15 अगस्त शुक्रवार को आने से और शनिवार-रविवार मिलाकर पूरे तीन दिन की छुट्टी मिल जाने पर कहीं घूमने जाना लाजिमी था. एक 11 माह के बच्चे समेत हम सात लोग वैष्णो देवी की ओर निकल पड़े. यात्रा कठिनाई भरी होने वाली है यह अंदाजा तो पहले से था ही लेकिन परेशानी किस-किस रूप में हमारे सामने आएगी यह अनुमान नहीं था. ट्रेन में रिजर्वेशन नहीं मिलने के कारण एसी बस में स्लीपर सीटें रिजर्व करवाई. तीनों ऑटों में सवार होकर लाल किले की ओर बढ़े, जहां से बस मिलनी थी. शाम सात बजे की बस जब नौ बजे तक नहीं आई तो माथा ठनका. पहले से रिजर्वेशन करवा चुके यात्रियों की भीड़ जमा हो चुकी थी और बस का अता-पता नहीं था. आखिरकार हम सभी यात्रियों को ट्रेवलर की दूसरी बसों का रास्ता रोकना पड़ा तब जाकर बस आई. उस खटारा बस (जाहिर है जिसमें एसी खराब था) को पाकर हमने पहली जंग जीत ली.
भीड़ टूट पड़ी
दोपहर दो बजे के आस-पास हम जम्मू पहुंचे. बस के लेट होने में एक अच्छी बात यह रही कि जो नजारे रात के अंधेरे में गुजर जाते, उन्हें हम दिन में देख पाए. पूरा रास्ता हरियाली से पटा पड़ा था. जम्मू से टूर पैकेज ले रखा था. सो बस छोड़ यहां से हम गाड़ी में बैठकर कटरा की ओर बढ़े. जाम से जूझते-जूझते चार-साढ़े चार बजे कटरा के रेलवे रोड स्थित होटल पहुंचे. यहां दूसरी परेशानी हमारे इंतजार में खड़ी थी. होटल में एंट्री करते ही पता चला कि ट्रेवलर ने बुकिंग के बारे में कोई जानकारी होटल में नहीं दे रखी थी.
जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा कारणों के चलते प्री-पेड नंबर नहीं चलते हैं. खुशकिस्मती से हमारे पास तीन पोस्ट पेड नंबर थे. बिलखते बच्चे के साथ होटल में हक्के-बक्के खड़े हम सातों. ट्रेवल एजेंट को फोन लगाकर खूब खरी-खोटी सुनाई. जैसे-तैसे रूम अरेंज किए और फटाफट तैयार होकर, तमाम परेशानियों के बावजूद जोश न खोते हुए हम वैष्णो देवी के दर्शन के लिए निकल पड़े.
ऑनलाइन पर्ची कई दिन पहले ही बनवा ली थी इसलिए हमें कई किलोमीटर लंबी लाइन में नहीं लगना पड़ा. हमारे पास वीआइपी पास थे. वीआईपी पास होने पर गुफा में जाने के लिए आम लोगों की लंबी लाइन में नहीं लगना पड़ता है. माता के वीआईपी दर्शन पाने की सबसे पहली कड़ी थी सीआरपीएफ के ऑफिस जाकर अपना नाम का कंफर्मेशन करवाना. वहां उन्होंने हमारे नाम जांच लिए और आगे बढ़ने को कहा. हम आगे बढ़े तो लगा जैसे दिल्ली के सरोजिनी नगर में हों, जहां शनिवार या रविवार के दिन शॉपिंग के दीवाने टूट पड़ते हैं. यात्रा मार्ग तो अभी शुरू भी नहीं हुआ था और इतनी भीड़!
अनहोनी के इंतजार में
खैर हम जोश से भरे चलते रहे. 11 माह का नन्हा दाऊ मेरी गोद में था. पैदल-पैदल दर्शनी दरवाजे तक पहुंचे. यहां से आधिकारिक यात्रा की शुरूआत होती है. यहां भी भारी भीड़ से सामना हुआ. लेकिन सबसे ज्यादा परेशान करने वाली बात यह थी कि यहां न तो कोई पर्ची जांच रहा था और न ही सामान की स्कैनिंग की जा रही थी. प्रमुख धार्मिक स्थलों पर आतंकी हमलों का भारत हमेशा से गवाह रहा है. और हम तो ऐसे वक्त (15 अगस्त) यहां पहुंचे थे जब पूरा देश हाई अलर्ट पर रहता है. फिर भी इतनी भयावह लापरवाही! यह सोचकर ही किसी की भी रूह कांप जाएगी कि अगर कोई संदिग्ध यहां पहुंच जाए तो? यहां सब राम भरोसे चल रहा है. यहां एक काउंटर पर ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन की पर्ची की जांच करवानी थी. हमने करवाई, नहीं भी करवाते तो चलता. खैर दर्शनी दरवाजे से हम बाणगंगा की ओर बढ़े. पैदल यात्री, पालकी वाले और घोड़े-खच्चर वाले सब के सब एक ही रास्ते पर बढ़ रहे थे. खच्चर वालों और पालकी वालों का अंदाजा ऐसा होता कि बच सको तो बच लो वर्ना हम तो कुचल देंगे. अमरनाथ का ट्रैक वैष्णोदेवी के मुकाबले काफी संकरा है लेकिन वहां सब व्यवस्थित है. पैदल यात्री अपनी लाइन में चलते हैं और खच्चर अपनी. कोई एक दूसरे का रास्ता नहीं काटता है.
