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बलूचिस्तान के हिंगलाज मंदिर की कहानी... जिस 'नानी पीर' की सुरक्षा करते हैं बलोच, दुर्गा चालीसा में भी जिक्र

बलूचिस्तान प्रांत में स्थित माता सती के 51 शक्तिपीठों में से एक हिंगलाज भवानी स्थल की देखरेख वहां के स्थानीय मुसलमान करते हैं. वे इसे बेहद चमत्कारिक स्थान मानते हैं. सुरम्य पहाड़ियों की तलहटी में स्थित यह गुफा मंदिर इतने बड़े क्षेत्र में है कि श्रद्धालु दंग रह जाते हैं. वैसे तो यह मंदिर आदिकाल से है. लेकिन इतिहास के ज्ञात स्रोतों के मुताबिक यह मंदिर 2000 वर्ष पहले भी यहीं स्थित था.

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पाकिस्तान के बलूचिस्तान में मौजूद है हिंगलाज भवानी मंदिर
पाकिस्तान के बलूचिस्तान में मौजूद है हिंगलाज भवानी मंदिर

पाकिस्तान के बलूचिस्तान में 11 मार्च को BLA ने एक ट्रेन को हाईजैक कर यात्रियों को बंधक बना लिया, जिनको छुड़ाने के लिए संघर्ष अभी तक जारी है. पाकिस्तान में बलूचिस्तान हमेशा से बफर जोन वाला हिस्सा रहा है, और PAK सरकार के साथ हमेशा से इसका संघर्ष रहा है. वैसे  बलूचिस्तान प्रांत का जितना जुड़ाव पाकिस्तान से है, उतना ही यह हिस्सा भारतीयों के लिए भी महत्वपूर्ण रहा है. धार्मिक नजरिए से देखें तो बलूचिस्तान में ही 51 शक्तिपीठों में से एक महत्वपूर्ण शक्ति स्थल मौजूद है, जो हिंगलाज भवानी के नाम से मशहूर है. कहा जाता है हिंगोल नदी के तट पर स्थित ये शक्तिपीठ सतयुग के समय से है जिसे देवी आदिशक्ति के कई अवतारों और स्वरूपों में से एक माना जाता है.

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हिंगलाज भवानी की तीर्थयात्रा
सनातन परंपरा में शक्तिपीठों को आदिशक्ति देवी दुर्गा का साक्षात स्वरूप माना जाता है. इस शक्तिपीठ के बारे में मान्यता है कि, यहां की यात्रा चार धाम की यात्रा जितनी ही फलदायी है. जिस तरह जीवन में एक बार प्रयाग के संगम में स्नान, गंगा सागर में तर्पण और चारधामों के दर्शन जरूरी हैं, उसी तरह हिंगलाज भवानी के दर्शन भी तीर्थयात्रा में शामिल हैं. बंटवारे से पहले तक शक्तिपीठों की तीर्थयात्रा की एक परंपरा भी थी, जिसे कनफड़ योगी जरूर निभाते थे और यह उनसे होकर सामान्य लोगों के बीच भी प्रचलित थी. हालांकि कनफड़ योगी अभी भी शक्तिपीठ यात्रा परंपरा का निर्वहन कर रहे हैं और शाक्त मत के अनुयायी-श्रद्धालुओं के लिए यह स्थल सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है, लेकिन बंटवारे के बाद हिंगलाज भवानी के तीर्थयात्रियों की संख्या में कमी आई, हालांकि अभी भी कई श्रद्धालु यहां दर्शन के लिए पहुंचते हैं.  

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दुर्गा चालीसा में होता है जिक्र
हिंगलाज देवी का जिक्र दुर्गा चालीसा में भी होता है. इसमें देवी दुर्गा का एक नाम हिंगलाज भवानी बताया गया है और कहा गया है कि उनकी महिमा का बखान नहीं किया जा सकता है. 

हिंगलाज में तुम्हीं भवानी, महिमा अमित न जात बखानी

हिंगलाज शब्द, सुहाग की रक्षा करने वाली देवी के तौर पर आया होगा.  हिंगुल शब्द का अर्थ सिंदूर से भी होता है. ऐसे में सिंदूर की लाज बचाने वाली देवी हिंगलाज भवानी हैं.

