भोले भंडारी संकटों से उबारते हैं, मुश्किल घड़ी में राह दिखाते हैं. तभी तो भक्त क्या देवता भी अपने कष्टों के निवारण के लिए भोले भंडारी की शरण में जाते हैं. शिव का ऐसा ही एक धाम है बैजनाथ धाम. कांगड़ा के बैजनाथ धाम में महादेव के सबसे बड़े भक्त ने अपनी भक्ति की परीक्षा दी थी. अपने दस सिरों की बलि देकर रावण ने लिख दी भक्ति और आस्था की नई कहानी, लेकिन रावण से एक भूल हो गई.
हिमाचल की खूबसूरत और हरी-भरी वादियों में धौलाधार पर्वत श्रृंखलाओं के बीच बसा प्राचीन शिव मंदिर महादेव के सबसे बड़े भक्त की भक्ति की कहानी सुनता है. यहीं पर स्थापित है वो शिवलिंग, जो देखने में तो किसी भी आम शिवलिंग की तरह है. लेकिन इसका स्पर्श भक्तों को अनूठा एहसास देता है. इस शिवलिंग की आराधना भक्तों में असीम शक्ति भर देती है क्योंकि ये रावण का वो शिवलिंग है, जिसकी वो पूजा करता था. किवदंतियों की मानें तो रावण इसी शिवलिंग को अपने साथ लंका ले जाना चाहता था.
हिमाचल के कांगड़ा से 54 किमी और धर्मशाला से 56 किमी की दूरी पर बिनवा नदी के किनारे बसा है बैजनाथ धाम. जो अपने चारों ओर मौजूद प्राकृतिक सुंदरता की वजह से एक विशिष्ट स्थान रखता है. कहते हैं 12वीं शताब्दी में मन्युक और आहुक नाम के दो व्यापारियों ने इस मंदिर का निर्माण करवाया था उसके बाद राजा संसार चंद मे इस मंदिर का जीर्णोंद्धार करवाया.
पौराणिक मान्यता के अनुसार त्रेता युग में रावण ने शिवजी की तपस्या की थी. कठोर तप के बाद भी जब महादेव प्रसन्न नहीं हुए तो अंत में रावण ने एक-एक कर अपने सिर काटकर हवन कुंड में आहुति देकर भगवान शिव को अर्पित करना शुरू कर दिया. दसवां और अंतिम सिर कट जाने से पहले शिवजी ने प्रकट होकर रावण का हाथ पकड़ लिया और एक वैद्य की तरह ही रावण के सभी सिरों को पुन:स्थापित कर दिया.
रावण की तपस्या से प्रसन्न होकर शिव जी ने उसे वरदान मांगने को कहा. रावण ने कहा मैं आपके शिवलिंग स्वरूप को लंका में स्थापित करना चाहता हूं. शिवजी ने तथास्तु कहा और अंतर्ध्यान हो गए. अंतर्ध्यान होने से पहले शिवजी ने अपने शिवलिंग स्वरूप दो चिन्ह रावण को देने से पहले कहा था कि इन्हें जमीन पर मत रखना. जब रावण लंका को चला तो रास्ते में गौकर्ण क्षेत्र में पहुंचा तो रावण को लघुशंका लगी. उसने बैजु नाम के ग्वाले को सब बात समझाकर शिवलिंग पकडा दिए और शंका निवारण के लिए चला गया. शिवजी की माया के कारण बैजु उन शिवलिंगों के वजन को ज्यादा देर न सह सका और उन्हें धरती पर रख कर अपने पशु चराने चला गया. इस तरह दोनों शिवलिंग वहीं स्थापित हो गए. जिस मंजूषा में रावण के दोनों शिवलिंग रखे थे उस मंजूषा के सामने जो शिवलिंग था वह चन्द्रभाल के नाम से प्रसिद्ध हुआ और जो पीठ की ओर था वह बैजनाथ के नाम से जाना गया.
रावण की इस तपस्थली में शिव के प्रति उसकी भक्ति के सम्मान स्वरूप आज भी दशहरा के महापर्व पर रावण दहन की प्रथा नहीं है बल्कि यहां भगवान के साथ उनका परम भक्त पूजा जाता है. नागरा शैली में बना बैजनाथ मंदिर शिल्पकारी का उत्कृष्ट नमूना है. मंदिर में प्रवेश के 4 द्वार धर्म, अर्थ, कर्म व मोक्ष को दर्शाते हैं और कहते हैं जो भी श्रद्धालु धर्म के रास्ते मंदिर में प्रवेश कर अर्थ और कर्म द्वार को पार करता है वो निश्चित ही मोक्ष को प्राप्त करता है.
बैजनाथ मंदिर परिसर में मुख्य मंदिर के अलावा कई और भी छोटे-छोटे मंदिर हैं, जिसमें भगवान गणेश, मां दुर्गा, राधा-कृष्ण व भैरव बाबा की प्रतिमाएं विराजमान हैं. कहते है कि बैजनाथ धाम में भगवान शिव की पूजा तब तक पूरी नहीं होती जब तक भक्त राधा-कृष्ण मंदिर में अपना शीश न झुका लें. माघ कृष्ण चतुर्दशी को यहां विशाल मेला लगता है जिसे तारा रात्रि के नाम से जाना जाता है. इसके अलावा महाशिवरात्रि और सावन के महीने में शिवभक्तों की भारी भीड उमड़ती है. देश के कोने-कोने से शिवभक्तों के साथ विदेशी पर्यटक भी यहां आते हैं और मंदिर की सुंदरता को देखकर भाव विभोर हो जाते हैं.