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जलाते नहीं हैं दंडी संन्यासियों का शव, 5 बातें जो नहीं जानते होंगे आप

दंडी सन्यासियों का जीवन बहुत कठिन होता है. इनके अपने अलग सिद्धांत होते हैं. दंडी सन्यासी ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं और मूर्ति पूजा नहीं करते हैं.

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दंडी सन्यासी
दंडी सन्यासी

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कांची कामकोटि पीठ के शंकराचार्य श्री जयेन्द्र सरस्वती का बुधवार सुबह निधन हो गया है. वह 83 साल के थे. उनका जन्म 18 जुलाई 1935 को हुआ था. जयेन्द्र सरस्वती कांची मठ के 69वें शंकराचार्य थे. संन्यासी समाज का वो वर्ग होता है जो समाज से अलग होकर निस्वार्थ भाव से समाज के कल्याण के लिए काम करता है.

मठों और पीठों के सिद्धांतों पर चल कर वो मनुष्य, समाज और जीवन के छोटे-बड़े पहलुओं को समझता है और समाज को संतुलित और व्यवस्थित करने के लिए प्रयत्न करता रहता है. दंडी सन्यासी भी उनमें से एक होते हैं. दंडी संन्यासियों का जीवन बहुत कठिन होता है. हम बता रहे हैं दंडी संन्यासियों के रहन-सहन की उन बातों के जो आम लोगों से भिन्न होती हैं.

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नहीं करते मूर्तिपूजा

इनके अपने अलग सिद्धांत होते हैं. दंडी संन्यासी ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं और मूर्ति पूजा नहीं करते हैं. माना जाता है कि वो अपनी दैनिक जीवन की प्रक्रियाओं से गुजरते हुए और ध्यान के साधन का इस्तेमाल कर के खुद को परमात्मा से जोड़ लेते हैं. इस वजह से उन्हें मूर्तिपूजा की जरूरत नहीं होती.

रहन-सहन

 इनके रहन-सहन का ढंग भी अलग होता है. दंडी संन्यासी कपड़ों का त्याग कर देते हैं. वो सिले हुए वस्त्र नहीं पहनते हैं. दंडी संन्यासी बिना बिस्तर के सोते हैं और बस्ती के बाहर निवास करते हैं.

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खान-पान

दंडी संन्यासी भीक्षा मांगकर भोजन करते हैं. वो दिन में केवल एक बार ही भोजन करते हैं. वो सामान्य बर्तनों में भोजन नहीं करते हैं.  ऐश और आराम की सारी चीजों का उन्हें त्याग करना पड़ता है.   

दंडी सन्यासी सूर्यास्त के बाद कभी भी भोजन नहीं करते हैं. वे दिनभर में अधिकतम सात घरों में भीक्षा मांग सकते हैं और कुछ न मिलने पर उन्हें भूखे ही सोना पड़ता है.

शव जलाया नहीं जाता

निधन के बाद इन संन्यासियों  को जलाया नहीं जाता है. दीक्षा के दौरान ही शरीर के अंतिम संस्कार की एक प्रक्रिया होती है. इसी दौरान उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है और मृत्यु के पश्चात आम लोगों की तरह संन्यासियों को जलाया नहीं जाता है.

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