राजद्वार पर मन्त्रियों और सेवकों की भीड़ लगी है. वे सब सूर्य को उदय हुआ देखकर कहते हैं कि ऐसा कौन-सा विशेष कारण है कि अवधपति दशरथजी अभी तक नहीं जागे? राजा नित्य ही रात के पिछले पहर जाग जाया करते हैं, किन्तु आज हमें बड़ा आश्चर्य हो रहा है. हे सुमन्त्र! जाओ, जाकर राजा को जगाओ. उनकी आज्ञा पाकर हम सब काम करें. तब सुमन्त्र रावले (राजमहल) में गए, पर महल को भयानक देखकर वे जाते हुए डर रहे हैं. ऐसा लगता है मानो दौड़कर काट खाएगा, उसकी ओर देखा भी नहीं जाता. मानो विपत्ति और विषाद ने वहां डेरा डाल रखा हो. पूछने पर कोई जवाब नहीं देता; वे उस महल में गए, जहां राजा और कैकेयी थे. ‘जय-जीव' कहकर सिर नवाकर (वन्दना करके) बैठे और राजा की दशा देखकर तो वे सूख ही गए. देखा कि राजा सोच से व्याकुल हैं, चेहरे का रंग उड़ गया है. जमीन पर ऐसे पड़े हैं, मानो कमल जड़ छोड़कर (जड़ से उखड़कर) मुर्झाया पड़ा हो. मन्त्री मारे डरके कुछ पूछ नहीं सकते. तब अशुभ से भरी हुई और शुभ से विहीन कैकेयी बोली- राजा को रातभर नींद नहीं आयी, इसका कारण जगदीश्वर ही जानें. इन्होंने 'राम-राम' रटकर सबेरा कर दिया, परन्तु इसका भेद राजा कुछ भी नहीं बतलाते. तुम जल्दी राम को बुला लाओ. तब आकर समाचार पूछना. राजा का रुख जानकर सुमन्त्रजी चले, समझ गए कि रानी ने कुछ कुचाल की है. सुमन्त्र सोच से व्याकुल हैं, रास्ते पर पैर नहीं पड़ता आगे बढ़ा नहीं जाता, सोचते हैं- रामजी को बुलाकर राजा क्या कहेंगे? किसी तरह हृदय में धीरज धरकर वे द्वार पर गए.सब लोग उनको मनमारे (उदास) देखकर पूछने लगे.
सब लोगों का समाधान करके (किसी तरह समझा-बुझाकर) सुमन्त्र वहां गए, जहां सूर्यकुल के तिलक श्रीरामचन्द्रजी थे. श्रीरामचन्द्रजी ने सुमन्त्र को आते देखा तो पिता के समान समझकर उनका आदर किया. श्रीरामचन्द्रजी के मुख को देखकर और राजा की आज्ञा सुनाकर वे रघुकुल के दीपक श्रीरामचन्द्रजी को अपने साथ लिवा चले. श्रीरामचन्द्रजी मन्त्री के साथ बुरी तरह से जा रहे हैं, यह देखकर लोग जहां-तहां विषाद कर रहे हैं. रघुवंशमणि श्रीरामचन्द्रजी ने जाकर देखा कि राजा अत्यन्त ही बुरी हालत में पड़े हैं, मानो सिंहनी को देखकर कोई बूढ़ा गजराज सहमकर गिर पड़ा हो. राजा के ओठ सूख रहे हैं और सारा शरीर जल रहा है, मानो मणि के बिना सांप दुखी हो रहा हो. पास ही क्रोध से भरी कैकेयी को देखा, मानो साक्षात् मृत्यु ही बैठी राजा के जीवन की अन्तिम घड़ियां गिन रही हो. श्रीरामचन्द्रजी का स्वभाव कोमल और करुणामय है. उन्होंने अपने जीवन में पहली बार यह दुख देखा; इससे पहले कभी उन्होंने दुख सुना भी न था. तो भी समय का विचार करके हृदय में धीरज धरकर उन्होंने मीठे वचनों से माता कैकेयी से पूछा- हे माता! मुझे पिताजी के दुख का कारण कहो ताकि जिससे उसका निवारण हो वह यत्न किया जाय. कैकेयी ने कहा- हे राम! सुनो, सारा कारण यही है कि राजा का तुमपर बहुत स्नेह है.
इन्होंने मुझे दो वरदान देने को कहा था. मुझे जो कुछ अच्छा लगा, वही मैंने मांगा. उसे सुनकर राजा के हृदय में सोच हो गया; क्योंकि ये तुम्हारा संकोच नहीं छोड़ सकते. इधर तो पुत्र का स्नेह है और उधर वचन; राजा इसी धर्मसंकट में पड़ गए हैं. यदि तुम कर सकते हो, तो राजा की आज्ञा शिरोधार्य करो और इनके कठिन क्लेश को मिटाओ. कैकेयी बेधड़क बैठी ऐसी कड़वी वाणी कह रही है जिसे सुनकर स्वयं कठोरता भी अत्यन्त व्याकुल हो उठी. जीभ धनुष है, वचन बहुत से तीर हैं और मानो राजा ही कोमल निशाने के समान हैं. इस सारे साज-सामान के साथ मानो स्वयं कठोरपन श्रेष्ठ वीर का शरीर धारण करके धनुषविद्या सीख रहा है. श्रीरघुनाथजी को सब हाल सुनाकर वह ऐसे बैठी है, मानो निष्ठुरता ही शरीर धारण किए हुए हो. सूर्यकुल के सूर्य, स्वाभाविक ही आनन्दनिधान श्रीरामचन्द्रजी मन में मुस्कुराकर सब दूषणों से रहित ऐसे कोमल और सुन्दर वचन बोले जो मानो वाणी के भूषण ही थे- हे माता! सुनो, वही पुत्र बड़भागी है, जो पिता-माता के वचनों का अनुरागी (पालन करने वाला) है. वन में विशेषरूप से मुनियों का मिलाप होगा, जिसमें मेरा सभी प्रकार से कल्याण है. उसमें भी, फिर पिताजी की आज्ञा और हे जननी! तुम्हारी सम्मति है और प्राणप्रिय भरत राज्य पावेंगे. इन सभी बातों को देखकर यह प्रतीत होता है कि आज विधाता सब प्रकार से मुझे सम्मुख हैं. यदि ऐसे काम के लिए भी मैं वन को न जाऊं तो मूर्खों के समाज में सबसे पहले मेरी गिनती करनी चाहिए.
जो कल्पवृक्ष को छोड़कर रेंड़ की सेवा करते हैं और अमृत त्यागकर विष मांग लेते हैं, हे माता! तुम मन में विचारकर देखो, वे (महामूर्ख) भी ऐसा मौका पाकर कभी न चूकेंगे. हे माता! मुझे एक ही दुख विशेषरूप से हो रहा है, वह महाराज को अत्यन्त व्याकुल देखकर. इस थोड़ी-सी बात के लिए ही पिताजी को इतना भारी दुख हो, हे माता! मुझे इस बात पर विश्वास नहीं होता. क्योंकि महाराज तो बड़े ही धीर और गुणों के अथाह समुद्र हैं. अवश्य ही मुझसे कोई बड़ा अपराध हो गया है, जिसके कारण महाराज मुझसे कुछ नहीं कहते. तुम्हें मेरी सौगन्ध है, माता! तुम सच-सच कहो. रघुकुल में श्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजी के स्वभाव से ही सीधे वचनों को दुर्बुद्धि कैकेयी टेढ़ा ही करके जान रही है; जैसे यद्यपि जल समान ही होता है, परन्तु जोंक उसमें टेढ़ी चाल से ही चलती है. रानी कैकेयी श्रीरामचन्द्रजी का रुख पाकर हर्षित हो गयी और कपटपूर्ण स्नेह दिखाकर बोली- तुम्हारी शपथ और भरत की सौगन्ध है, मुझे राजा के दुख का दूसरा कुछ भी कारण विदित नहीं है. हे तात! तुम अपराध के योग्य नहीं हो (तुमसे माता-पिता का अपराध बन पड़े, यह सम्भव नहीं). तुम तो माता-पिता और भाइयों को सुख देने वाले हो. हे राम! तुम जो कुछ कह रहे हो, सब सत्य है. तुम पिता-माता के वचनों के पालन में तत्पर हो.
