देवों के देव हैं महादेव. हर दुख को खुद पर लेकर भक्तों को भयमुक्त करने वाले हैं भोले. पहले तो उन्होंने समुद्र मंथन में निकले विष को पीकर देवताओं को बचाया और नीलकंठ कहलाए, फिर उन्होंने उज्जैन में ब्रह्रा को राह दिखाने के लिए न सिर्फ अपने नेत्र से काल भरैव को प्रकट किया बल्कि भक्तों की बुराईयों को अपने अंदर समाने के लिए खुद मदिरा का पान करने लगे. वो भी साक्षात, सबके सामने. यकीन नहीं होता तो यहां आपको बताते हैं उज्जैन के काल भैरव की महिमा के बारे में...
फूल नहीं, फल नहीं, मदिरा से प्रसन्न होते हैं भैरव
मृत्यु के स्वामी, संहार के देवता और कालों के काल महाकाल की नगरी उज्जैन. महाकाल की इस नगरी के पांव पखारती पवित्र शिप्रा नदी जिसे मोक्षदायिनी शिप्रा भी कहते हैं. धर्म ग्रथों के मुताबिक उज्जैन जीवन और मौत के चक्र को खत्म कर भक्तों को मोक्ष देता है और जहां के कण-कण में महाकाल यानि शिव का वास है. शिव की इसी नगरी में बसा है एक ऐसा मंदिर जहां स्वयं काल भैरव देते हैं साक्षात दर्शन.
भक्तों के लिए भक्ति, आस्था और आराधना की वो मंजिल जहां सुबह शाम बजने वाली घंटों की ध्वनि निरंतर किसी चमत्कारी शक्ति का आभास करवाती है. जहां दूर-दूर से भक्त मुश्किलों की परवाह किए बगैर चले आते हैं क्योंकि उन्हें तो बस इंतजार होता है भगवान के साक्षात् स्वरूप से मिलने का और यहां होने वाले मदिरा पान के चमत्कार के साक्षी बनने का.
उज्जैन के भैरवगढ़ क्षेत्र में स्थापित इस मंदिर में शिव अपने भैरव स्वरूप में विराजते हैं. यूं तो भगवान शिव का भैरव स्वरूप रौद्र और तमोगुण प्रधान रूप है. मगर कालभैरव अपने भक्त की करूण पुकार सुनकर उसकी मदद के लिए दौड़े चले आते हैं. काल भैरव के इस मंदिर में मुख्य रूप से मदिरा का ही प्रसाद चढ़ता है. मंदिर के पुजारी भक्तों के द्वारा चढ़ाए गए प्रसाद को एक तश्तरी में उड़ेल कर भगवान के मुख से लगा देते हैं और देखते-देखते ही भक्तों की आंखों के सामने घटता है वो चमत्कार जिसे देखकर भी यकीन करना एक बार को मुश्किल हो जाता है. क्योंकि मदिरा से भरी हुई तश्तरी पलभर में खाली हो जाती है.
इसके अलावा जब भी किसी भक्त को मुकदमे में विजय हासिल होती है तो बाबा के दरबार में आकर मावे के लड्डू का प्रसाद चढ़ाते हैं तो वहीं जिन भक्तों की सूनी गोद भर जाती है वो यहां बाबा को बेसन के लड्डू और चूरमे का भोग लगाते हैं. प्रसाद चाहे कोई भी क्यों न हो बाबा के दरबार में आने वाले हर भक्त सवाली होता है और बाबा काल भैरव अपने आशीर्वाद से उसके कष्टों को हरने वाले देवता.
बाबा काल भैरव के इस धाम एक और बड़ी दिलचस्प चीज है जो भक्तों का ध्यान बरबस अपनी ओर खींचती है और वो है मंदिर परिसर में मौजूद ये दीपस्तंभ. श्रद्धालुओं द्वारा दीपस्तंभ की इन दीपमालिकाओं को प्रज्जवलित करने से सभी मनोकामनाऐं पूरी होती हैं. भक्तों द्वारा शीघ्र विवाह के लिए भी दीपस्तंभ का पूजन किया जाता है. जिनकी भी मनोकामना पूरी होती है वे दीपस्तंभ के दीप जरूर रोशन करवाते हैं. इसके अलावा मंदिर के अंदर भक्त अपनी मनोकामना के अनुसार दीए जलाते हैं जहां एक तरफ शत्रु बाधा से मुक्ति व अच्छे स्वास्थ्य के लिए सरसों के तेल का दीया जलाने की पंरपरा है तो वहीं अपने मान-प्रतिष्ठा में वृद्धि की इच्छा करने वाले चमेली के तेल का दीया जलाते हैं.
