उत्तराखंड को देवभूमि भी कहा जाता है. यहां हर गली-कूचे में मंदिरों की भरमार है. हिन्दू धर्म के अनुसार 33 करोड़ देवी-देवता हैं, लेकिन उत्तराखंड में यह संख्या इससे भी कहीं ज्यादा हो जाती है, क्योंकि यहां भूमियां देवता से लेकर ग्वेल देवता, ग्राम देवता और कुल देवताओं की भी मान्यता है. ये वो जमीन है, जहां महाभारत के 'खलनायक' दुर्योधन और दानवीर कर्ण को भी पूजा जाता है.
जी हां, उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले में दुर्योधन और कर्ण के मंदिर हैं. दुर्योधन का मंदिर यहां के नेतवार नामक जगह से करीब 12 किमी दूर ‘हर की दून’ रोड पर स्थित सौर गांव में है. देहरादून से करीब 95 किमी दूर चकराता और चकराता से करीब 69 किमी दूर नेतवार गांव है. जबकि कर्ण मंदिर नेतवार से करीब डेढ़ मील दूर सारनौल गांव में है.
सारनौल और सौर गांव की यह भूमि भुब्रूवाहन नाम के एक महान योद्धा की धरती है. मान्यता है कि पाताललोक का राजा भुब्रूवाहन द्वापरयुग में कौरवों और पांडवों के बीच महाभारत युद्ध का हिस्सा बनना चाहता था. मन में यही चाहत लिए वह धरती पर आया, लेकिन भगवान कृष्ण ने बड़ी ही चालाकी से उसे युद्ध से दूर कर दिया. भुब्रूवाहन कौरवों की तरफ से युद्ध में शामिल होना चाहता था और कृष्ण को अंदेशा था कि भुब्रूवाहन अर्जुन को चुनौती दे सकता है. इसलिए उन्होंने भुब्रूवाहन को एक चुनौती दी.
कृष्ण ने भुब्रूवाहन को एक ही तीर से एक पेड़ के सभी पत्तों को छेदने की चुनौती दी, इस बीच कृष्ण ने एक पत्ता तोड़कर अपने पैर के नीचे दबा लिया. भुब्रूवाहन का तीर पेड़ पर मौजूद सभी पत्तों को छेदने के बाद कृष्ण के पैर की तरफ बढ़ रहा था, तभी उन्होंने अपना पैर हटा लिया. कृष्ण किसी भी तरह भुब्रूवाहन को युद्ध से दूर रखना चाहते थे और उन्होंने उसे निष्पक्ष रहने को कहा. निष्पक्ष रहने का अर्थ युद्ध से दूर रहना था और महाभारत के युद्ध से दूर रहना किसी भी योद्धा को मंजूर नहीं होता, इसलिए कृष्ण ने भुब्रूवाहन से पार पाने का रास्ता निकाल लिया. उन्होंने किसी तरह भुब्रूवाहन का सिर उसके धड़ से अलग कर दिया.
उत्तराखंड सरकार की वेबसाइट से लिया गया कर्ण के मंदिर का स्कैच
हालांकि कृष्ण ने युद्ध शुरू होने से पहले ही भुब्रूवाहन का सिर धड़ से अलग कर दिया, लेकिन उसने युद्ध देखने की इच्छा जाहिर की और भगवान कृष्ण ने उसकी इच्छा पूरी की. उन्होंने भुब्रूवाहन के सिर को यहां एक पेड़ पर टांग दिया और उसने यहीं से महाभारत का पूरा युद्ध देखा. स्थानीय लोगों का कहना है कि जब-जब भी महाभारत के युद्ध में कौरवों की रणनीति विफल होती, जब-जब भी उन्हें हार का मुंह देखना पड़ता, तब भुब्रूवाहन जोर-जोर से चिल्लाकर उनसे रणनीति बदलने के लिए कहता था. वो रोता था और आज भी रो रहा है.
मान्यता तो ये भी है कि भुब्रूवाहन के इन्हीं आंसूओं से यहां तमस या टोंस नाम की नदी बनी है. यही कारण है कि आज भी इस नदी का पानी कोई नहीं पीता. दुर्योधन और कर्ण दोनों भुब्रूवाहन के बड़े प्रशंसक थे. यहां के स्थानीय लोग अब भी उसकी वीरता को सलाम करते हैं और उसकी प्रशंसा में गीत गाए जाते हैं. यहां के लोगों ने भुब्रूवाहन के मित्र कर्ण और दुर्योधन के मंदिर बनाए हैं. दुर्योधन का मंदिर सौर गांव में, जबकि कर्ण का मंदिर सारनौल गांव में हे. यही नहीं ये दोनों इस इलाके के क्षेत्रपाल भी बन गए.