उस समय राजमहल अत्यन्त शोभित हो रहा था. उसकी रचना देखकर कामदेव का भी मन मोहित हो जाता था. मंगल शकुन, मनोहरता, ऋद्धि-सिद्धि, सुख, सुहावनी सम्पत्ति और सब प्रकार के उत्साह मानो सहज सुन्दर शरीर धर-धरकर दशरथजी के घर में छा गए हैं. 

राजमहल में आनन्द के मारे शोर मच रहा है. उस समय का और सुख का वर्णन नहीं किया जा सकता. कौशल्याजी आदि श्रीरामचन्द्रजी की सब माताएं प्रेम के विशेष वश होने से शरीर की सुध भूल गयीं. गणेशजी और त्रिपुरारि शिवजी का पूजन करके उन्होंने ब्राह्मणों को बहुत-सा दान दिया. वे ऐसी परम प्रसन्न हुईं, मानो अत्यन्त दरिद्री चारों पदार्थ पा गया हो. सुख और महान् आनन्द से विवश होने के कारण सब माताओं के शरीर शिथिल हो गए हैं, उनके चरण चलते नहीं हैं. श्रीरामचन्द्रजी के दर्शनों के लिए वे अत्यन्त अनुराग में भरकर परछन का सब सामान सजाने लगीं. नगाड़ों की ध्वनि मानो बादलों की घोर गर्जना है. याचकगण पपीहे, मेंढक और मोर हैं. देवता पवित्र सुगन्धरूपी जल बरसा रहे हैं, जिससे खेती के समान नगर के सब स्त्री-पुरुष सुखी हो रहे हैं. प्रवेश का समय जानकर गुरु वसिष्ठजी ने आज्ञा दी. तब रघुकुलमणि महाराज दशरथजी ने शिवजी, पार्वतीजी और गणेशजी का स्मरण करके समाजसहित आनन्दित होकर नगर में प्रवेश किया. शकुन हो रहे हैं, देवता दुन्दुभी बजा बजाकर फूल बरसा रहे हैं. देवताओं की स्त्रियां आनन्दित होकर सुन्दर मंगलगीत गा-गाकर नाच रही हैं. जयध्वनि तथा वेद की निर्मल श्रेष्ठ वाणी सुन्दर मंगल से सनी हुई दसों दिशाओं में सुनाई पड़ रही है.

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सभी माताएं सीताजी और श्रीरामजी को देखकर हुई खुश

बहुओं सहित चारों पुत्रों को देखकर माताएं परमानन्द में मग्न हो गईं. सीताजी और श्रीरामजी की छवि को बार-बार देखकर वे जगत में अपने जीवन को सफल मानकर आनन्दित हो रही हैं. सखियां सीताजी के मुख को बार-बार देखकर अपने पुण्यों की सराहना करती हुई गान कर रही हैं. देवता क्षण-क्षण में फूल बरसाते, नाचते, गाते तथा अपनी-अपनी सेवा समर्पण करते हैं. चारों मनोहर जोड़ियों को देखकर सरस्वती ने सारी उपमाओं को खोज डाला. वेद की विधि और कुल की रीति करके अर्ध्य-पांवड़े देती हुई बहुओं समेत सब पुत्रों को परछन करके माताएं महल में लिवा चलीं. स्वाभाविक ही सुन्दर चार सिंहासन थे, जो मानो कामदेव ने ही अपने हाथ से बनाए थे. उनपर माताओं ने राजकुमारियों और राजकुमारों को बैठाया और आदर के साथ उनके पवित्र चरण धोए गए.

माताएं लोकरीति करती हैं और दूल्हा-दुल्हन सकुचाते हैं. इस महान आनन्द और विनोद को देखकर श्रीरामचन्द्रजी मन-ही-मन मुस्कुरा रहे हैं. मन की सभी वासनाएं पूरी हुई जानकर देवता और पितरों का भलीभांति पूजन किया. सबकी वन्दना करके माताएं यही वरदान मांगती हैं कि भाइयों सहित श्रीरामजी का कल्याण हो. देवता अंतरिक्ष से आशीर्वाद दे रहे हैं और माताएं आनन्दित हो आंचल भरकर ले रही हैं. 