काल भैरव के इस मंदिर में दिन में दो बार आरती होती है एक सुबह साढ़े आठ बजे आरती की जाती है. दूसरी आरती रात में साढ़े आठ बजे की जाती है. महाकाल की नगरी होने से भगवान काल भैरव को उज्जैन नगर का सेनापति भी कहा जाता है. कालभैरव के शत्रु नाश मनोकामना को लेकर कहा जाता है कि यहां मराठा काल में महादजी सिंधिया ने युद्ध में विजय के लिए भगवान को अपनी पगड़ी अर्पित की थी. पानीपत के युद्ध में मराठों की पराजय के बाद तत्कालीन शासक महादजी सिंधिया ने राज्य की पुर्नस्थापना के लिए भगवान के सामने पगड़ी रख दी थी. उन्होंने भगवान से प्रार्थना की कि युद्ध में विजयी होने के बाद वे मंदिर का जीर्णोद्धार करेंगे. कालभैरव की कृपा से महादजी सिंधिया युद्धों में विजय हासिल करते चले गए. इसके बाद उन्होंने मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया. तब से मराठा सरदारों की पगड़ी भगवान कालभैरव के शीश पर पहनाई जाती है.
कालभैरव का चमत्कार जितना हैरान करने वाला है उतनी ही दिलचस्प उनके उज्जैन में बसने की कहानी भी है. यहां साल भर भारी तादाद में श्रद्धालु आते हैं लेकिन रविवार की पूजा का यहां विशेष महत्व होता है.
बाबा काल भैरव के भक्तों के लिए उज्जैन का भैरो मंदिर किसी धाम से कम नहीं. सदियों पुराने इस मंदिर के बारे में कहा जाता है कि इसके दर्शन के बिना महाकाल की पूजा भी अधूरी मानी जाती है. अघोरी जहां अपने इष्टदेव की आराधना के लिए साल भर कालाष्टमी का इंतज़ार करते हैं वहीं आम भक्त भी इस दिन उनके आगे शीश नवां कर आशीर्वाद पाना नहीं भूलते.
उज्जैन, जिसे कोई कहता है मंदिरों का शहर, कोई महाकाल की नगरी तो कोई कालभैरव के भक्तों का धाम. ये शहर कई विशेषताएं अपने में समेटे हुए है, यहां के कण कण में बसते हैं महादेव, लेकिन कालभैरव मंदिर के बिना शहर माना जाता है अधूरा.
शहर से आठ किलोमीटर दूर कालभैरव के इस मंदिर के बारे में कहा जाता है कि अगर कोई उज्जैन आकर महाकाल के दर्शन करे और कालभैरव न आए तो उसे महाकाल के दर्शन का आधा लाभ ही मिलता है. धार्मिक मान्यता के मुताबिक, कालभैरव को ये वरदान है कि भगवान शिव की पूजा से पहले उनकी पूजा होगी.
