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जयंती विशेष: सनातन धर्म में प्राण फूंकने वाले शंकराचार्य

प्राचीन भारतीय सनातन परंपरा के विकास और धर्म के प्रचार-प्रसार में आदि शंकराचार्य का महान योगदान है. उन्होंने सनातन परंपरा को पूरे देश में फैलाने के लिए भारत के चारों कोनों में मठों की स्थापना की थी.

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शंकराचार्य जयंती 2018
शंकराचार्य जयंती 2018

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प्राचीन भारतीय सनातन परंपरा के विकास और धर्म के प्रचार-प्रसार में आदि शंकराचार्य का महान योगदान है. उन्होंने सनातन परंपरा को पूरे देश में फैलाने के लिए भारत के चारों कोनों में मठों की स्थापना की थी. शंकराचार्य जयंती पर आइए जानते हैं आदि शंकराचार्य ने ये शुरूआत कब और कैसे की थी और उनका जीवन कैसा था...

आदि शंकराचार्य अद्वैत वेदांत के प्रणेता, संस्कृत के विद्वान, उपनिषद व्याख्याता और सनातन धर्म सुधारक थे. धार्मिक मान्यता में इन्हें भगवान शंकर का अवतार भी माना गया. इन्होंने लगभग पूरे भारत की यात्रा की और इनके जीवन का अधिकांश भाग देश के उत्तरी हिस्से में बीता.

प्राचीन भारतीय सनातन परंपरा के विकास और धर्म के प्रचार-प्रसार में आदि शंकराचार्य का महान योगदान है. इसके लिए उन्होंने भारत के चारों कोनों में मठों की स्थापना की थी. ये ईसा से पूर्व आठवीं शताब्दी में स्थापित बताए जाते हैं. शंकराचार्य द्वारा स्थापित मठ आज भी शंकराचार्यों के नेतृत्व में सनातन परंपरा के प्रचार-प्रसार का कार्य करते हैं. आदि शंकराचार्य को अद्वैत परंपरा का प्रवर्तक माना जाता है. शंकराचार्य को भारत के ही नहीं बल्कि दुनिया के उच्चतम दार्शनिकों में शुमार किया गया है. उनके अद्वैत दर्शन को दर्शनों का दर्शन माना गया है. भारतीय धर्म दर्शन में तो उसे श्रेष्ठ माना ही गया है. उन्होंने अनेक ग्रन्थ लिखे हैं, लेकिन उनका दर्शन विशेष रूप से उनके तीन भाष्यों में जो - उपनिषद, ब्रह्मसूत्र और गीता पर हैं, प्रमुख है. गीता और ब्रह्मसूत्र पर अन्य आचार्यों के भी भाष्य हैं, लेकिन उपनिषदों पर समन्वयात्मक भाष्य जैसा शंकराचार्य का है, वैसा अन्य किसी का नहीं है.

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8 साल की उम्र में छोड़ दिया था घर

प्रचलित मान्यता के मुताबिक आदि शंकराचार्य को आदर्श संन्यासी के तौर पर जाना जाता है. उनका जन्म केरल के कालडी ग्राम' में हुआ था. केवल 32 साल के जीवनकाल में उन्होंने कई उपलब्धियां अर्जित कीं. मात्र 8 साल की उम्र में वह मोक्ष की प्राप्ति के लिए घर छोड़कर गुरु की खोज में निकल पड़े थे.

भारत के दक्षिणी राज्य से नर्मदी नदी के किनार पहुंचने के लिए युवा शंकर ने 2000 किलोमीटर तक की यात्रा की. वहां गुरु गोविंदपद से शिक्षा ली और करीब 4 सालों तक अपने गुरु की सेवा की. इस दौरान शंकर ने वैदिक ग्रन्थों को आत्मसात कर लिया था. शंकराचार्य केरल से कश्मीर, पुरी (ओडिशा) से द्वारका (गुजरात), श्रृंगेरी (कर्नाटक) से बद्रीनाथ (उत्तराखंड) और कांची (तमिलनाडु) से काशी (उत्तरप्रदेश) तक घूमे. हिमालय की तराई से नर्मदा-गंगा के तटों तक और पूर्व से लेकर पश्चिम के घाटों तक उन्होंने यात्राएं कीं. शंकराचार्य ने अपने दर्शन, काव्य और तीर्थयात्राओं से उसे एक सूत्र में पिरोने का प्रयास किया.

