मन्नतों की छठ आ गई है. इस दिन को मां षष्ठी और सूर्य की आराधना के दिन के रूप में भी मनाते हैं. यह पर्व उगते सूर्य के साथ ही डूबते सूर्य की पूजा कर उनसे वरदान पाने का है. इस दिन सूरज की किरणों से घाट-घाट पर अमृत बिखर जाएगा. हर अर्घ्य के साथ दुख कटता चला जाएगा और पूरी आपकी सभी कामनाएं हो जाएंगी.
छठ यानी आराधना का, मन्नतें मांगने का और भगवान की दी नेमतों का शुक्रिया अदा करने का दिन होता है. सूर्य की उपासना और माता षष्टी की भक्ति करने का ये इकलौता ऐसा पर्व है जिसमें न केवल उगते सूरज बल्कि डूबते सूरज की भी उपासना की जाती है.
बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के इस सबसे बड़े पर्व की तैयारी भक्त दिवाली के बाद से ही करना शुरू कर देते हैं. ऐसा जरूरी भी है, कहते हैं इस पूजा में हुई एक छोटी सी चूक उनकी पूरी मेहनत पर पानी फेर देती है. ऐसे में भक्त अपनी तरफ से देवी को खुश करने में कोई कसर नहीं छोड़ते.
कार्तिक शुक्ल की छठी के दिन आने वाला ये पर्व चार दिन का होता है. पहले दिन यानी चतुर्थी को आत्म शुद्धि के लिए भक्त केवल अरवा खाते हैं यानी शुद्ध आहार लेते हैं. इसके बाद पंचमी को भक्त स्नान के बाद पूजा पाठ करते हैं. उसके बाद शाम को गुड़ और नए चावल की खील बनाकर फल और मिठाइयों से छठी माता की पूजा करते हैं. इसके बाद कुंवारी कन्याओं और ब्राह्मणों को खाना खिलाकर भक्त इस खील को प्रसाद के तौर पर ग्रहण करते हैं.
इसके बाद आता है सबसे अहम दिन यानी षष्टी, जिस दिन सूर्य की आराधना होती है. इस दिन भक्त पूरे दिन उपवास रखते हैं. मां की पूजा के लिए हर तरह के पकवान बनाकर और सात तरह के फल बांस के डालों में भरकर नदी या तालाब के किनारे जाते हैं. यहां गन्ने का घर बनाकर दिया जलाते हैं और डूबते सूरज को अर्घ्य देते हैँ. ये अर्घ्य कमर तक पानी में खड़े होकर दिया जाता है. सूरज ढ़लने के बाद भक्त घर आते हैं और फिर जागरण होता है. सप्तमी के दिन ब्रह्म मूहूर्त में लोग फिर से नदी या तालाब के तट पर इकट्ठे होते हैं और फिर उगते हुए सूरज को अर्घ्य दिया जाता है.
भक्त अंकुरित चने हाथ में लेकर षष्ठी व्रत की कथा कहते और सुनते हैं. कथा के बाद प्रसाद वितरण किया जाता है और फिर सभी अपने-अपने घर लौट आते हैं. व्रत करने वाले इस दिन परायण करते हैं. छठ को मन्नतों का पर्व भी कहा जाता है. इसके महत्व का इसी बात से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि इसमें किसी गलती के लिए कोई जगह नहीं होती. इसलिए शुद्धता और सफाई के साथ तन और मन से भी इस पर्व में जबरदस्त शुद्धता का ख्याल रखा जाता है. इस त्योहार को जितने मन से महिलाएं रखती हैं पुरुष भी पूरे जोशो-खरोश से इस त्योहार को मनाते हैं औऱ व्रत रखते हैं.
सूर्य उपासना और छठी मैया की पूजा के लिए चार दिनों तक चलने वाले इस महापर्व का इतिहास भी बहुत पुराना है. पुराणों में ऐसी कई कथाएं हैं जिसमें मां षष्ठी संग सूर्यदेव की पूजा की बात रही गयी है, फिर चाहे वो त्रेतायुग में भगवान राम हों या फिर सूर्य के समान पुत्र कर्ण की माता कुंती. छठ पूजा को लेकर परंपरा में कई कहानियां प्रचलित हैं.