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देवगण श्रीरघुनाथजी का विवाह देखकर, उत्सव की प्रशंसा करके फूल बरसाते हुए- नगाड़े बजाकर और परम सुख प्राप्त कर अपने-अपने लोकों को चले. वे एक-दूसरे से श्रीरामजी का यश कहते जाते हैं. हृदय में प्रेम समाता नहीं है. सब प्रकार से सबका प्रेमपूर्वक भलीभांति आदर-सत्कार कर लेने पर राजा दशरथजी के हृदय में पूर्ण उत्साह भर गया. जहां रनिवास था, वे वहां पधारे और बहुओं समेत उन्होंने कुमारों को देखा. राजा ने आनन्द सहित पुत्रों को गोद में ले लिया. उसके बाद सभी राजकुमार आराम के लिए चले गए. 

प्रातःकाल पवित्र ब्रह्ममुहूर्त में प्रभु जागे. मुर्गे सुन्दर बोलने लगे. भाट और मागधों ने गुणों का गान किया तथा नगर के लोग द्वार पर जोहार करने को आए. ब्राह्मणों, देवताओं, गुरु, पिता और माताओं की वन्दना करके आशीर्वाद पाकर सब भाई प्रसन्न हुए. माताओं ने आदर के साथ उनके मुखों को देखा. फिर वे राजा के साथ दरवाजे पधारे. स्वभाव से ही पवित्र चारों भाइयों ने पवित्र सरयू नदी में स्नान किया और प्रातः क्रिया (सन्ध्या-वन्दनादि) करके वे पिता के पास आए. राजा ने देखते ही उन्हें हृदय से लगा लिया. श्रीरामचन्द्रजी के दर्शनकर और नेत्रों के लाभ की बस यही सीमा है, ऐसा अनुमानकर सारी सभा शीतल हो गई. फिर मुनि वसिष्ठजी और विश्वामित्रजी आए.राजा ने उनको सुन्दर आसनों पर बैठाया और पुत्रों-समेत उनकी पूजा करके उनके चरणों लगे. दोनों गुरु श्रीरामजी को देखकर प्रेम में मुग्ध हो गए. वसिष्ठजी धर्म के इतिहास कह रहे हैं और राजा रनिवास सहित सुन रहे हैं. 

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विश्वामित्रजी अपने आश्रम जाना चाहते हैं, पर रामचन्द्रजी के स्नेह और विनयवश रह जाते हैं. दिनो-दिन राजा का सौगुना भाव (प्रेम) देखकर महामुनिराज विश्वामित्रजी उनकी सराहना करते हैं. अन्त में जब विश्वामित्रजी ने विदा मांगी, तब राजा प्रेममग्न हो गए और पुत्रों सहित आगे खड़े हो गए.  गाधिकुल के चन्द्रमा विश्वामित्रजी बड़े हर्ष के साथ श्रीरामचन्द्रजी के रूप, राजा दशरथजी की भक्ति, चारों भाइयों के विवाह और सबके उत्साह और आनन्द को मन-ही-मन सराहते जाते हैं. वामदेवजी और रघुकुल के गुरु ज्ञानी वसिष्ठजी ने फिर विश्वामित्रजी की कथा बखानकर कही. मुनिका सुन्दर यश सुनकर राजा मन-ही-मन अपने पुण्यों के प्रभाव का बखान करने लगे. आज्ञा हुई तब सब लोग अपने-अपने घरों को लौटे. राजा दशरथजी भी पुत्रों सहित महल में गए. जहां-तहां सब श्रीरामचन्द्रजी के विवाह की गाथाएं गा रहे हैं. श्रीरामचन्द्रजी का पवित्र सुयश तीनों लोकों में छा गया. जब से श्रीरामचन्द्रजी विवाह करके घर आए, तबसे सब प्रकार का आनन्द अयोध्या में आकर बसने लगा. प्रभु के विवाह में जैसा आनन्द हुआ, उसे सरस्वती और सर्पों के राजा शेषजी भी नहीं कह सकते.

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