हिंगलाज भवानी

क्या है पौराणिक कथा?
सतयुग में जब भगवान शिव की पत्नी देवी सती ने दक्ष यज्ञ में खुद को नष्ट कर लिया, तब क्रोधित शिव सती की मृत देह को लेकर तीनों लोकों का भ्रमण करने लगे. शिव के क्रोध को शांत करने के लिए और उन्हें इस दुख से उबारने के लिए भगवान विष्णु ने सती के शरीर को चक्र से काट दिया और सती के शरीर के अलग-अलग अंग जिन 51 स्थलों पर गिरे, वह शक्तिपीठ कहलाए. केश गिरने से महाकाली, नैन गिरने से नैना देवी, सहारनपुर के पास शिवालिक पर्वत पर शीश गिरने से शाकम्भरी आदि शक्तिपीठ बन गए. सती माता के शव के सिर का पिछला हिस्सा (ब्रह्मरंध्र) हिंगोल नदी के तट पर चंद्रकूप पर्वत पर गिरा और यहां हिंगलाज भवानी की स्थापना हुई. संस्कृत में हिंगुला शब्द सिंदूर के लिए भी प्रयोग होता है, इस तरह माता की मान्यता सुहागिन महिलाओं में भी बहुत है.

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बालोची करते हैं देखभाल
बलूचिस्तान प्रांत में स्थित माता सती के 51 शक्तिपीठों में से एक हिंगलाज भवानी स्थल की देखरेख वहां के स्थानीय बलोच लोग करते हैं. वे इसे बेहद चमत्कारिक स्थान मानते हैं. सुरम्य पहाड़ियों की तलहटी में स्थित यह गुफा मंदिर इतने बड़े क्षेत्र में है कि श्रद्धालु दंग रह जाते हैं. वैसे तो यह मंदिर आदिकाल से है. लेकिन इतिहास के ज्ञात स्रोतों के मुताबिक यह मंदिर 2000 वर्ष पहले भी यहीं स्थित था. शक्तिपीठ में देवी की मौजूदगी पिंडी स्वरूप में, एक शिला पर देवी का स्वरूप उभरा हुआ है, जिसके दर्शन करने के लिए श्रद्धालु पहुंचते हैं.

नवरात्रि के दौरान तो यहां पूरे नौ दिनों तक शक्ति की उपासना का विशेष आयोजन होता है. सिंध-कराची के हजारों सिंधी हिन्दू श्रद्धालु यहां माता के दर्शन को आते हैं. भारत से भी प्रतिवर्ष एक दल यहां दर्शन के लिए जाता है.

माता हिंगलाज का दर्शन हिंदुओं के लिए क्यों जरूरी?

प्राचीन ग्रंथों के मुताबिक एक सनातनी हिंदू चाहे चारों धाम की यात्रा क्यों ना कर ले, काशी के गंगाजल में स्नान भी क्यों ना कर ले, अयोध्या में दर्शन कर ले. लेकिन अगर वह हिंगलाज देवी के दर्शन नहीं करता तो उसका जीवन व्यर्थ हो जाता है. स्थानीय परंपरा के मुताबिक जो स्त्रियां जो इस स्थान का दर्शन कर लेती हैं उन्हें हाजियानी कहते हैं. उन्हें हर धार्मिक स्थान पर सम्मान के साथ देखा जाता है.

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हिंगलाज भवानी

अंगारों पर चलने की परंपरा  

मान्यताओं के अनुसार एक बार यहां माता ने प्रकट होकर वरदान दिया कि जो भक्त मेरा चुल चलेगा उसकी हर मनोकामना पुरी होगी. चुल एक प्रकार का अंगारों का बाड़ा होता है जिसे मंदिर के बाहर 10 फिट लंबा बनाया जाता है और उसे धधकते हुए अंगारों से भरा जाता है. इन्हीं अंगारों पर चलकर मन्नतधारी मंदिर में पहुचते हैं. ये माता का चमत्कार ही है कि किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचता है और उसकी मन्नत जरूर पूरी होती है. हालांकि पिछले कुछ सालों से इस परंपरा पर रोक लगी हुई है.

इस मंदिर से जुड़ी एक और मान्यता है. कहा जाता है कि हर रात इस स्थान पर ब्रह्मांड की सभी शक्तियां एकत्रित होकर रास रचाती हैं और दिन निकलते हिंगलाज माता के भीतर समा जाती हैं.