मैं तुम्हारी बलिहारी जाती हूं, तुम पिता को समझाकर वही बात कहो जिससे चौथेपन (बुढ़ापे) में इनका अपयश न हो. जिस पुण्य ने इनको तुम जैसे पुत्र दिए हैं उसका निरादर करना उचित नहीं. कैकेयी के बुरे मुख में ये शुभ वचन कैसे लगते हैं जैसे मगध देश में गया आदिक तीर्थ! श्रीरामचन्द्रजी को माता कैकेयी के सब वचन ऐसे अच्छे लगे जैसे गंगाजी में जाकर जल शुभ, सुन्दर हो जाते हैं. इतने में राजा की मूर्च्छा दूर हुई, उन्होंने राम का स्मरण करके 'राम-राम!' कहकर फिरकर करवट ली. मन्त्री ने श्रीरामचन्द्रजी का आना कहकर समयानुकूल विनती की. जब राजा ने सुना कि श्रीरामचन्द्र पधारे हैं तो उन्होंने धीरज धरके नेत्र खोले. मन्त्री ने संभालकर राजा को बैठाया. राजा ने श्रीरामचन्द्रजी को अपने चरणों में पड़ते (प्रणाम करते) देखा. स्नेह से विकल राजा ने रामजी को हृदय से लगा लिया. मानो सांप ने अपनी खोयी हुई मणि फिर पा ली हो. राजा दशरथजी श्रीरामजी को देखते ही रह गए. उनके नेत्रों से आंसुओं की धारा बह चली. शोक के विशेष वश होने के कारण राजा कुछ कह नहीं सकते. वे बार-बार श्रीरामचन्द्रजी को हृदय से लगाते हैं और मन में ब्रह्माजी को मनाते हैं कि जिससे श्रीरघुनाथजी वन को न जाएं. फिर महादेवजी का स्मरण करके उनसे निहोरा करते हुए कहते हैं- हे सदाशिव! आप मेरी विनती सुनिए.आप आशुतोष (शीघ्र प्रसन्न होनेवाले) और अवढरदानी (मुंहमांगा दे डालने वाले) हैं. अतः मुझे अपना दीन सेवक जानकर मेरे दुख को दूर कीजिए.
आप प्रेरकरूप से सबके हृदय में हैं. आप श्रीरामचन्द्र को ऐसी बुद्धि दीजिये जिससे वे मेरे वचन को त्यागकर और शील-स्नेह को छोड़कर घर ही में रह जाएं. जगत में चाहे अपयश हो और सुयश नष्ट हो जाए. चाहे नया पाप होने से मैं नरक में गिरूं, अथवा स्वर्ग चला जाय और भी सब प्रकार के दुसह दुख आप मुझसे सहन करा लें. पर श्रीरामचन्द्र मेरी आंखों की ओट न हों. राजा मन-ही-मन इस प्रकार विचार कर रहे हैं, बोलते नहीं. उनका मन पीपल के पत्ते की तरह डोल रहा है. श्रीरघुनाथजी ने पिता को प्रेम के वश जानकर और यह अनुमान करके कि माता फिर कुछ कहेगी तो पिताजी को दुख होगा- देश, काल और अवसर के अनुकूल विचारकर विनीत वचन कहे- हे तात! मैं कुछ कहता हूं, यह ढिठाई करता हूं. इस अनौचित्य को मेरी बाल्यावस्था समझकर क्षमा कीजिएगा. इस अत्यन्त तुच्छ बात के लिए आपने इतना दुख पाया. मुझे किसी ने पहले कहकर यह बात नहीं बताई. स्वामी (आप) को इस दशा में देखकर मैंने माता से पूछा. उनसे सारा प्रसंग सुनकर मेरे सब अंग शीतल हो गए (मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई). हे पिताजी! इस मंगल के समय स्नेहवश होकर सोच करना छोड़ दीजिए और हृदय में प्रसन्न होकर मुझे आज्ञा दीजिए. यह कहते हुए प्रभु श्रीरामचन्द्रजी सर्वांग पुलकित गए. उन्होंने फिर कहा- इस पृथ्वी तल पर उसका जन्म धन्य है जिसके चरित्र सुनकर पिता को परम आनन्द हो. जिसको माता-पिता प्राणों के समान प्रिय हैं, चारों पदार्थ (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष) उसके करतलगत (मुट्ठी में) रहते हैं.
आपकी आज्ञा पालन करके और जन्म का फल पाकर मैं जल्द ही लौट आऊंगा, अतः कृपया आज्ञा दीजिए. माता से विदा मांग आता हूं. फिर आपके पैर लगकर (प्रणाम करके) वन को चलूंगा. ऐसा कहकर तब श्रीरामचन्द्रजी वहां से चल दिए. राजा ने शोकवश कोई उत्तर नहीं दिया. वह बहुत ही तीखी (अप्रिय) बात नगरभर में इतनी जल्दी फैल गई मानो डंक मारते ही बिच्छू का विष सारे शरीर में चढ़ गया हो. इस बात को सुनकर सब स्त्री-पुरुष ऐसे व्याकुल हो गए जैसे दावानल (वन में आग लगी) देखकर बेल और वृक्ष मुरझा जाते हैं. जो जहां सुनता है वह वहीं सिर धुनने लगता है! बड़ा विषाद है, किसी को धीरज नहीं बंधता. सबके मुख सूखे जाते हैं, आंखों से आंसू बहते हैं, शोक हृदय में नहीं समाता. मानो करुणारस की सेना अवध पर डंका बजाकर उतर आई हो. सब मेल मिल गए थे, इतने में ही विधाता ने बात बिगाड़ दी! जहां-तहां लोग कैकेयी को गाली दे रहे हैं! इस पापिन को क्या सूझ पड़ा जो इसने छाए घर पर आग रख दी. यह अपने हाथ से अपनी आंखों को निकालकर देखना चाहती है, और अमृत फेंककर विष चखना चाहती है! यह कुटिल, कठोर, दुर्बुद्धि और अभागिनी कैकेयी रघुवंशरूपी बांस के वन के लिए अग्नि हो गई! पत्ते पर बैठकर इसने पेड़ को काट डाला. सुख में शोक का ठाट ठटकर रख दिया!
श्रीरामचन्द्रजी इसे सदा प्राणों के समान प्रिय थे. फिर भी न जाने किस कारण इसने यह कुटिलता ठानी. कवि सत्य ही कहते हैं कि स्त्री का स्वभाव सब प्रकार से पकड़ में न आने योग्य अथाह और भेदभरा होता है. अपनी परछाहीं भले ही पकड़ जाए, पर भाई! स्त्रियों की गति (चाल) नहीं जानी जाती. आग क्या नहीं जला सकती! समुद्र में क्या नहीं समा सकता! अबला कहाने वाली प्रबल स्त्री क्या नहीं कर सकती! और जगत में काल किसको नहीं खाता! विधाता ने क्या सुनाकर क्या सुना दिया और क्या दिखाकर अब वह क्या दिखाना चाहता है! एक कहते हैं कि राजा ने अच्छा नहीं किया, दुर्बुद्धि कैकेयी को विचारकर वर नहीं दिया, जो हठ करके (कैकेयी की बात को पूरा करने में अड़े रहकर) स्वयं सब दुखों के पात्र हो गए. स्त्री के विशेष वश होने के कारण मानो उसका ज्ञान और गुण जाता रहा. एक (दूसरे) जो धर्म की मर्यादा को जानते हैं और सयाने हैं, वे राजा को दोष नहीं देते. वे शिबि, दधीचि और हरिश्चन्द्रकी कथा एक दूसरे से बखानकर कहते हैं. कोई एक इसमें भरतजी की सम्मति बताते हैं. कोई एक सुनकर उदासीनभाव से रह जाते हैं. कोई हाथों से कान मूंदकर और जीभ को दांतों तले दबाकर कहते हैं कि यह बात झूठ है, ऐसी बात कहने से तुम्हारे पुण्य नष्ट हो जाएंगे. भरतजी को तो श्रीरामचन्द्रजी प्राणों के समान प्यारे हैं.
