कहते हैं एक चुप्पी 100 झूठ से बेहतर है. कई बार यह चुप्पी तमाम जवाबों से भी अच्छी होती है, क्योंकि कई बार हम जवाब देकर ऐसी स्थिति में उलझ जाते हैं, जहां जवाब देने की कोई जरूरत नहीं होती है, लेकिन इसका अहसास बाद में होता है. हमारे द्वारा दिए गए हर गैरजरूरी जवाब बेवजह की बहस को आगे बढ़ाने का जरिया बनते हैं जो कि मानसिक तनाव का बड़ा कारण है.
भारतीय शास्त्रीय परंपरा में बातचीत और सवाल-जवाब जो तर्क पर आधारित होते थे, वह भी ज्ञान की प्राप्ति का बड़ा जरिया रहे हैं. इन्हें शास्त्रार्थ कहा गया. सनातन परंपरा में आदि शंकराचार्य और मंडन मिश्र का शास्त्रार्थ बहुत प्रसिद्ध है. तो वहीं कालिदास और राजकुमारी विद्योत्तमा का मौन शास्त्रार्थ भी बहुत रोचक घटनाक्रम रहा है. पौराणिक काल में राजा जनक के दरबार में ऋषि याज्ञवल्क्य और विदुषी गार्गी के बीच हुए शास्त्रार्थ की अपनी अलग जगह है.
इटली के मौन शास्त्रार्थ की लोककथा
जिस तरह के मौन शास्त्रार्थ की कहानी कालिदास की रही है, वैसी ही एक कहानी इटली की लोककथा में भी शामिल है, जहां ऐसे ही एक सिरफिरे ने यहूदियों की जान और जमीन बचाई थी. कहते हैं कि, 'कई शताब्दियों पहले इटली में पोप ने यह आदेश दिया कि सभी यहूदी कैथोलिक में बन जाएं या इटली छोड़ दें. यह सुनकर यहूदी बहुत परेशान और नाराज हुए. ऐसे में पोप ने उन्हें समझौते की पेशकश करते हुए शास्त्रार्थ के लिए आमंत्रित किया. उन्होंने कहा कि अगर यहूदी जीत जाते हैं तो वे इटली में रह सकते थे, और यदि पोप जीत जाता तो यहूदियों को कैथोलिक बनना पड़ेगा या इटली छोड़ना पड़ेगा.
यहूदियों को शास्त्रार्थ के लिए मानना पड़ा
यहूदियों के सामने कोई विकल्प नहीं था. उन्होंने शास्त्रार्थ के लिए उपयुक्त व्यक्ति के नाम पर विचार किया लेकिन कोई इसके लिए आगे नहीं आया. विद्वान पोप के साथ शास्त्रार्थ करना आसान न था. फिर यहूदी ये सोचने लगे कि अगर कोई बुद्धिमान व्यक्ति गया तब तो शास्त्रार्थ हार या जीत में बदलेगा, लेकिन अगर कोई मूर्ख जाए तो शायद ये बेनतीजा हो जाए और फिर हमें सही कदम उठाने के लिए थोड़ा और वक्त मिल जाए.
लोगों ने मोइशे को बनाया अपना प्रतिनिधि
ऐसे में सबके ध्यान में एक व्यक्ति आया मोइशे. ये हमेशा ही दूसरों की जगह पर काम करने के लिए तैयार हो जाता था. अधेड़ और गरीब था, इसलिए उसके खोने के लिए कुछ न था इसलिए वह तैयार हो गया. उसने सिर्फ एक शर्त रखी कि शास्त्रार्थ केवल संकेतों के माध्यम से हो क्योंकि वह साफ-सफाई का काम करने का नाते बातें करने का आदी नहीं था. पोप इसके लिए राजी हो गया.
शास्त्रार्थ के दिन पोप और मोइशे आमने-सामने बैठे. पोप ने अपना हाथ उठाकर तीन उंगलियां दिखाईं. मोइशे ने अपने उत्तर में हाथ उठाकर एक उंगली दिखाई. फिर पोप ने अपने सिर के चारों ओर उंगली घुमाई. इसके जवाब में मोइशे ने उंगली से जमीन की ओर इशारा किया. पोप ने गोश्त की प्लेट और शराब का कप उठाया. यह देखकर मोइशे ने एक सेब निकाल कर दिखाया.
यह देखकर पोप अपनी गद्दी से उतर गया और उसने स्वयं को पराजित घोषित करके कहा कि मोइशे वाकई बहुत ज्ञानी है. अब यहूदी इटली में आराम से रह सकते थे.