इस मंदिर की कहानी बड़ी दिलचस्प है. स्कंद पुराण के मुताबिक चारों वेदों के रचियता ब्रह्मा ने जब पांचवे वेद की रचना करने का फैसला किया तो परेशान देवता उन्हें रोकने के लिए महादेव की शरण में गए. उनका मानना था कि सृष्टि के लिए पांचवे वेद की रचना ठीक नहीं है. लेकिन ब्रह्मा जी ने महादेव की भी बात नहीं मानी. कहते हैं इस बात पर शिव क्रोधित हो गए. गुस्से के कारण उनके तीसरे नेत्र से एक ज्वाला प्रकट हुई. इस ज्योति ने कालभैरव का रौद्ररूप धारण किया, और ब्रह्माजी के पांचवे सिर को धड़ से अलग कर दिया. कालभैरव ने ब्रह्माजी का घमंड तो दूर कर दिया लेकिन उन पर ब्रह्महत्या का दोष लग गया. इस दोष से मुक्ति पाने के लिए भैरव दर दर भटके लेकिन उन्हें मुक्ति नहीं मिली. फिर उन्होंने अपने आराध्य शिव की आराधना की. शिव ने उन्हें शिप्रा नदी में स्नान कर तपस्या करने को कहा. ऐसा करने पर कालभैरव को दोष से मुक्ति मिली और वो सदा के लिए उज्जैन में ही विराजमान हो गए.
वैसे तो काल भैरव के इस मंदिर में पैर रखते ही मन में एक अजीब सी शांति का एहसास होता है, लगता है मानो सारे दुख दूर हो गए लेकिन कालभैरव को ग्रहों की बाधाएं दूर करने के लिए जाना जाता है. खास तौर पर जन्म कुंडली में राहु से पीड़ित होने वाला व्यक्ति विचारों के जाल में फंसा रहता है. वो अगर इस मंदिर में आकर भगवान को भोग लगाता है तो उसे सभी कष्टों से मुक्ति मिल जाती है. बिल्कुल वैसे ही जैसे कालभैरव को शिव की आराधना से मिली थी.
भैरव जिनके बारे में कहा जाता है कि वो सिर्फ मदिरा के प्रसाद से ही प्रसन्न होते हैं, वो भैरव जिनके दरबार में दी जाती है बलि, लेकिन आज जिन बाबा भैरव के आप दर्शन कर रहे हैं, वो सबसे अलग हैं क्योंकि यहां भैरव करते हैं दूध का पान
दूध की धार दिलाती है भैरव का आशीर्वाद. भैरव जिनके बारे में कहा जाता है कि वो सिर्फ मदिरा के प्रसाद से ही प्रसन्न होते हैं, वो भैरव जिनके दरबार में दी जाती है बलि, लेकिन आज जिन बाबा भैरव के आप दर्शन कर रहे हैं, वो सबसे अलग हैं.
बाबा के दरबार में हर रोज़ इसी तरह से आरती की जाती हैं और फिर लगाया जाता है उन्हें दूध का भोग. दूध चढ़ाने की वजह से यहां भैरव को दूधिया भैरव के नाम से भी पुकारा जाता है.
बाबा को दूध चढ़ाने की परंपरा द्वापर युग से शुरु हुई. कहते हैं महाभारत युद्ध के समय कुंती ने यहां आकर पूजा की और प्रसाद के रुप में दूध चढ़ा कर बाबा से दूध की लाज रखने की गुहार लगाई थी. भैरव नाथ ने भी कुंती को निराश नहीं किया, और दे दिया पांडवों को विजय का वरदान. कहते हैं तभी से यहां बाबा को पूरी तरह से शाकाहारी प्रसाद ही चढ़ाया जाता है.
दिल्ली में पुराने किले के पास मौजूद दूधिया भैरव मंदिर में भक्त पहले बाबा की पूजा करते हैं और फिर मांगते हैं अपनी मुराद. कहते हैं कोई भी काम करने से पहले अगर यहां पूजा कर ली जाए तो काम में सफलता अवश्य मिलती है. भैरवनाथ संतानहीनों के जीवन में खुशियों के नए रंग भी भर देते हैं जिन्हें संतान नहीं होती, उनकी गोद हरी हो जाती है और गर्भवती महिलाओं को स्वस्थ संतान का आशीर्वाद मिलता है.
हर रविवार यहां आकर भक्त भैरो बाबा का आशीर्वाद लेना नहीं भूलते. जितना अद्भुत होता है पूजा का नजारा उतना ही अनोखी होत है उसके बाद की विधि. पूजा के बाद भैरों बाबा के चढ़ाए दूध को पिलाया जाता है कौओं को. मांसाहारी कौए दूध पीते दिखते हैं. कहते हैं ऐसा करने से भक्तों की पूजा पूरी हो जाती है.