चन्द्रमा चाहे शीतल किरणों की जगह आग की चिनगारियां बरसाने लगे और अमृत चाहे विष के समान हो जाए, परंतु भरतजी स्वप्न में भी कभी श्रीरामचन्द्रजी के विरुद्ध कुछ नहीं करेंगे. कोई एक विधाता को दोष देते हैं, जिसने अमृत दिखाकर विष दे दिया. नगरभर में खलबली मच गई. सब किसी को सोच हो गया. हृदय में जलन हो गई, आनंद-उत्साह मिट गया. ब्राह्मणों की स्त्रियां, कुल की माननीय बड़ी-बूढ़ी और जो कैकेयी की परम प्रिय थीं, वे उसके शील की सराहना करके उसे सीख देने लगीं. पर उसको उनके वचन बाण के समान लगते हैं. वे कहती हैं- तुम तो सदा कहा करती थीं कि श्रीरामचन्द्र के समान मुझको भरत भी प्यारे नहीं हैं; इस बात को सारा जगत जानता है. श्रीरामचन्द्रजी पर तो तुम स्वाभाविक ही स्नेह करती रही हो. आज किस अपराध से उन्हें वन देती हो? तुमने कभी सौतियाडाह नहीं किया. सारा देश तुम्हारे प्रेम और विश्वास को जानता है. अब कौशल्या ने तुम्हारा कौन-सा बिगाड़ कर दिया, जिसके कारण तुमने सारे नगर पर वज्र गिरा दिया. क्या सीताजी अपने पति (श्रीरामचन्द्रजी) का साथ छोड़ देंगी? क्या लक्ष्मणजी श्रीरामचन्द्रजी के बिना घर रह सकेंगे? क्या भरतजी श्रीरामचन्द्रजी के बिना अयोध्यापुरी का राज्य भोग सकेंगे? और क्या राजा श्रीरामचन्द्रजी के बिना जीवित रह सकेंगे? (अर्थात् न सीताजी यहां रहेंगी, न लक्ष्मणजी रहेंगे, न भरतजी राज्य करेंगे और न राजा ही जीवित रहेंगे; सब उजाड़ हो जायगा). हृदय में ऐसा विचार कर क्रोध छोड़ दो, शोक और कलंकी कोठी मत बनो. भरत को अवश्य युवराजपद दो, पर श्रीरामचन्द्रजी का वन में क्या काम है!
श्रीरामचन्द्रजी राज्य के भूखे नहीं हैं. वे धर्म की धुरी को धारण करने वाले और विषय-रस से रूखे हैं. इसलिए तुम यह शंका न करो कि श्रीरामजी वन न गए तो भरत के राज्य में विघ्न करेंगे; इतने पर भी मन न माने तो तुम राजा से दूसरा ऐसा वर ले लो कि श्रीराम घर छोड़कर गुरु के घर रहें. जो तुम हमारे कहने पर न चलोगी तो तुम्हारे हाथ कुछ भी न लगेगा. यदि तुमने कुछ हंसी की हो तो उसे प्रकट में कहकर जना दो. राम-सरीखा पुत्र क्या वन के योग्य है? यह सुनकर लोग तुम्हें क्या कहेंगे! जल्दी उठो और वही उपाय करो जिस उपाय से इस शोक और कलंक का नाश हो. जिस तरह नगरभर का शोक और तुम्हारा कलंक मिटे, वही उपाय करके कुल की रक्षा कर. वन जाते हुए श्रीरामजी को हठ करके लौटा ले, दूसरी कोई बात न चला. हे भामिनी! तू अपने हृदय में इस बात को विचार कर देख तो सही. इस प्रकार सखियों ने ऐसी सीख दी जो सुनने में मीठी और परिणाम में हितकारी थी. पर कुटिला कुबरी की सिखायी-पढ़ायी हुई कैकेयी ने इसपर जरा भी कान नहीं दिया. कैकेयी कोई उत्तर नहीं देती, वह क्रोध के मारे रूखी हो रही है. ऐसे देखती है मानो भूखी बाघिन हिरनियों को देख रही हो. तब सखियों ने रोग को असाध्य समझकर उसे छोड़ दिया. सब उसको मन्दबुद्धि, अभागिनी कहती हुई चल दीं.
राज्य करते हुए इस कैकेयी को देव ने नष्ट कर दिया. इसने जैसा कुछ किया, वैसा कोई भी न करेगा! नगर के सब स्त्री-पुरुष इस प्रकार विलाप कर रहे हैं और उस कुचाली कैकेयी को करोड़ों गालियां दे रहे हैं. लोग विषमज्वर (भयानक दुख की आग) से जल रहे हैं. लंबी सांसें लेते हुए वे कहते हैं कि श्रीरामचन्द्रजी के बिना जीने की कौन आशा है. महान वियोग से प्रजा ऐसी व्याकुल हो गई है मानो पानी सूखने के समय जलचर जीवों का समुदाय व्याकुल हो! सभी पुरुष और स्त्रियां अत्यन्त विषाद के वश हो रहे हैं. स्वामी श्रीरामचन्द्रजी माता कौशल्या के पास गए. उनका मुख प्रसन्न है और चित्त में चौगुना चाव (उत्साह) है. यह सोच मिट गया है कि राजा कहीं रख न लें. श्रीरामचन्द्रजी का मन नए पकड़े हुए हाथी के समान और राजतिलक उस हाथी के बांधने की कांटेदार लोहे की बेड़ी के समान है. 'वन जाना है' यह सुनकर, अपने को बंधन से छूटा जानकर, उनके हृदय में आनंद बढ़ गया है. रघुकुलतिलक श्रीरामचन्द्रजी ने दोनों हाथ जोड़कर आनन्द के साथ माता के चरणों में सिर नवाया. माता ने आशीर्वाद दिया, अपने हृदय से लगा लिया और उनपर गहने तथा कपड़े न्यौछावर किए. माता बार-बार श्रीरामचन्द्रजी का मुख चूम रही हैं. नेत्रों में प्रेम का जल भर आया है और सब अंग पुलकित हो गए हैं. श्रीराम को अपनी गोद में बैठाकर फिर हृदय से लगा लिया.