राम की सूर्यपूजा
कहते हैं सूर्य और षष्ठि मां की उपासना का ये पर्व त्रेता युग में शुरू हुआ था. भगवान राम जब लंका पर विजय प्राप्त कर रावण का वध करके अयोध्या लौटे तो उन्होंने कार्तिक शुक्ल की षष्ठि को सूर्यदेव की उपासना की और उनसे आशीर्वाद मांगा. जब खुद भगवान सूर्यदेव की उपासना करें तो भला उनकी प्रजा कैसे पीछे रह सकती थी. राम को देखकर सबने षष्ठी का व्रत रखना और पूजा करना शुरू कर दिया. कहते हैं उसी दिन से भक्त षष्टी यानी छठ का पर्व मनाते हैं.
राजा प्रियव्रत की कथा
छठ पूजा से जुड़ी एक और मान्यता है, वो ये कि एक बार एक राजा प्रियव्रत और उनकी पत्नी ने संतान प्राप्ति के लिए पुत्रयेष्टि यज्ञ कराया. लेकिन उनकी संतान पैदा होते ही इस दुनिया को छोड़कर चली गई. संतान की मौत से दुखी प्रियव्रत आत्महत्या करने चले गए तो षष्टी देवी ने प्रकट होकर उन्हें कहा कि अगर तुम मेरी पूजा करो तो तुम्हें संतान की प्राप्ति होगी. राजा ने षष्टी देवी की पूजा की जिससे उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई. कहते हैं इसके बाद से ही छठ पूजा की जाती है.
कुंती कर्ण कथा
कहते हैं कि कुंती जब कुंवारी थीं तब उन्होंने ऋषि दुर्वासा के वरदान का सत्य जानने के लिए सूर्य का आह्वान किया और पुत्र की इच्छा जताई. कुंवारी कुंती को सूर्य ने कर्ण जैसा पराक्रमी और दानवीर पुत्र दिया. एक मान्यता ये भी है कि कर्ण की तरह ही पराक्रमी पुत्र के लिए सूर्य की आराधना का नाम है छठ पर्व.
व्रत की शुरुआत नहाय-खाय से होती है. पूजन सामग्री किसी कारण से जूठी न हो, इस कारण पूजन सामग्री को रखने के लिए घरों की सफाई की जाती है. अगर पूजन सामग्री जूठी या अपवित्र हो जाए तो पर्व खंडित हो जाता है और इसे अशुभ माना जाता है. नहाय-खाय के दिन से ही व्रतधारी जमीन पर सोते हैं. घर में सभी के लिए सात्विक भोजन बनता है. दूसरे दिन पूरे दिन व्रत कर चंद्रमा निकलने के बाद व्रतधारी गुड़ की खीर का प्रसाद खाते हैं. इसी दिन कद्दू की सब्जी विशेषतौर पर खायी जाती है. स्थानीय बोलचाल में इसे कद्दू-भात कहते हैं. कद्दू-भात के साथ ही व्रतधारियों का 36 घंटे का अखंड व्रत शुरू हो जाता है. इस दौरान व्रतधारी अन्न और जल ग्रहण नहीं करते हैं. तीसरे दिन व्रतधारी अस्त होते हुए सूर्य को नदी व तालाब में खड़े होकर अर्ध्य देते हैं. चौथे दिन सुबह उगते सूर्य को कंद-मूल व गाय के दूध से अर्घ्य देने के साथ ही यह व्रत सम्पन्न होता है. व्रतधारी व्रत समाप्त होने के बाद सबसे पहले प्रसाद के रूप ठेकुआ खाते हैं और उसके बाद अन्न ग्रहण करते हैं.
सूर्य उपासना का महापर्व छठ मुख्य रूप से पति और पुत्र की लंबी उम्र के साथ-साथ सुख-समृद्धि के लिए किया जाता है. इस पर्व में सूर्य की आराधना की जाती है. छठ पूजा के नियम इतने कड़े हैं कि इस व्रत को करने से पहले तन-मन से महिलाओं को शुद्ध होना पड़ता है और घर की तमाम चीजों की साफ-सफाई की जाती है. जो लोग छठ पूजा की सामग्री खरीदने में असमर्थ होते हैं वे दूसरों से दान लेकर पूजन सामग्री खरीदते हैं.
विभिन्न प्रदेशों और यहां तक कि दूसरे देशों में रहने वाले लोग भी हर्षोल्लास से इस पर्व को मनाते हैं. अब यह पर्व धीरे-धीरे दूसरे राज्यों में भी लोकप्रिय हो रहा है, लेकिन चाहे कोई भी जगह हो भक्त छठ पूजा के नियमों का पालन करना नहीं भूलते.