मगध राज्य में एक समय में महाराज नंद का शासन था. उन्होंने एक यज्ञ का आयोजन किया. इस यज्ञ में चाणक्य भी पहुंचे और दरबार के एक आसन पर जाकर बैठ गए. उन्हें आसन पर बैठा देख महाराज नंद ने उनका अपमान किया और वहां से बाहर जाने को कहा. इस पर चाणक्य ने कहा कि मनुष्य अपने गुणों से ऊपर होता है, ऊंचे आसन पर बैठने से नहीं. हालांकि, चाणक्य को महाराज की बात इतनी बुरी लगी कि उन्होंने अपनी नीतियों के बल पर नंद को सत्ता से हटाकर न केवल अपमान का बदला लिया बल्कि एक साधारण से बालक चंद्रगुप्त को भारत का सम्राट बना डाला. अपने नीति शास्त्र यानी चाणक्य नीति में भी उन्होंने अपमान का जवाब देने और दुश्मन को आसानी से परास्त करने का तरीका बताया है. आइए जानते हैं इस तरीके के बारे में...
अनुलोमेन बलिनं प्रतिलोमेन दुर्जनम्।
आत्मतुल्यबलं शत्रु: विनयेन बलेन वा।।
चाणक्य नीति के इस श्लोक में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि मनुष्य को अपने शत्रु के बारे में पता होना बहुत जरूरी है. क्योंकि शत्रु कमजोर है या बलशाली इसका पता होने पर ही उसके खिलाफ नीति बनाई जा सकती है.
चाणक्य कहते हैं कि अगर दुश्मन आपसे ज्यादा शक्तिशाली है तो उसे हराने के लिए व्यक्ति को उसके अनुकूल आचरण करना चाहिए. वहीं, अगर दुश्मन का स्वभाव दुष्ट है वो छल करने वाला है तो उसे हराने के लिए उसके विरूद्ध यानी उसके विपरीत आचरण करना चाहिए.
साथ ही चाणक्य कहते हैं कि दुश्मन अगर आपके बराबर का है तो उसे विनय पूर्वक या बल से मात देना चाहिए. वो कहते हैं कि हथियार से वार करने से पहले उसे अपने नीतियों को जाल में फंसाना चाहिए, ताकि वो चाहकर भी निकल न सके.
अपमान को लेकर चाणक्य कहते हैं कि मनुष्य का अपमानित होने पर चुप रहना चाहिए और अपमान करने वाले की तरफ देखकर मुस्करा देना चाहिए. वो बताते हैं कि मौन सबसे बड़ा हथियार होता है. मौन की स्थिति में सामने वाले को आपकी स्थिति के बारे में पता नहीं चल पाता.
नंद महाराज द्वारा अपमानित होने पर भी चाणक्य उग्र नहीं हुए और मौन साधकर काम जारी रखा और नंद को गद्दी से बेदखल कर दिया.