उत्तराखंड में इन दिनों राजजात की तैयारी जोरों पर है. उत्तराखंड सरकार यात्रा को सुखद और सफल बनाने के लिए युद्धस्थर पर लगी हुई है. राज यात्रा पौराणिक काल से उत्तराखंड में संचालित होती रही है. पुराणों के अनुसार गढ़वाल के राजा कनकपाल के वासजों द्वारा अपनी पुत्री नंदा को ससुराल भेजने के लिए इस राजजात का आयोजन किया जाता था.
कथा के अनुसार, नंदा के मायके वाले नंदा को कैलाश विदा करने जाते थे और उन्हें भगवान शिव के हवाले कर वापस लौटते थे. भगवान शिव नंदा के पति हैं. यह राजजात यात्रा बारह साल में एक बार होती थी. इससे जाहिर होता है कि नंदा अपने मायके हर बारह साल में आती थी. यह परम्परा पौराणिक काल से चली आ रही है और आज भी पहाड़ के लोग इस पर्व को धूमधाम से मनते हैं. इससे पहले यह राज जात यात्रा वर्ष 2000 में हुई थी.
चुनौती है 2014 की यात्रा
पहाड़ों की आराध्या मां नंदा की राज जात 18 अगस्त से प्रारंभ होनी है, जो की उत्तराखंड सरकार के लिए भी एक चुनौती है. यात्रा सुचारू और सुखद हो सके इसके लिए सरकार द्वारा निम के प्रधानाचार्य कर्नल अजय कोटियाल और उत्तराखंड पुलिस के डीआईजी जीएस मर्तोलिया को रूपकुंड भेजा गया ताकि रास्ते का जायजा ले सकें. लौटने के बाद कर्नल कोटियाल और डीआईजी मर्तोलिया ने कहा कि रास्ता कई जगहों पर खराब है, लेकिन यात्रा ठीक से संपन्न हो जाएगी.
क्या है मान्यता
उत्तराखंड की सांस्कृतिक एकता का प्रतीक मां नंदा देवी राजजात यात्रा बारह वर्ष के उपरांत शुभ मुर्हुत के अनुसार गढ़वाल के राजवंशी राजा, कांसुवा के राज कुंवर, राजगुरु नौटियाल, बाराह थोकी ब्राह्मणों, चौदह सयानों और श्रद्धालुओं के मार्गदर्शन व सहयोग से संपन्न किया जाता है. गढ़वाल के राजवंशी राजा कांसुवा के राजकुंवर परंपरागत पूजा (उचियाना) के रूप में कुल देवी के मंदिर नोटी आते हैं.
इसके बाद राजजात यात्रा की मनौती के लिए रिंगाल की पवित्र राज छ्तोली को मां भगवती नंदा देवी के धर्म भाई और इस यात्रा के अगुवा लाटू देवता के सानिध्य में शिवालय शैलेश्वर में समर्पित की जाती है. यह संकेत मां भगवती नंदा देवी द्वारा भगवान शिव को इस मनौती की पवित्र राज छ्तोली के साथ यह संदेश भेजा जाता है कि मेरे मायके वाले बहुत जल्दी ही मुझे लेकर आपके पास अथार्थ कैलाश आने वाले हैं. नंदा देवी के मायके से बारह वर्ष के बाद ही ससुराल (कैलाश) में भगवान शिव से मिलन हो सके.
मां नंदा देवी राजजात यात्रा पवित्र मनी जाती है. यहां तक कि कांसुवा गांव के राजवंशी राजकुंवर मनौती के लिए पवित्र रिंगाल की राज छ्तोली व पूजा सामग्री को लेकर नौटी पहुंचते हैं. यात्रा का शुभारंभ नौटी में भव्य रूप से किया जाता है. यात्रा के कई मार्ग हैं. मां नंदा देवी राज जात की मुख्य तीन धाराएं हैं- नौटी से राज छ्तोली, अल्मोड़ा व नैनीताल से मां नंदा की डोली और कुरुड़ से मां राज-राजेश्वरी भगवती की डोली.
यात्रा के पड़ाव
नौटी, अल्मोड़ा और कुरुड़ की यात्रा मार्ग सबसे प्रचलित मार्ग है. नंदकेसरी में गढ़वाल और कुमाऊं के विभिन्न क्षेत्रों से आई हुई मां नंदा की डोलियों और छ्तोलियों का मिलन होता है. इस यात्रा मे यात्री 280 किलोमीटर की यात्रा 20 दिनों में पैदल तय करते हैं. नंदा देवी राजजात यात्रा के कठिन मार्ग नंदकेसरी, फल्दिया गांव, ल्वाणी, मुंदोली, वाण, गैरोलीपातल, शिलासमुद्र व होमकुंड आदि है. उत्तराखंड की सांस्कृतिक एकता का प्रतीक नंदा देवी राज जात यात्रा के स्वरूप को बचाने के लिए समय रहते कारगर कदम उठाए जाने की जरूरत है.