उनका प्रेम और महान आनन्द कुछ कहा नहीं जाता. मानो कंगाल ने कुबेर का पद पा लिया हो. बड़े आदर के साथ सुन्दर मुख देखकर माता मधुर वचन बोलीं- हे तात! माता बलिहारी जाती है, कहो, वह आनन्द-मंगलकारी लग्न कब है, जो मेरे पुण्य, शील और सुख की सुन्दर सीमा है और जन्म लेने के लाभ की पूर्णतम अवधि है; तथा जिस (लग्न) को सभी स्त्री-पुरुष अत्यन्त व्याकुलता से इस प्रकार चाहते हैं जिस प्रकार प्यास से चातक और चातकी शरद ऋतु के स्वाति नक्षत्र की वर्षा को चाहते हैं. हे तात! मैं बलैया लेती हूं, तुम जल्दी नहा लो और जो मन भावे, कुछ मिठाई खा लो. भैया! तब पिताके पास जाना. बहुत देर हो गई है, माता बलिहारी जाती है. माता के अत्यन्त अनुकूल वचन सुनकर जो मानो स्नेहरूपी कल्पवृक्ष के फूल थे, जो सुखरूपी मकरन्द (पुष्परस) से भरे थे और श्री (राजलक्ष्मी) के मूल थे ऐसे वचनरूपी फूलों को देखकर श्रीरामचन्द्रजी का मनरूपी भौंरा उनपर नहीं भूला. धर्मधुरीण श्रीरामचन्द्रजी ने धर्म की गति को जानकर माता से अत्यन्त कोमल वाणी से कहा- हे माता! पिताजी ने मुझको वन का राज्य दिया है, जहां सब प्रकार से मेरा बड़ा काम बनने वाला है. हे माता! तू प्रसन्न मन से मुझे आज्ञा दे, जिससे मेरी वनयात्रा में आनन्द-मंगल हो. मेरे स्नेहवश भूलकर भी डरना नहीं. हे माता! तेरी कृपा से आनन्द ही होगा. चौदह वर्ष वन में रहकर, पिताजी के वचन को प्रमाणित (सत्य) कर, फिर लौटकर तेरे चरणों का दर्शन करूंगा; तू मन को म्लान (दुखी) न कर.
रघुकुल में श्रेष्ठ श्रीरामजी के ये बहुत ही नम्र और मीठे वचन माता के हृदय में बाण के समान लगे और कसकने लगे. उस शीतल वाणी को सुनकर कौशल्या वैसे ही सहमकर सूख गईं जैसे बरसात का पानी पड़ने से जवासा सूख जाता है. हृदय का विषाद कुछ कहा नहीं जाता. मानो सिंह की गर्जना सुनकर हिरनी विकल हो गई हो. नेत्रों में जल भर आया, शरीर थर-थर कांपने लगा. मानो मछली मांजा (पहली वर्षा का फेन) खाकर बदहवास हो गई हो! धीरज धरकर, पुत्र का मुख देखकर माता गद्गद वचन कहने लगीं- हे तात! तुम तो पिता को प्राणों के समान प्रिय हो. तुम्हारे चरित्रों को देखकर वे नित्य प्रसन्न होते थे. राज्य देने के लिए उन्होंने ही शुभ दिन सोधवाया था. फिर अब किस अपराध से वन जाने को कहा? हे तात! मुझे इसका कारण सुनाओ! सूर्यवंश रूपी वन को जलाने के लिए अग्नि कौन हो गया? तब श्रीरामचन्द्रजी का रुख देखकर मन्त्री के पुत्र ने सब कारण समझाकर कहा. उस प्रसंग को सुनकर वे गूंगी जैसी चुप रह गईं, उनकी दशा का वर्णन नहीं किया जा सकता. न रख ही सकती हैं, न यह कह सकती हैं कि वन चले जाओ. दोनों ही प्रकार से हृदय में बड़ा भारी सन्ताप हो रहा है. मन में सोचती हैं कि देखो- विधाता की चाल सदा सबके लिए टेढ़ी होती है. लिखने लगे चन्द्रमा और लिख गया राहु! धर्म और स्नेह दोनों ने कौशल्याजी की बुद्धि को घेर लिया. उनकी दशा सांप-छछूंदर की-सी हो गई. वे सोचने लगीं कि यदि मैं अनुरोध (हठ) करके पुत्र को रख लेती हूं तो धर्म जाता है और भाइयों में विरोध होता है; और यदि वन जाने को कहती हूं तो बड़ी हानि होती है. इस प्रकार के धर्म-संकट में पड़कर रानी विशेषरूप से सोच के वश हो गईं. फिर बुद्धिमती कौशसल्याजी स्त्री-धर्म (पतिव्रत-धर्म) को समझकर और राम तथा भरत दोनों पुत्रों को समान जानकर सरल स्वभाववाली श्रीरामचन्द्रजी की माता बड़ा धीरज धरकर वचन बोलीं- हे तात! मैं बलिहारी जाती हूं, तुमने अच्छा किया. पिता की आज्ञा का पालन करना ही सब धर्मों का शिरोमणि धर्म है.
राज्य देने को कहकर वन दे दिया, उसका मुझे लेशमात्र भी दुख नहीं है. दुख तो इस बात का है कि तुम्हारे बिना भरत को, महाराज को और प्रजा को बड़ा भारी क्लेश होगा. हे तात! यदि केवल पिताजी की ही आज्ञा हो, तो माता को पिता से बड़ी जानकर वन को मत जाओ. किन्तु यदि पिता-माता दोनों ने वन जाने को कहा हो, तो वन तुम्हारे लिए सैकड़ों अयोध्या के समान है. वन के देवता तुम्हारे पिता होंगे और वनदेवियां माता होंगी. वहां के पशु-पक्षी तुम्हारे चरण- कमलों के सेवक होंगे. राजा के लिए अन्त में तो वनवास करना उचित ही है. केवल तुम्हारी सुकुमार अवस्था देख कर हृदय में दुख होता है. हे रघुवंश के तिलक! वन बड़ा भाग्यवान है और यह अवध अभागी है, जिसे तुमने त्याग दिया. हे पुत्र! यदि मैं कहूं कि मुझे भी साथ ले चलो तो तुम्हारे हृदय में सन्देह होगा कि माता इसी बहाने मुझे रोकना चाहती हैं.
हे पुत्र! तुम सभी के परम प्रिय हो. प्राणों के प्राण और हृदय के जीवन हो. वही (प्राणाधार) तुम कहते हो कि माता! मैं वन को जाऊं और मैं तुम्हारे वचनों को सुनकर बैठी पछताती. यह सोचकर झूठा स्नेह बढ़ाकर मैं हठ नहीं करती. बेटा! मैं बलैया लेती माता का नाता मानकर मेरी सुध भूल न जाना. हे गोसाईं! सब देव और पितर तुम्हारी वैसे ही रक्षा करें, जैसे पलकें आंखों की रक्षा करती हैं. तुम्हारे वनवास की अवधि (चौदह वर्ष) जल है, प्रियजन और कुटुम्बी मछली हैं. तुम दया की खान और धर्म की धुरी को धारण करने वाले हो. ऐसा विचार कर वही उपाय करना जिसमें सबके जीते-जी तुम आ मिलो. मैं बलिहारी जाती हूं, तुम सेवकों, परिवार वालों और नगरभर को अनाथ करके सुखपूर्वक वन को जाओ. आज सबके पुण्यों का फल पूरा हो गया! कठिन काल हमारे विपरीत हो गया. इस प्रकार बहुत विलाप करके और अपने को परम अभागिनी जानकर माता श्रीरामचन्द्रजी के चरणों में लिपट गईं. हृदय में भयानक संताप छा गया. श्रीरामचन्द्रजी ने माता को उठाकर हृदय से लगा लिया और फिर कोमल वचन कहकर उन्हें समझाया. उसी समय यह समाचार सुनकर सीताजी अकुला उठीं और सास के पास जाकर उनके दोनों चरणकमलों की वन्दना कर सिर नीचा करके बैठ गईं.