बिछुड़ गए
बादल घिरने लगे, बिजली का कड़कना इससे पहले इतना डरावना कभी नहीं लगा. भीड़ इतनी थी कि हम सबका एक साथ चलना मुमकिन नहीं था. इसी वजह से हमारे ग्रुप की सबसे वरिष्ठ महिला सदस्य गुम हो गईं. हम काफी आगे निकल आए थे. तय हुआ कि कुछ लोग पीछे जाकर उन्हें ढूंढेंगे और कुछ लोग आगे जाकर. सारी कोशिशें कर ली लेकिन वे नहीं मिलीं. थकहार कर हम बाणगंगा के आगे चरण पादुका मंदिर पहुंचे. सोचा था कि हो सकता है कि वे यहां बैठी हमारी राह देख रही हों. लेकिन यहां भी निराशा ही हाथ लगी. थोड़ा आगे बढ़े ही थे कि नन्हे दाऊ की तबियत खराब हो गई. अधर में फंस हम तय नहीं कर पा रहे थे कि गुम सदस्य को खोजें या बेटे को लेकर लौट जाएं. आखिरकार मैं अपने मम्मी-पापा और बेटे को लेकर लौटने लगी और बाकी के तीन लोग आगे बढ़ गए.
लौटते में बारिश शुरू हो गई तो हम और तेजी से और खच्चरों से बचते हुए नीचे उतरने लगे. हमारे दर्शनी दरवाजे तक पहुंचते ही भारी बारिश शुरू हो गई. मैं बहुत डरी हुई थी. किसी आशंका से मन घबरा रहा था. तभी मैंने सीआरपीएफ के एक जवान से अनुरोध किया कि मुझे अपने बाकी के परिवार को वापस बुलाना है, क्या आप मुझे अपना फोन दे सकते हैं? उसने सहर्ष अपना मोबाइल मेरे हाथ में दे दिया. फोन लगाया लेकिन कोई भी वापस आने को तैयार नहीं हुआ क्योंकि परिवार की गुमशुदा सदस्य उन्हें अब तक नहीं मिली थी.
जान बची तो लाखों पाए
ताजा स्थिति: तीन वयस्क और बच्चा लौटे, एक गुमशुदा थीं और तीन आगे बढ़े. अब लक्ष्य बदल चुका था. अब दर्शन करना प्राथमिकता नहीं थी, गुमशुदा को खोजना पहले जरूरी था. हम ऑटो से होटल आ गए. उनका फोन आया, वे लोग अर्धकुमारी से थोड़ा ही दूर थे. तभी वहां भारी बारिश हो गई. सभी लोग एक टीन टप्पर के नीचे पनाह लिए हुए थे. कम जगह में जरूरत से ज्यादा लोग, साथ में घोड़े भी पालकी भी और हैरान-परेशान बच्चे भी. ऐसा लग रहा था जैसे सिर के ठीक ऊपर बादल फट गया हो. बादल और बरसात का तांडव हो रहा था. खुशकिस्मती ही थी कि गुमशुदा सदस्य भी वहीं मिल गईं. कोई आगे बढ़ने की सोचता इससे पहले ही वहां भगदड़ मच गई. लोग एक दूसरे को रौंद रहे थे. बच्चे चीख रहे थे. घोड़े बुरी तरह से सिर हिला रहे थे. जैसे तैसे जान बचाकर चारों लोग नीचे उतरे.
आखिरकार हम सभी सुरक्षित लेकिन डरे हुए होटल में साथ थे. हमारे लिए यही काफी था. अलगे दिन पटनीटॉप जाने का इरादा भी त्याग दिया क्योंकि तेज बारिश हो रही थी और ऐसी स्थिति में इस इलाके में भारी जाम लग जाता है. शाम छह बजे बस थी, उसे छोड़ने का जोखिम नहीं ले सकते थे.
आखिरी जंग अभी बची थी. बस वाले को फोन लगाया लेकिन वह अनरीचेबल था. बस ऑपरेटर का पता खोजते-खोजते उसके ऑॅफिस पहुंचे. उसने लगभग धमकाने वाले अंदाज में कहा कि अगर पौने पांच बजे तक बस पर नहीं आओगे तो स्लिपर की जगह सीट दे दूंगा. दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंककर पीता है. हम समय पर पहुंच गए लेकिन उसने जो कहा था वही किया. स्लिपर की जगह सीटें देने की बात कही. दरअसल यहां के सारे बस वाले ऑॅनलाइन बुकिंग करवाने वालों से बुरी तरह चिढ़े हैं. टिकट ऑनलाइन बुक हो जाने से उनकी जो अतिरिक्त काली कमाई होती थी, उसमें कमी आ गई है. जैसे तैसे लड़-झगड़कर अपनी स्लिपर सीटें हमनें उससे वापस ले लीं. अगले दिन घर लौटे तो बस यही लगा, 'लौट के बुद्धू घर को आए.’