राज जात यात्रा एशिया की सबसे लंबी पैदल यात्रा है. कई निर्जन पड़ावों से यात्रा अपनी मनौती को पूर्ण कर वापस अपने ननिहाल (देवराड़ा) पहुंचती है. शीत ऋतु में नंदा देवी का डोला प्रवास के लिए कुरुड़ को रवाना हो जाता है. मां नंदा देवी राजजात का सामुदायिक स्मृति के आधार पर इसकी शुरुआत 9वीं सदी से मानी जाती है. चमोली जिले के वाण से लेकर नौटी तक के जागरों में इसका उल्लेख मिलता है.
मान्यता है की राजा शीशपाल ने राजजात यात्रा की शुरुआत की है. मां नंदा देवी राजजात जब अपने निर्जन पड़ावों में पहुंचती है तो वहां पर मां नंदा देवी के जागरों से श्रद्धालुओं, देवी भक्तों व पर्यटकों द्वारा मां की विशेष पूजा-अर्चना की जाती है और रातभर देवी जागरण होता है. श्रद्धालुओं, देवी भक्तों व सेलानियों द्वारा प्राचीन मंदिर, झरने, कुण्ड (वेदनी कुण्ड, रूपकुण्ड व होमकुण्ड), वेदनी बुगयाल की मखमली घास व ब्रह्म कमल जैसे अनेक फूलों और रमणीय स्थलों का आनंद उठाते हैं.
इसके अलावा बर्फ से ढकी पर्वतों की सौंदर्यता को देख पर्यटक अपने आपको स्वर्ग में महसूस करते हैं. चौसिंग्या खाडू़ इस यात्रा में मुख्य मार्गदर्शक इस राजजात में चौसिंग्या खाडू़ (चार सींगों वाला भेड़) भी शामिल किया जाता है, जो स्थानीय क्षेत्र में राज जात का समय आने के पूर्व ही पैदा हो जाता है. उसकी पीठ पर रखे गए दोतरफा थैले में श्रद्धालु गहने, श्रंगार-सामग्री व अन्य हल्की भैंट देवी के लिए रखते हैं, जो कि होमकुण्ड में पूजा होने के बाद आगे हिमालय की ओर प्रस्थान कर लेता है. लोगों की मान्यता है कि चौसिंग्या खाडू़ आगे बिकट हिमालय में जाकर लुप्त हो जाता है व नंदा देवी के क्षेत्र कैलाश में प्रवेश कर जाता है.
बारह सौ वर्षों से भी पुराना इतिहास समेटे नंदा देवी राजजात उत्तराखंड में एक महत्वपूर्ण धार्मिक यात्रा है. श्रृद्धालुओं के लिए देवी पार्वती को मायके तक पंहुचाने की चिंता तो दूसरी ओर यात्रा के साथ चल रहे हजारों पर्यटकों के लिए रोंमाचक ट्रैकिंग का जरिया और आयोजन. हिंदू धर्मावलंबियों में मान्यता है कि हर बारह साल में नंदा अपने मायके पंहुचती हैं और कुछ दिन वहां रूकने के बाद ग्रामीणों के द्वारा नंदा को पूरी तैयारियों के साथ घुंघटी पर्वत तक छोड़ा जाता है. घुंघटी पर्वत हिंदू देवता शिव का वास स्थान और नंदा का सुसराल माना जाता है.
नंदा के प्रतीक स्वरूप चार सींगों वाले भेड़ की अगुवाई में ग्रामीण बेदनी बुग्याल होते हुए रूपकुंड से नंदा पर्वत तक पंहुचते हैं. नंदा पर्वत में चार सींगों वाले भेड़ को छोड़ दिया जाता है.
नोटी गांव से शुरू होती है यात्रा
नंदा देवी का मन्दिर कुरुड़ में है और मां नंदा कुरूड़ में ही रहती हैं. जब यात्रा नंदकेसरी गांव पहुचती है तब यह यात्रा नंदा देवी राजजात यात्रा मानी जाती है. मां नंदा जो कांसुवा गांव के राजा की बेटी थी और कांसुवा के राजा के राज पुरोहित का गांव नोटी है और राजा के कुल देवी का मंदिर भी नोटी में है. ऐसे में राजा जब भी बारह साल में बेटी को विदा करता है तो पहले राजपुरोहित के गांव में अपनी कुल देवी की पूजा करने नोटी आता है और यहां पूजा अर्चना करने के बाद मां नंदा को विदा करने के लिए सभी मायके वालों को (यानी जितने भी पड़ाव हैं, उन सभी गांव वालों को) साथ लेकर नंद केसरी पहुंचती है. वही पर नंदा की डोली और कुरूड़ गांव वाले और राजा का मिलन होता है और यहां से नंदा देवी कैलाश के लिए रवाना करने को सभी लोग और राजा जाते हैं.