सास ने कोमल वाणी से आशीर्वाद दिया. वे सीताजी को अत्यन्त सुकुमारी देखकर व्याकुल हो उठीं. रूप की राशि और पति के साथ पवित्र प्रेम करने वाली सीताजी नीचा मुख किए बैठी सोच रही हैं. जीवननाथ (प्राणनाथ) वन को चलना चाहते हैं. देखें किस पुण्यवान से उनका साथ होगा शरीर और प्राण दोनों साथ जाएंगे या केवल प्राण ही से इनका साथ होगा? विधाता की करनी कुछ जानी नहीं जाती. सीताजी अपने सुन्दर चरणों के नखों से धरती कुरेद रही हैं. ऐसा करते समय नूपुरों का जो मधुर शब्द हो रहा है, कवि उसका इस प्रकार वर्णन करते हैं कि मानो प्रेम के वश होकर नूपुर यह विनती कर रहे हैं कि सीताजी के चरण कभी हमारा त्याग न करें. सीताजी सुन्दर नेत्रों से जल बहा रही हैं. उनकी यह दशा देखकर श्रीरामजी की माता कौशल्याजी बोलीं- हे तात! सुनो, सीता अत्यन्त ही सुकुमारी हैं तथा सास, ससुर और कुटुम्बी सभी को प्यारी हैं. इनके पिता जनकजी राजाओं के शिरोमणि हैं; ससुर सूर्यकुल के सूर्य हैं और पति सूर्यकुलरूपी कुमुदवन को खिलाने वाले चन्द्रमा तथा गुण और रूप के भंडार हैं. फिर मैंने रूप की राशि, सुन्दर गुण और शीलवाली प्यारी पुत्रवधू पाई है. मैंने इन (जानकी) को आंखों की पुतली बनाकर इनसे प्रेम बढ़ाया है और अपने प्राण इनमें लगा रखे हैं. इन्हें कल्पलता के समान मैंने बहुत तरह से बड़े लाड़-चाव के साथ स्नेहरूपी जल से सींचकर पाला है. अब इस लता के फूलने-फलने के समय विधाता वाम हो गए.कुछ जाना नहीं जाता कि इसका क्या परिणाम होगा.
सीता ने पलंग के ऊपर, गोद और हिंडोले को छोड़कर कठोर पृथ्वी पर कभी पैर नहीं रखा. मैं सदा संजीवनी जड़ी के समान सावधानी से इनकी रखवाली करती रही हूं! कभी दीपक की बत्ती हटाने को भी नहीं कहती. वही सीता अब तुम्हारे साथ वन चलना चाहती है. हे रघुनाथ! उसे क्या आज्ञा होती है? चन्द्रमा की किरणों का रस (अमृत) चाहने वाली चकोरी सूर्य की ओर आंख किस तरह मिला सकती है. हाथी, सिंह, राक्षस आदि अनेक दुष्ट जीव-जन्तु वन में विचरते रहते हैं. हे पुत्र! क्या विष की वाटिका में सुन्दर संजीवनी बूटी शोभा पा सकती है? वन के लिए तो ब्रह्माजी ने विषयसुख को न जानने वाली कोल और भीलों की लड़कियों को रचा है, जिनका पत्थर के कीड़े-जैसा कठोर स्वभाव है. उन्हें वन में कभी क्लेश नहीं होता अथवा तपस्वियों की स्त्रियां वन में रहने योग्य हैं, जिन्होंने तपस्या के लिए सब भोग तज दिए हैं. हे पुत्र! जो तस्वीर के बन्दर को देखकर डर जाती हैं वे सीता वन में किस तरह रह सकेंगी? देवसरोवर के कमलवन में विचरण करने वाली हंसिनी क्या गड़ैयों (तलैयों) में रहने के योग्य है? ऐसा विचारकर जैसी तुम्हारी आज्ञा हो, मैं जानकी को वैसी ही शिक्षा दूं. माता कहती हैं- यदि सीता घर में रहें तो मुझको बहुत सहारा हो जाय. श्रीरामचन्द्रजी ने माता की प्रिय वाणी सुनकर, जो मानो शील और स्नेहरूपी अमृत से सनी हुई थी.
वन के गुण-दोष प्रकट करके वे जानकीजी को समझाने लगे. माता के सामने सीताजी से कुछ कहने में सकुचाते हैं. पर मन में यह समझकर कि यह समय ऐसा ही है, वे बोले- हे राजकुमारी! मेरी सिखावन सुनो. मन में कुछ दूसरी तरह न समझ लेना. जो अपना और मेरा भला चाहती हो, तो मेरा वचन मानकर घर रहो. हे भामिनी! मेरी आज्ञा का पालन होगा, सास की सेवा बन पड़ेगी. घर रहने में सभी प्रकार से भलाई है. आदरपूर्वक सास-ससुर के चरणों की पूजा (सेवा) करने से बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है. जब-जब माता मुझे याद करेंगी और प्रेम से व्याकुल होने के कारण उनकी बुद्धि भोली हो जाएगी. हे सुन्दरी! तब-तब तुम कोमल वाणी से पुरानी कथाएं कह-कहकर इन्हें समझाना. हे सुमुखि! मुझे सैकड़ों सौगन्ध हैं, मैं यह स्वभाव से ही कहता हूं कि मैं तुम्हें केवल माता के लिए ही घरपर रखता हूं. मेरी आज्ञा मानकर घर पर रहने से गुरु और वेद के द्वारा सम्मत धर्म के आचरण का फल तुम्हें बिना ही क्लेश के मिल जाता है. किन्तु हठ के वश होकर गालव मुनि और राजा नहुष आदि सबने संकट ही सहे.
हे सुमुखि! हे सयानी! सुनो, मैं भी पिता के वचन को सत्य करके शीघ्र ही लौटूंगा. दिन जाते देर नहीं लगेगी. हे सुन्दरी! हमारी यह सीख सुनो! हे वामा! यदि प्रेमवश हठ करोगी, तो तुम परिणाम में दुख पाओगी. वन बड़ा कठिन और भयानक है. वहां की धूप, जाड़ा, वर्षा और हवा सभी बड़े भयानक हैं. रास्ते में कुश, कांटे और बहुत से कंकड़ हैं. उनपर बिना जूते के पैदल ही चलना होगा. तुम्हारे चरण-कमल कोमल और सुन्दर हैं और रास्ते में बड़े-बड़े दुर्गम पर्वत हैं. पर्वतों की गुफाएं, खोह (दरें), नदियां, नद और नाले ऐसे अगम्य और गहरे हैं कि उनकी ओर देखा तक नहीं जाता. रीछ, बाघ, भेड़िये, सिंह और हाथी ऐसे भयानक शब्द करते हैं कि उन्हें सुनकर धीरज भाग जाता है. जमीन पर सोना, पेड़ों की छाल के वस्त्र पहनना और कन्द, मूल, फल का भोजन करना होगा. और वे भी क्या सदा सब दिन मिलेंगे? सब कुछ अपने-अपने समय के अनुकूल ही मिल सकेगा. मनुष्यों को खाने वाले निशाचर (राक्षस) फिरते रहते हैं. वे करोड़ों प्रकार के कपट-रूप धारण कर लेते हैं. पहाड़ का पानी बहुत ही लगता है. वन की विपत्ति बखानी नहीं जा सकती. वन में भीषण सर्प, भयानक पक्षी और स्त्री-पुरुषों को चुराने वाले राक्षसों के झुंड-के-झुंड रहते हैं. वन की भयंकरता याद आने मात्र से धीर पुरुष भी डर जाते हैं. फिर हे मृगलोचनि! तुम तो स्वभाव से ही नरम हो!