आदिकाल से हिंगलाज भवानी के दर्शन की परंपरा रही है.  मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम भी यात्रा के लिए इस सिद्ध पीठ पर आए थे. हिंदू धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान परशुराम के पिता महर्षि जमदग्रि ने यहां घोर तप किया था. उनके नाम पर आश्रम नाम का स्थान अब भी यहां मौजूद है. उल्लेख मिलता है कि इस प्रसिद्ध मंदिर में माता की पूजा करने को गुरु गोरखनाथ, गुरु नानक देव, दादा मखान जैसे महान आध्यात्मिक संत आ चुके हैं.

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खुली गुफा में है मंदिर
हिंगलाज माता का मंदिर ऊंची पहाड़ी पर बनी एक गुफा में है. यहां  माता का विग्रह रूप विराजमान है. मंदिर में कोई दरवाजा नहीं.  मंदिर की परिक्रमा के लिए तीर्थयात्री गुफा के एक रास्ते से दाखिल होकर दूसरी ओर निकल जाते हैं. मंदिर के साथ ही गुरु गोरखनाथ का चश्मा है.  मान्यता है कि माता हिंगलाज देवी यहां स्नान करने आती हैं.

यहां के रक्षक के रूप में भगवान भोलेनाथ भीमलोचन भैरव रूप में स्थापित हैं. माता हिंगलाज मंदिर परिसर में श्रीगणेश, कालिका माता की प्रतिमा के अलावा ब्रह्मकुंड और तीरकुंड आदि प्रसिद्ध तीर्थ हैं. इस आदि शक्ति स्थल की पूजा में स्थानीय बलोच बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते हैं.

हिंगलाज भवानी

हिंगलाज माता को बलोच लोग कहते हैं 'नानी पीर'

जब पाकिस्तान का जन्म नहीं हुआ था. उस समय भारत की पश्चिमी सीमा अफगानिस्तान और ईरान से जुड़ती थी. उस समय से बलूचिस्तान के मुसलमान हिंगलाज देवी को मानते आ रहे हैं. यहां बलोच लोग देवी को 'नानी' कहते हैं और 'नानी पीर' कहते हुए लाल कपड़ा, अगरबत्ती, मोमबत्ती, इत्र और सिरनी चढ़ाते हैं. इस मंदिर पर आक्रांताओं ने कई हमले किए लेकिन स्थानीय हिन्दू और बलोच लोगों ने इस मंदिर को बचाया.  

यात्रा का मार्ग है बेहद दुर्गम

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हिंगलाज सिद्ध पीठ की यात्रा के लिए दो मार्ग हैं. एक पहाड़ों के रास्ते दूसरा मरूस्थल से होकर. हिंगलाज के दर्शन के लिए यात्रियों का जत्था कराची से चल कर लसबेल पहुंचता है और फिर लयारी. कराची से छह-सात मील चलकर "हाव" नदी पड़ती है. यहीं से हिंगलाज तीर्थ की यात्रा शुरू होती है. यहीं संकल्प लेकर लौटने तक की अवधि के लिए संन्यास ग्रहण किया जाता है. इस स्थान पर छड़ी का पूजन होता है और यहीं पर रात में विश्राम करके सुबह हिंगलाज भवानी की जय के साथ मरुतीर्थ की यात्रा शुरू हो जाती है.

रास्ते में कई बरसाती नाले और कुएं भी मिलते हैं. इस इलाके की सबसे बड़ी नदी हिंगोल है जिसके पास ही चंद्रकूप पहाड़ है. चंद्रकूप और हिंगोल नदी के बीच करीब 15 मील का फासला है. मन्नत पूरी होने पर हिंगोल में यात्री, अपने सिर के बाल मुंडवा कर पूजा करते हैं और यज्ञोपवीत पहनते हैं. मंदिर की यात्रा के लिए यहां से पैदल या छोटी गाड़ियों से यात्रा करनी पड़ती है. क्योंकि इससे आगे कोई सड़क नहीं है.

आगे आसापुरा नाम से एक जगह आती है, इससे थोड़ा आगे ही काली माता का मंदिर है. इस मंदिर में आराधना करने के बाद यात्री हिंगलाज माता के दर्शन के लिए रवाना होते हैं. पहाड़ी चढ़ाई के बाद वह उस स्थल पर पहुंचते हैं, जहां मीठे पानी के तीन कुएं हैं. इन कूपों के जल स्नान और आचमन किया जाता है. यहीं से आगे देवी हिंगलाज का पवित्र स्थल है, जहां शिला रूप में देवी के दर्शन होते हैं.

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