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इसके पाठ से प्रसन्न होकर कृपा करते हैं हनुमानजी...

जीवन में कई बार इंसान खुद को विपरीत परिस्थ‍ितियों के बीच घि‍रा पाता है. मुसीबतों से पार पाने का कोई रास्ता दिखाई नहीं देता. जब सारे उपाय नाकाम हो जाते हैं, तो हारकर प्रभु की शरण में आता है.

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शरण में आए भक्तों की सुध लेते हैं हनुमानजी
शरण में आए भक्तों की सुध लेते हैं हनुमानजी

जीवन में कई बार इंसान खुद को विपरीत परिस्थ‍ितियों के बीच घि‍रा पाता है. मुसीबतों से पार पाने का कोई रास्ता दिखाई नहीं देता. जब सारे उपाय नाकाम हो जाते हैं, तो हारकर प्रभु की शरण में आता है.

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प्रभु भी अपनी शरण में आए हुए को कभी निराश नहीं करते. जिस तरह मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम दीनों पर दया करने वाले, कृपा के सागर हैं, उसी तरह उनके भक्त हनुमान भी शरण में आए भक्तों पर अपना स्नेह दिखलाते हैं. संकटों से उबारने की वजह से ही तो उन्हें 'संकटमोचन' नाम मिला है.

वैसे तो बजरंगबली को प्रसन्न करने के लिए हनुमानचालीसा, हनुमानाष्टक आदि का पाठ किया जाता है. लोग पूरे सुंदरकांड का भी पाठ करते हैं. पर रामचरितमानस के किष्किंधाकांड के एक खास अंश का पाठ करने से भी वे भक्तों पर असीम प्रेम बरसाते हैं.

यह वही प्रसंग है, जब सीता माता की खोज में समुद्र के पार लंका भेजे जाने के लिए जामवंत हनुमानजी को उनके असीम-अपार बल का स्मरण कराते हैं. इसके पाठ से बड़ी से बड़ी बाधाएं दूर होती हैं और सभी मनोरथ सिद्ध होते हैं...

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अंगद कहइ जाउं मैं पारा। जियं संसय कछु फिरती बारा॥
जामवंत कह तुम्ह सब लायक। पठइअ किमि सबही कर नायक॥
कहइ रीछपति सुनु हनुमाना। का चुप साधि रहेहु बलवाना॥
पवन तनय बल पवन समाना। बुधि‍ बिबेक बिग्यान निधाना॥
कवन सो काज कठिन जग माहीं। जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं॥
राम काज लगि तव अवतारा। सुनतहिं भयउ पर्बताकारा॥

कनक बरन तन तेज बिराजा। मानहुं अपर गिरिन्ह कर राजा ॥
सिंहनाद करि बारहिं बारा। लीलहिं नाघउं जलनिधि खारा॥
सहित सहाय रावनहि मारी। आनउं इहां त्रिकूट उपारी॥
जामवंत मैं पूंछउं तोही। उचित सिखावनु दीजहु मोही॥
एतना करहु तात तुम्ह जाई। सीतहि देखि कहहु सुधि आई॥
तब निज भुज बल राजिवनैना। कौतुक लागि संग कपि सेना॥

छंद:
कपि सेन संग संघारि निसिचर रामु सीतहि आनिहैं।
त्रैलोक पावन सुजसु सुर मुनि नारदादि बखानिहैं॥
जो सुनत गावत कहत समुझत परम पद नर पवाई।
रघुबीर पद पाथोज मधुकर दास तुलसी गावई॥

दोहा:
भव भेषज रघुनाथ जसु सुनहिं जे नर अरु नारि।
तिन्ह कर सकल मनोरथ सिद्ध करहिं त्रिसिरारी॥

सोरठा:
नीलोत्पल तन स्याम काम कोटि सोभा अधिक।
सुनिअ तासु गुन ग्राम जासु नाम अघ खग बधिक॥

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