हे हंसगमनी! तुम वन के योग्य नहीं हो. तुम्हारे वन जाने की बात सुनकर लोग मुझे बुरा कहेंगे. मानसरोवर के अमृत के समान जल से पाली हुई हंसिनी कहीं खारे समुद्र में जी सकती है? नवीन आम के वन में विहार करने वाली कोयल क्या करील के जंगल में शोभा पाती है? हे चन्द्रमुखी! हृदय में ऐसा विचारकर तुम घर ही पर रहो. वन में बड़ा कष्ट है. स्वाभाविक ही हित चाहने वाले गुरु और स्वामी की सीख को जो सिर चढ़ाकर नहीं मानता, वह हृदय में भरपेट पछताता है और उसके हित की हानि अवश्य होती है. प्रियतम के कोमल तथा मनोहर वचन सुनकर सीताजी के सुन्दर नेत्र जल से भर गए. श्रीरामजी की यह शीतल सीख उनको कैसी जलाने वाली हुई, जैसे चकवी को शरद् ऋतु की चांदनी रात होती है. जानकीजी से कुछ उत्तर देते नहीं बनता, वे यह सोचकर व्याकुल हो उठीं कि मेरे पवित्र और प्रेमी स्वामी मुझे छोड़ जाना चाहते हैं. नेत्रों के जल (आंसुओं) को जबर्दस्ती रोककर वे पृथ्वी की कन्या सीताजी हृदय में धीरज धरकर, सास के पैर लगकर, हाथ जोड़कर कहने लगीं- हे देवी! मेरी इस बड़ी भारी ढिठाई को क्षमा कीजिए.मुझे प्राणपति ने वही शिक्षा दी है जिससे मेरा परम हित हो, परन्तु मैंने मन में समझकर देख लिया कि पति के वियोग के समान जगत में कोई दुख नहीं है.
हे प्राणनाथ! हे दया के धाम! हे सुन्दर! हे सुखों के देने वाले! हे सुजान! हे रघुकुलरूपी कुमुद के खिलाने वाले चन्द्रमा! आपके बिना स्वर्ग भी मेरे लिए नरक के समान है. माता, पिता, बहन, प्यारा भाई, प्यारा परिवार, मित्रों का समुदाय, सास, ससुर, गुरु, स्वजन (बन्धु-बान्धव), सहायक और सुन्दर, सुशील और सुख देने वाला पुत्र- हे नाथ! जहां तक स्नेह और नाते हैं, पति के बिना स्त्री को सभी सूर्य से भी बढ़कर तपाने वाले हैं. शरीर, धन, घर, पृथ्वी, नगर और राज्य, पति के बिना स्त्री के लिए यह सब शोक का समाज है, भोग रोग के समान हैं, गहने भाररूप हैं और संसार यम-यातना (नरक की पीड़ा) के समान है. हे प्राणनाथ! आपके बिना जगत में मुझे कहीं कुछ भी सुखदायी नहीं है. जैसे बिना जीव के देह और बिना जल के नदी, वैसे ही हे नाथ! बिना पुरुष के स्त्री है. हे नाथ! आपके साथ रहकर आपका शरद पूर्णिमा के निर्मल चन्द्रमा के समान मुख देखने से मुझे समस्त सुख प्राप्त होंगे. हे नाथ! आपके साथ पक्षी और पशु ही मेरे कुटुम्बी होंगे, वन ही नगर और वृक्षों की छाल ही निर्मल वस्त्र होंगे और पर्णकुटी (पत्तों की बनी झोंपड़ी) ही स्वर्ग के समान सुखों की मूल होगी. उदार हृदय के वनदेवी और वनदेवता ही सास-ससुरके समान मेरी सार-संभार करेंगे, और कुशा और पत्तों की सुन्दर साथरी (बिछौना) ही प्रभु के साथ कामदेव की मनोहर तोशक के समान होगी. कन्द, मूल और फल ही अमृत के समान आहार होंगे और वन के पहाड़ ही अयोध्या के सैकड़ों राजमहलों के समान होंगे. क्षण-क्षण में प्रभु के चरणकमलों को देख-देखकर मैं ऐसी आनन्दित रहूंगी जैसी दिन में चकवी रहती है.
हे नाथ! आपने वन के बहुत से दुख और बहुत से भय, विषाद और सन्ताप कहे. परन्तु हे कृपानिधान! वे सब मिलकर भी प्रभु (आप) के वियोग से होने वाले दुख के लवलेश के समान भी नहीं हो सकते. ऐसा जी में जानकर, हे सुजानशिरोमणि! आप मुझे साथ ले लीजिये, यहां न छोड़िए. हे स्वामी! मैं अधिक क्या विनती करूं? आप करुणामय हैं और सबके हृदय के अंदर की जानने वाले हैं. हे दीनबन्धु! हे सुन्दर! हे सुख देने वाले! हे शील और प्रेम के भंडार! यदि अवधि (चौदह वर्ष) तक मुझे अयोध्या में रखते हैं तो जान लीजिए कि मेरे प्राण नहीं रहेंगे. क्षण-क्षण में आपके चरणकमलों को देखते रहने से मुझे मार्ग चलने में थकावट न होगी. हे प्रियतम! मैं सभी प्रकार से आपकी सेवा करूंगी और मार्ग चलने से होने वाली सारी थकावट को दूर कर दूंगी. आपके पैर धोकर, पेड़ों की छाया में बैठकर, मन में प्रसन्न होकर हवा करूंगी (पंखा झलूंगी). पसीने की बूंदों सहित श्याम शरीर को देखकर प्राणपति के दर्शन करते हुए दुख के लिए मुझे अवकाश ही कहां रहेगा. समतल भूमि पर घास और पेड़ों के पत्ते बिछाकर यह दासी रातभर आपके चरण दबावेगी. बार-बार आपकी कोमल मूर्ति को देखकर मुझको गरम हवा भी न लगेगी. प्रभु के साथ रहते मेरी ओर आंख उठाकर देखने वाला कौन है (अर्थात् कोई नहीं देख सकता)! जैसे सिंह की स्त्री (सिंहनी) को खरगोश और सियार नहीं देख सकते. मैं सुकुमारी और नाथ वन के योग्य हैं? आपको तो तपस्या उचित है और मुझको विषय-भोग?
ऐसे कठोर वचन सुनकर भी जब मेरा हृदय न फटा तो, हे प्रभु! ये पामर प्राण आपके वियोग का भीषण दुख सहेंगे. ऐसा कहकर सीताजी बहुत ही व्याकुल हो गईं. वे वचन के वियोग को भी न संभाल सकीं. उनकी यह दशा देखकर श्रीरघुनाथजी ने अपने जी में जान लिया कि हठपूर्वक इन्हें यहां रखने से ये प्राणों को न रखेंगी. तब कृपालु, सूर्यकुल के स्वामी श्रीरामचन्द्रजी ने कहा कि सोच छोड़कर मेरे साथ वन को चलो. आज विषाद करने का अवसर नहीं है. तुरंत वनगमन की तैयारी करो. श्रीरामचन्द्रजी ने प्रिय वचन कहकर प्रियतमा सीताजी को समझाया. फिर माता के पैरों लगकर आशीर्वाद प्राप्त किया. माता ने कहा- बेटा! जल्दी लौटकर प्रजा के दुख को मिटाना और यह निठुर माता तुम्हें भूल न जाए! हे विधाता! क्या मेरी दशा भी फिर पलटेगी? क्या अपने नेत्रों से मैं इस मनोहर जोड़ी को फिर देख पाऊंगी? हे पुत्र! वह सुन्दर दिन और शुभ घड़ी कब होगी जब तुम्हारी जननी जीते जी तुम्हारा चांद-सा मुखड़ा फिर देखेगी! हे तात! 'वत्स' कहकर, 'लाल' कहकर, 'रघुपति' कहकर, 'रघुवर' कहकर, मैं फिर कब तुम्हें बुलाकर हृदय से लगाऊंगी और हर्षित होकर तुम्हारे अंगों को देखूंगी! यह देखकर कि माता स्नेह के मारे अधीर हो गई हैं और इतनी अधिक व्याकुल हैं कि मुंह से वचन नहीं निकलता, श्रीरामचन्द्रजी ने अनेक प्रकार से उन्हें समझाया.