पोप आखिर कैसे हार गया?
बाद में कार्डिनल पादरियों के साथ बैठक में उन्होंने पोप से पूछा कि शास्त्रार्थ में क्या घटा. पोप ने कहा, ‘पहले मैंने तीन उंगलियों से पवित्र त्रिमूर्ति की ओर इशारा किया. मोइशे ने इसके उत्तर में एक उंगली उठाकर बताया कि हमारी आस्था के केंद्र में मात्र एक ही ईश्वर है. फिर मैंने अपने सिर के चारों ओर उंगली घुमाकर बताया कि ईश्वर हमारे चारों ओर है. मोइशे ने जमीन की ओर इशारा करके कहा कि ईश्वर हमारे साथ यहां इसी क्षण मौजूद है. मैंने गोश्त की प्लेट और मदिरा का कप दिखाकर बताया कि परमेश्वर सारे पापों से हमारा उद्धार करता है, और मोइशे ने सेब दिखाकर सबसे पुराने उस पाप की याद दिला दी, जो शैतान के कहने से आदम और हेवा ने सेब खाकर किया था. इसके लिए ईश्वर ने मना किया था, लेकिन फिर भी उन्होंने सेब खाए. सबसे पहले हुए इस पाप से मुक्ति संभव नहीं है. इस तरह उसने हर सवाल पर मुझे मात दी और मैं शास्त्रार्थ जारी नहीं रख सका.
मोइशे शास्त्रार्थ में कैसे जीत गया?
उसी दौरान यहूदी समुदाय में लोग उस मौजी मोइशे से यह पूछने लगे कि, वह शास्त्रार्थ में कैसे जीत गया. मोइशे बोला- ‘मुझे खुद नहीं पता,’ ‘पहले उसने मुझे बताया कि हमें तीन दिनों में इटली छोड़ना होगा. इसके जवाब मे मैंने कहा कि एक भी यहूदी इटली छोड़कर नहीं जाएगा. फिर उसने इशारे से कहा कि पूरा इटली यहूदियों से खाली करवा लेगा, इसके जबाव में मैंने जमीन की ओर इशारा करके कहा कि हम यहीं रहेंगे और टस-से-मस नहीं होंगे.’
‘फिर क्या हुआ?’, एक औरत ने पूछा.
मोइशे ने कहा, ‘होना क्या था!’, ‘उसने अपना भोजन दिखाया और मैंने अपना खाना निकाल लिया.’ यह सुनकर सब खिलखिला पड़े. यहूदियों को इटली नहीं छोड़ना पड़ा.
महर्षि याज्ञवल्क्य और विदुषी गार्गी की कहानी
मौन शास्त्रार्थ की बात होती है तो राजा जनक का दरबार याद आता है और याद आती है गार्गी और ऋषि याज्ञवल्क्य के बीच हुई ब्रह्मांड के विषयों पर बहस. हुआ यूं की राजा जनक ने एक सहस्त्र (एक हजार सोने की गायें) स्वर्ण गायें बनवाईं और उनके साथ ही उनकी बछिया भी बनवाई, फिर कहा कि देश में जो भी ब्रह्नज्ञानी हो वह खुद को सिद्ध करे और इन गायों को हांक ले जाएं. चमत्कार ये था कि जो भी शास्त्रार्थ में ब्रह्मज्ञानी सिद्ध होता, उसके एक आदेश पर ये गऊएं उसके पीछे चल पड़ेंगी.
गार्गी ने रोका ऋषि याज्ञवल्क्य का रास्ता
ऋषि याज्ञवल्क्य उठे और शिष्यों को आदेश दिया का गायों को हांक ले चलो. सारा ऋषि समाज मौन रहा, लेकिन उसी समाज में गर्ग गोत्र की विदुषी कन्या गार्गी बैठी थीं. उससे यह सहन नहीं हुआ. वह परम विद्वान थी. उसे वेद और वेदांत का ज्ञान अपने पिता से मिला था. उसी ज्ञान के आधार पर उसने ऋषि का रास्ता रोका और प्रश्न उछाला कि आप किस स्थान पर खड़े हैं. कहां टिके हैं.
