झारखण्ड में प्रत्येक 12 वर्षों के अंतराल पर मनाया जाने वाला पर्व जनी शिकार इनदिनों सूबे के आदिवासी बहुल शहरी और ग्रामीण क्षेत्रो में जोर शोर से जारी है. एक सफ्ताह
तक चलनेवाले इस पर्व की खासियत यह है कि इसमें सिर्फ महिलाएं और युवतियां शामिल होती हैं, जो पुरुष वेश धारण किये रहती हैं.
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इनके हाथों में परंपरागत हथियार जैसे गुलेल, कुल्हाड़ी, डंडे, तीर-धनुष होते है. ये राह में दिखाई देने वाले किसी भी पालतू या जंगली जानवरो, पक्षियों का शिकार करती है. ये अनोखा रिवाज झारखंड के उरांव आदिवासी समुदाय में मनाया जाता है. इस परंपरा को जनी शिकार कहा जाता है.
मान्यता है कि इससे बुरी आत्माएं दूर भाग जाती हैं
ग्रामीण आदिवासी क्षेत्रों में मान्यता है कि जनी शिकार के बाद गांव से बुरी आत्माओं का साया दूर चला जाता है. इससे उनके परिजन बीमार दुखी नहीं होते. इस दौरान
महिलाएं जींस-शर्ट पहनकर जंगल व सड़कों पर उतरती हैं और बकरा-बकरी, मुर्गे-मुर्गियों समेत कई जानवरों का शिकार करके लौटती हैं. दिनभर के शिकार के बाद शाम को इन्हें
पकाया जाता है और रात में इसे खाकर जश्न मनाया जाता है.
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इसे मनाने की प्राचीन परंपरा है
इस पर्व को कब से मनाया जा रहा है इसके बारे में कोई निश्चित जानकारी उपलब्ध नहीं है. लेकिन किंवदंतियों की माने तो मुग़ल शासन काल के दौरान जब मुग़ल सेना
रोहतासगढ़ की और कूच कर रही थी इसी दौरान उनकी नजर इन उरांव जनजाति पर पड़ी. इन पर कब्ज़ा जमाने के लिए उन्होंने आदिवासियों पर हमला कर दिया. उस समय गांव के
पुरुष सरहुल पर्व मन रहे थे. ऐसे में उराव स्त्रियों ने रोहतासगढ़ बचाने के लिए मोर्चा संभालते हुए मुग़ल सेना से लोहा लिया और उन्हें पीछे हटने पर मजबूर कर दिया. ऐसा उन्होंने
12 वर्षों तक लगातार किया. हालांकि बाद में उन्हें हार माननी पड़ी. इसी की याद में इसे हर 12 वर्षों में मनाया जाता है.
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समय के साथ आया है बदलाव
हालांकि बदलते समय के साथ इसमें काफी बदलाव आ गया है. पहले इसे जंगलों में मनाया जाता था, लेकिन अब जनी शिकार में शामिल महिलाएं शहर की गलियों में विचरने
वाले पालतू घरेलु जानवरों का शिकार भी कर लेती हैं, जिससे काफी स्तिथि असहज हो जाती है. वहीँ वन कानून के तहत अब जंगलों में शिकार की मनाही है. बाबजूद इसके
कभी-कभार हिरणों का भी शिकार कर लिया जाता है.