तब जानकीजी सास के पांव लगीं और बोलीं- हे माता ! सुनिये, मैं बड़ी ही अभागिनी हूं. आपकी सेवा करने के समय देव ने मुझे वनवास दे दिया. मेरा मनोरथ सफल न किया. आप क्षोभ का त्याग कर दें, परंतु कृपा न छोड़ियेगा. कर्म की गति कठिन है, मुझे भी कुछ दोष नहीं है. सीताजी के वचन सुनकर सास व्याकुल हो गईं. उनकी दशा को मैं किस प्रकार बखानकर कहूं! उन्होंने सीताजी को बार-बार हृदय से लगाया और धीरज धरकर शिक्षा दी और आशीर्वाद दिया कि जबतक गंगाजी और यमुनाजी में जल की धारा बहे, तब तक तुम्हारा सुहाग अचल रहे. सीताजी को सास ने अनेकों प्रकार से आशीर्वाद और शिक्षाएं दीं और वे (सीताजी) बड़े ही प्रेम से बार-बार चरणकमलों में सिर नवाकर चलीं. जब लक्ष्मणजी ने ये समाचार पाए, तब वे व्याकुल होकर उदास मुंह उठ दौड़े. शरीर कांप रहा है, रोमांच हो रहा है, नेत्र आंसुओं से भरे हैं. प्रेम से अत्यन्त अधीर होकर उन्होंने श्रीरामजी के चरण पकड़ लिए. वे कुछ कह नहीं सकते, खड़े-खड़े देख रहे हैं. हृदय में यह सोच है कि हे विधाता! क्या होने वाला है? क्या हमारा सब सुख और पुण्य पूरा हो गया? मुझको श्रीरघुनाथजी क्या कहेंगे? घर पर रखेंगे या साथ ले चलेंगे? श्रीरामचन्द्रजी ने भाई लक्ष्मण को हाथ जोड़े और शरीर तथा घर सभी से नाता तोड़े हुए खड़े देखा.
तब नीति में निपुण और शील, स्नेह, सरलता और सुख के समुद्र श्रीरामचन्द्रजी वचन बोले- हे तात! परिणाम में होने वाले आनन्द को हृदय में समझकर तुम प्रेमवश अधीर मत होओ. जो लोग माता, पिता, गुरु और स्वामी की शिक्षा को स्वाभाविक ही सिर चढ़ाकर उसका पालन करते हैं, उन्होंने ही जन्म लेने का लाभ पाया है; नहीं तो जगत में जन्म व्यर्थ ही है. हे भाई! हृदय में ऐसा जानकर मेरी सीख सुनो और माता-पिता के चरणों की सेवा करो. भरत और शत्रुघ्न घर पर नहीं हैं, महाराज वृद्ध हैं और उनके मन में मेरा दुख है. इस अवस्था में मैं तुमको साथ लेकर वन जाऊं तो अयोध्या सभी प्रकार से अनाथ हो जाएगी. गुरु, पिता, माता, प्रजा और परिवार सभीपर दुख का भार आ पड़ेगा. अतः तुम यहीं रहो और सबका सन्तोष करते रहो. नहीं तो हे तात! बड़ा दोष होगा. जिसके राज्य में प्यारी प्रजा दुखी रहती है, वह राजा अवश्य ही नरक का अधिकारी होता है. हे तात! ऐसी नीति विचारकर तुम घर रह जाओ. यह सुनते ही लक्ष्मणजी बहुत ही व्याकुल हो गए. इन शीतल वचनों से वे कैसे सूख गए, जैसे पाले के स्पर्श से कमल सूख जाता है! प्रेमवश लक्ष्मणजी से कुछ उत्तर देते नहीं बनता. उन्होंने व्याकुल होकर श्रीरामजी के चरण पकड़ लिए और कहा- हे नाथ! मैं दास हूं और आप स्वामी हैं; अतः आप मुझे छोड़ ही दें तो मेरा क्या वश है?
हे स्वामी! आपने मुझे सीख तो बड़ी अच्छी दी है, पर मुझे अपनी कायरता से वह मेरे लिए अगम (पहुंच के बाहर) लगी. शास्त्र और नीति के तो वे ही श्रेष्ठ पुरुष अधिकारी हैं जो धीर हैं और धर्म की धुरी को धारण करने वाले हैं. मैं तो प्रभु (आप) के स्नेह में पला हुआ छोटा बच्चा हूं! कहीं हंस भी मन्दराचल या सुमेरु पर्वत को उठा सकते हैं! हे नाथ! स्वभाव से ही कहता कहता हूं, आप विश्वास करें, मैं आपको छोड़कर गुरु, पिता, माता किसी को भी नहीं जानता. जगत में जहां तक स्नेह का सम्बन्ध, प्रेम और विश्वास है, जिनको स्वयं वेद ने गाया है- हे स्वामी! हे दीनबन्धु! हे सबके हृदय के अंदर की जानने वाले! मेरे तो वे सब कुछ केवल आप ही हैं. धर्म और नीति का उपदेश तो उसको करना चाहिए जिसे कीर्ति, विभूति (ऐश्वर्य) या सद्गति प्यारी हो. किन्तु जो मन, वचन और कर्म से चरणों में ही प्रेम रखता हो, हे कृपासिन्धु! क्या वह भी त्यागने के योग्य है? दया के समुद्र श्रीरामचन्द्रजी ने भले भाई के कोमल और नम्रतायुक्त वचन सुनकर और उन्हें स्नेह के कारण डरे हुए जानकर, हृदय से लगाकर समझाया और कहा- हे भाई! जाकर माता से विदा मांग आओ और जल्दी वन को चलो ! रघुकुल में श्रेष्ठ श्रीरामजी की वाणी सुनकर लक्ष्मणजी आनन्दित हो गए. बड़ी हानि दूर हो गई और बड़ा लाभ हुआ! वे हर्षित हृदय से माता सुमित्राजी के पास आए, मानो अंधा फिर से नेत्र पा गया हो.
उन्होंने जाकर माता के चरणों में मस्तक नवाया. किन्तु उनका मन रघुकुल को आनन्द देने वाले श्रीरामजी और जानकीजी के साथ था. माता ने उदास मन देखकर उनसे कारण पूछा. लक्ष्मणजी ने सब कथा विस्तार से कह सुनायी. सुमित्राजी कठोर वचनों को सुनकर ऐसी सहम गयीं जैसे हिरनी चारों ओर वन में आग लगी देखकर सहम जाती है. लक्ष्मण ने देखा कि आज अनर्थ हुआ. ये स्नेहवश काम बिगाड़ देंगी! इसलिए वे विदा मांगते हुए डर के मारे सकुचाते हैं और मन-ही-मन सोचते हैं कि हे विधाता! माता साथ जाने को कहेंगी या नहीं. सुमित्राजी ने श्रीरामजी और श्रीसीताजी के रूप, सुन्दर शील और स्वभाव को समझकर और उनपर राजा का प्रेम देखकर अपना सिर धुना और कहा कि पापिनी कैकेयी ने बुरी तरह घात लगाया. परन्तु कुसमय जानकर धैर्य धारण किया और स्वभाव से ही हित चाहने वाली सुमित्राजी कोमल वाणी से बोलीं- हे तात! जानकीजी तुम्हारी माता हैं और सब प्रकार से स्नेह करने वाले श्रीरामचन्द्रजी तुम्हारे पिता हैं! जहां श्रीरामजी का निवास हो वहीं अयोध्या है. जहां सूर्य का प्रकाश हो वहीं दिन है. यदि निश्चय ही सीता-राम वन को जाते हैं तो अयोध्या में तुम्हारा कुछ भी काम नहीं है. गुरु, पिता, माता, भाई, देवता और स्वामी, इन सबकी सेवा प्राण के समान करनी चाहिए.फिर श्रीरामचन्द्रजी तो प्राणों के भी प्रिय हैं, हृदय के भी जीवन हैं और सभी के स्वार्थरहित सखा हैं.