गार्गी ने किया शास्त्रार्थ
ऋषि को भरोसा न हुआ कि उनसे प्रश्न पूछा गया है. उन्होंने बिना बोले ही अपने पैरों की ओर इशारा किया, यहां. गार्गी ने फिर से प्रश्न किया. यह क्या? उसने हाथों को घुमाते हुए पूछा. याज्ञव्ल्क्य समझ गए कि यह अब शास्त्रार्थ की चुनौती है मौन होकर काम नहीं चलेगा. उन्होंने कहा, धरती पर. याज्ञव्ल्क्य के उत्तर देते ही प्रहर घंटी जल में डुबो दी गई. यह एक तरह का यंत्र था, जिससे समय नापा जाता था. एक परात में जल भरा होता था, उसमें एक छेद वाला लोटा डाल देते थे. वह लोटा जब पानी से भरकर डूब जाता था तो उस समय को एक प्रहर माना जाता था.
अब याज्ञवल्क्य और गार्गी के बीच शास्त्रार्थ शुरू हुआ. गार्गी ने पूछा- धरती कहां है? उत्तर आया- जल में,
गार्गीः जल किसमें घुल जाता है. उत्तरः वायु में
गार्गीः वायु कहां है?
याज्ञवल्क्य- आकाश में
गार्गी- आकाश कहां है?
याज्ञवल्क्य- गन्धर्वलोक में
गार्गी- गन्धर्वलोक कहां है?
इस तरह गार्गी के एक ही जैसे और लगातार कई प्रश्नों को सुनकर ब्रह्मज्ञानी याज्ञवल्क्य अचानक झल्ला उठे और कह बैठे कि बस कर गार्गी, कहीं ऐसा न हो कि तेरा सिर फट कर गिर जाए. इस क्रोध के आते ही याज्ञवल्क्य ऋषि का ब्रह्मज्ञान लुप्त हो गया और वह गऊएं फिर से सोने की हो गईं. यह देखकर याज्ञवल्क्य ऋषि मौन हो गए.
गार्गी ने उन्हें शांत कराया और कहा कि यदि आप ब्रह्मज्ञानी हैं तो ऐसा क्यों हुआ. तब याज्ञवल्क्य शास्त्रार्थ के आसन पर बैठे और उन्होंने कभी मौन रहकर कभी शांत रहकर तो कभी विनम्रता के साथ गार्गी को संतुष्ट किया. इसी शास्त्रार्थ में गार्गी ने वह प्रश्न भी पूछे जो कि असल में पुरुष को असहज कर सकते थे, लेकिन ऋषि याज्ञवल्क्य ने गहराई और सूक्ष्मता से उनका जवाब दिया. यह शास्त्रार्थ परिवार, गृहस्थ, पति-पत्नी, राजा-प्रजा जैसे हर एक वर्ग में आने वाली कई शंकाओं का समाधान है. शास्त्रार्थ में गार्गी ने प्रेम, ब्रह्मचर्य, तप निष्ठा और जीवन की अवधारणा पर जो सवाल किए वह संसार के लिए वरदान है. हालांकि इस शास्त्रार्थ में जीत याज्ञवल्क्य की ही हुई है, लेकिन गार्गी ने उन्हें मौन होकर एक बार अपने जीवन में झांक कर देखना पड़ा.
बुद्ध का मौन कमल संदेश
मौन संदेश की बात आती है तो बुद्ध भी याद आते हैं. उनकी जेन यानी कि ध्यान की अवधारणा मौन से ही निकली है. एक दिन बुद्ध संघ में उपदेश के लिए आए, लेकिन उन्होंने कुछ कहा नहीं. उनके हाथ में कमल पु्ष्प था. बुद्ध ने उसे उठाया. ऊपर की ओर किया, फिर उसे अपनी आंखों के बीच रखा और सिर के चारों ओर घुमाकर फिर एकटक उसे देखते रहे. सभी शिष्य हैरान की बुद्ध ये क्या कर रहे हैं? लेकिन उनका एक शिष्य था महाकश्यप. महाकश्यप ने ये दृष्य देखा और जोर-जोर से हंसने लगा. महाकश्यप 12 वर्षों से संघ में था, लेकिन उसे कभी किसी ने कुछ भी एक शब्द नहीं करते देखा था, आज वह हंस रहा था, ठठाकर-खिल-खिलाकर हंस रहा था.
बुद्ध ने कहा- मैंने अपने सारे वचन और उपदेश तुम सबको दिए और मैंने अपना सारा चिंतन, मौन और ध्यान महाकश्यप को दे दिया. महाकश्यप ने इस कमल के फूल को एकटक निहारने से ध्यान का महत्व समझ लिया और चीन-जापान, श्रीलंका समेत जिन भी देशों में बौद्ध धर्म के ध्यान की अवधारणा पहुंची वह इन्हीं महाकश्यप ने शुरू की. विपश्यना इसी ध्यान (जेन) का एक अंग है.