छठ, मंतर-जंतर और पंडित जी के पोथी का परब नहीं है. अगर संबंध खोजने पर आएं और इस बात पर आमादा हो जाएं कि छठ का धार्मिक पहलू भी है तो अलग बात है. लेकिन छठ धर्म से ज्यादा लोक का त्योहार है. छठ के असल मंत्र समूह में गाए जाने वाले गीत होते हैं. छठ का असली पुराण समाज और सामाजिकता की भावना है.
छठ को लेकर कई पौराणिक कहानियां कही-बताई जाती हैं. जैसे ये, ‘कृष्ण के बेटे शाम्ब को अपने शरीर-बल पर बड़ा अभिमान था. कठोर तप से कृशकाय ऋषि दुर्वासा कृष्ण से मिलने पहुंचे, तो शाम्ब को हंसी आई कि देह है या कांटा. तो शाम्ब को ऋषिमुख से श्राप मिला- जा, तेरे शरीर को कुष्ठ खाये.
शाम्ब को रोग लगा, दवा काम न आयी, तो किसी ने सूर्याराधन की बात बतायी. शाम्ब रोगमुक्त हुआ और तभी से काया को निरोगी रखने के लिए सूर्यपूजा मतलब छठपूजा की रीत चली.’
इस बारे में एक दूसरी कथा भी है. लंका-विजय और वनवास के दिन बिता कर राम जिस दिन अयोध्या लौटे उस दिन अयोध्या नगरी में दीये जले, पटाखे फूटे, दीवाली हुई. वापसी के छठवें दिन यानी कार्तिक शुक्ल षष्ठी को रामराज की स्थापना हुई. राम और सीता ने उपवास किया, सूर्य की पूजा की, सप्तमी को विधिपूर्वक पारण करके सबका आशीर्वाद लिया और तभी से रामराज स्थापना का यह पर्व छठ अस्तित्व में आया.
लेकिन सच्चाई यही है कि ये त्योहार जो समूचे बिहार और उत्तर प्रदेश के कई हिस्सों में मनाया जाता है वो पंडित जी की 'पोथी' से नहीं, पंडिताइन के 'अंचरा’ से जुड़ा है. कर्मकांड से नहीं, बल्कि महेंदर मिसिर के गानों से ज्यादा जुड़ा है जिसमें न जाने कब से एक सुग्गा केले के घौंद पर मंडरा रहा है.
छठ हर जाति-समुदाय के लोग मनाते हैं. उगते और डूबते सूरज को पानी में खड़े होकर अर्घ्य दिया जाता है. डाला में घर में तैयार किए गए पकवान और इस मौसम में उपलब्ध फल चढ़ाए जाते हैं. ये सौ आना प्रकृति की पूजा-आराधना है.
खरना के दिन गेहूं की रोटी पर चावल की खीर का प्रसाद और इसके अगले दो दिन नदी, तालाब में खड़े होकर शाम और सुबह के वक्त सूरज की आराधना. हर काम खुद से करना. जैसे प्रसाद के लिए पकवान बनाना. पूजा के लिए नदी के घाट को बनाना. निपना और उसे सजाना.
तीन साल पहले सीएसडीएस के एसोसिएट फेलो और वरिष्ठ पत्रकार चंदन श्रीवास्तव ने छठ पर कुछ लिखा था. मैं उन्हीं की चार पंक्तियों के साथ इस रिपोर्ट को खत्म कर रहा हूं. वो लिखते हैं, 'छठ पूरब के उजाड़ को थाम लेने का पर्व है, छठ चंदवा तानने और उस चंदवे के भीतर परिवार के चिरागों को नेह के आंचल की छाया देने का पर्व है. छठ ‘शहर कलकत्ता’ बसे बहंगीदार को गांव के घाट पर खींच लाने का पर्व है. छठ में आकाश का सूरज बहुत कम-कम है, मिट्टी का दीया बहुत ज्यादा-ज्यादा!'