जगत में जहां तक पूजनीय और परम प्रिय लोग हैं, वे सब रामजी के नाते से ही पूजनीय और परम प्रिय मानने योग्य हैं. हृदय में ऐसा जानकर, हे तात! उनके साथ वन जाओ और जगत में जीने का लाभ उठाओ! मैं बलिहारी जाती हूं, हे पुत्र! मेरे समेत तुम बड़े ही सौभाग्य के पात्र हुए, जो तुम्हारे चित्त ने छल छोड़कर श्रीरामजी के चरणों में स्थान प्राप्त किया है. संसार में वही युवती स्त्री पुत्रवती है जिसका पुत्र श्रीरघुनाथजी का भक्त हो. नहीं तो जो राम से विमुख पुत्र से अपना हित जानती है, वह तो बांझ ही अच्छी. पशु की भांति उसका ब्याना (प्रसव करना) व्यर्थ ही है. तुम्हारे ही भाग्य से श्रीरामजी वन को जा रहे हैं. हे तात! दूसरा कोई कारण नहीं है. सम्पूर्ण पुण्यों का सबसे बड़ा फल यही है कि श्रीसीतारामजी के चरणों में स्वाभाविक प्रेम हो. राग, रोष, ईर्ष्या, मद और मोह- इनके वश स्वप्न में भी मत होना. सब प्रकार के विकारों का त्याग कर मन, वचन और कर्म से श्रीसीतारामजी की सेवा करना. तुमको वन में सब प्रकार से आराम है, जिसके साथ श्रीरामजी और सीताजीरूप पिता-माता हैं. हे पुत्र! तुम वही करना जिससे श्रीरामचन्द्रजी वन में क्लेश न पावें, मेरा यही उपदेश है. हे तात! मेरा यही उपदेश है जिससे वन में तुम्हारे कारण श्रीरामजी और सीताजी सुख पावें और पिता, माता, प्रिय परिवार तथा नगर के सुखों की याद भूल जाएं.
माता के चरणों में सिर नवाकर हृदय में डरते हुए कि अब भी कोई विघ्न न आ जाए लक्ष्मणजी तुरंत इस तरह चल दिए जैसे सौभाग्यवश कोई हिरन कठिन फंदे को तुड़ाकर भाग निकला हो. लक्ष्मणजी वहां गए जहां श्रीजानकीनाथजी थे और प्रिय का साथ पाकर मन में बड़े ही प्रसन्न हुए. श्रीरामजी और सीताजी के सुन्दर चरणों की वन्दना करके वे उनके साथ चले और राजभवन में आए. नगर के स्त्री-पुरुष आपस में कह रहे हैं कि विधाता ने खूब बनाकर बात बिगाड़ी! उनके शरीर दुबले, मन दुखी और मुख उदास हो रहे हैं. वे ऐसे व्याकुल हैं जैसे शहद छीन लिए जाने पर शहद की मक्खियां व्याकुल हों. सब हाथ मल रहे हैं और सिर धुनकर पछता रहे हैं. मानो बिना पंख के पक्षी व्याकुल हो रहे हैं. राजद्वार पर बड़ी भीड़ हो रही है. अपार विषाद का वर्णन नहीं किया जा सकता. ‘श्रीरामचन्द्रजी पधारे हैं', ये प्रिय वचन कहकर मन्त्री ने राजा को उठाकर बैठाया. सीता सहित दोनों पुत्रों को वन के लिए तैयार देखकर राजा बहुत व्याकुल हुए. सीता सहित दोनों सुन्दर पुत्रों को देख-देखकर राजा अकुलाते हैं और स्नेहवश बारंबार उन्हें हृदय से लगा लेते हैं. राजा व्याकुल हैं, बोल नहीं सकते. हृदय में शोक से उत्पन्न हुआ भयानक सन्ताप है. तब रघुकुल के वीर श्री रामचन्द्रजी ने अत्यन्त प्रेम से चरणों में सिर नवाकर उठकर विदा मांगी.
हे पिताजी! मुझे आशीर्वाद और आज्ञा दीजिए. हर्ष के समय आप शोक क्यों कर रहे हैं? हे तात! प्रिय के प्रेमवश प्रमाद करने से जगत में यश जाता रहेगा और निंदा होगी. यह सुनकर स्नेहवश राजा ने उठकर श्रीरघुनाथजी की बांह पकड़कर उन्हें बैठा लिया और कहा- हे तात! सुनो, तुम्हारे लिए मुनिलोग कहते हैं कि श्रीराम चराचर के स्वामी हैं और शुभ अनुसार ईश्वर हृदय में विचारकर फल देता है. जो कर्म करता है वही फल पाता है. ऐसी वेद की नीति है, यह सब कोई कहते हैं. किन्तु इस अवसर पर तो इसके विपरीत हो रहा है, अपराध तो कोई और ही करे और उसके फल का भोग कोई और ही पावे. भगवान की लीला बड़ी ही विचित्र है, उसे जानने योग्य जगत में कौन है? राजा ने इस प्रकार श्रीरामचन्द्रजी को रखने के लिए छल छोड़कर बहुत से उपाय किए. पर जब उन्होंने धर्मधुरन्धर, धीर और बुद्धिमान् श्रीरामजी का रुख देख लिया और वे रहते हुए न जान पड़े, तब राजा ने सीताजी को हृदय से लगा लिया और बड़े प्रेम से बहुत प्रकार की शिक्षा दी. वन के दुख कहकर सुनाए. फिर सास, ससुर तथा पिता के पास रहने के सुखों को समझाया, परन्तु सीताजी का मन श्रीरामचन्द्रजी के चरणों में अनुरक्त था. इसलिए उन्हें घर अच्छा नहीं लगा और न वन भयानक लगा. फिर और सब लोगों ने भी वन में विपत्तियों की अधिकता बता-बताकर सीताजी को समझाया.
मन्त्री सुमन्त्रजी की पत्नी और गुरु वसिष्ठजी की स्त्री अरुन्धतीजी तथा और भी चतुर स्त्रियां स्नेह के साथ कोमल वाणी से कहती हैं कि तुमको तो राजा ने वनवास दिया नहीं है. इसलिए जो ससुर, गुरु और सास कहें, तुम तो वही करो. यह शीतल, हितकारी, मधुर और कोमल सीख सुनने पर सीताजी को अच्छी नहीं लगी. वे इस प्रकार व्याकुल हो गईं मानो शरद ऋतु के चन्द्रमा की चांदनी लगते ही चकई व्याकुल हो उठी हो. सीताजी संकोचवश उत्तर नहीं देतीं. इन बातों को सुनकर कैकेयी तमककर उठी. उसने मुनियों के वस्त्र, आभूषण (माला, मेखला आदि) और बर्तन (कमण्डलु आदि) लाकर श्रीरामचन्द्रजी के आगे रख दिए और कोमल वाणी से कहा- हे रघुवीर! राजा को तुम प्राणों के समान प्रिय हो. भीरु (प्रेमवश दुर्बल हृदय के) राजा शील और स्नेह नहीं छोड़ेंगे! पुण्य, सुन्दर यश और परलोक चाहे नष्ट हो जाए, पर तुम्हें वन जाने को वे कभी न कहेंगे. ऐसा विचारकर जो तुम्हें अच्छा लगे वही करो. माता की सीख सुनकर श्रीरामचन्द्रजी ने बड़ा सुख पाया. परन्तु राजा को ये वचन बाण के समान लगे. वे सोचने लगे अब भी अभागे प्राण क्यों नहीं निकलते! राजा मूर्च्छित हो गए, लोग व्याकुल हैं. किसी को कुछ सूझ नहीं पड़ता कि क्या करें. श्रीरामचन्द्रजी तुरंत मुनि का वेष बनाकर और माता-पिता को सिर नवाकर चल दिए.