बेहतर लिखने की बात हो, या बोलने की, आखिरकार भाषा ही हमारे काम आती है. भाषा को संवारने के लिए जरूरी है कि हमारे शब्द-भंडार ठीक-ठाक हों. इस लिहाज से देखें, तो ‘रामचरितमानस’ एकदम बेजोड़ साहित्य है.
तुलसीदासजी की इस रचना को अगर हम धर्म, नैतिकता, मर्यादा, कथा- इन सभी से अलग रखकर देखें, फिर भी यह हिंदी सुधारने और संवारने के लिए एकदम सटीक रचना है. किसी तरफ से एकाध पेज पढ़कर भी आप ‘बाबा’ के भाषा ज्ञान से लाभ उठा सकते हैं. इस बात को एक उदाहरण से अच्छी तरह समझा जा सकता है.
मान लें, किसी बच्चे ने अपना होमवर्क पूरा करने के लिए आपसे ‘समुद्र’ के लिए कुछ पयार्यवाची शब्द (समान अर्थ रखने वाले शब्द) पूछ डाले, तो आप उसे क्या-क्या बताएंगे और उसे यह किस तरह रटाएंगे? अगर आप थोड़ा वक्त निकालकर मानस के पन्ने उलट-पलट करते रहेंगे, तो शब्दों की कमी कभी पास नहीं फटकेगी.
लंकाकांड के सिर्फ एक दोहे में ही समुद्र के एक नहीं, दो नहीं, पांच नहीं, सात नहीं, पूरे दस-दस पर्यायवाची शब्द दिए गए हैं. चूंकि ये गेय (गाने योग्य) हैं, इसलिए इन्हें याद रखना भी बेहद आसान है. देखिए वह चौपाई:
'बांध्यो बननिधि नीरनिधि जलधि सिंधु बारीस।
सत्य तोयनिधि कंपति उदधि पयोधि नदीस।।'
लंकापति रावण को जब यह खबर मिली कि समुद्र पर पुल बना दिया गया है, तो उसके अचरज का ठिकाना नहीं रहा. इसी आश्चर्य में वह अपने दसों मुंह से कहने लगा कि क्या समुद्र को सचमुच बांध लिया गया है? ऊपर के दोहे में ‘बांध्यो’ और ‘सत्य’ को छोड़कर बाकी सभी शब्द समुद्र के लिए ही आए हैं. इस तरह अब आपके पास समुद्र के लिए हैं इतने सारे शब्द:
वननिधि, नीरनिधि, जलधि, सिंधु, वारीश, तोयनिधि, कंपति, उदधि, पयोधि, नदीश.
यह तो सिर्फ एक उदाहरण है. ज्यों-ज्यों आप इसमें गोते लगाते जाएंगे, थोड़ा और गहराई में उतरने का आपका उत्साह दिनोंदिन बढ़ता जाएगा. इस ग्रंथ का पूरा लाभ उठाने के लिए जरूरी है कि आप इसका वह संस्करण अपने पास रखें, जिसमें भावार्थ दिए गए हों.