सनातन धर्म के मूल स्वरूप को जीवित किया

आदि शंकराचार्य के समय में अंधविश्वास और तमाम तरह के कर्मकांडों का बोलबाला हो गया था. सनातन धर्म का मूल रूप पूरी तरह से नष्ट हो चुका था और यह कर्मकांड की आंधी में पूरी तरह से लुप्त हो चुका था. शंकराचार्य ने कई प्रसिद्ध विद्वानों को चुनौती दी. दूसरे धर्म और संप्रदाय के लोगों को भी शास्त्रार्थ करने के लिए आमंत्रित किया. शंकराचार्य ने बड़े-बड़े विद्वानों को अपने शास्त्रार्थ से पराजित कर दिया और उसके बाद सबने शंकराचार्य को अपना गुरु मान लिया.

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शंकर के समय में असंख्य संप्रदाय अपने-अपने संकीर्ण दर्शन के साथ-साथ अस्तित्व में थे. लोगों के भ्रम को दूर करने के लिए शंकराचार्य ने 6 संप्रदाय वाली व्यवस्था की शुरूआत की जिसमें विष्णु, शिव, शक्ति, मुरुक और सूर्य प्रमुख देवता माने गए. उन्होंने देश के प्रमुख मंदिरों के लिए नए नियम भी बनाए.

शंकराचार्य का अद्वैत दर्शन-

उनके द्वारा स्थापित 'अद्वैत वेदांत सम्प्रदाय' 9वीं शताब्दी में काफ़ी लोकप्रिय हुआ. उन्होंने प्राचीन भारतीय उपनिषदों के सिद्धान्तों को पुनर्जीवन प्रदान करने का प्रयत्न किया. उन्होंने ईश्वर को पूर्ण वास्तविकता के रूप में स्वीकार किया और साथ ही इस संसार को भ्रम या माया बताया. उनके अनुसार अज्ञानी लोग ही ईश्वर को वास्तविक न मानकर संसार को वास्तविक मानते हैं. ज्ञानी लोगों का मुख्य उद्देश्य अपने आप को भम्र व माया से मुक्त करना एवं ईश्वर व ब्रह्म से तादाम्य स्थापित करना होना चाहिए. शंकराचार्य ने वर्ण पर आधारित ब्राह्मण प्रधान सामाजिक व्यवस्था का समर्थन किया. शंकराचार्य ने संन्यासी समुदाय में सुधार के लिए उपमहाद्वीप में चारों दिशाओं में चार मठों की स्थापना की.

बौद्धिक क्षमता के अतिरिक्त शंकराचार्य उच्च कोटि के कवि भी थे. उन्होंने 72 भक्तिमय और ध्यान करने वाले गाने व मंत्र लिखे.  ब्रह्म सूत्र, भगवदगीता और 12 मुख्य उपनिषदों पर शंकराचार्य ने टीकाएं भी लिखीं. अद्वैत वेदांत दर्शन पर भी उन्होंने 23 किताबें लिखीं.

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भगवान शिव का अवतार माने जाने वाले शंकराचार्य केवल 32 साल तक ही जीवित रहे. उनके बारे में कई प्रेरणादायक कहानियां प्रचलित हैं.

मठों की स्थापना-

भारत भ्रमण के दौरान शंकराचार्य ने संन्यासियों के विभिन्न समूहों को एक सूत्र से जोड़ने के लिए चार मठों की स्थापना की. भारत के चार अलग-अलग कोनों में चार मठों की स्थापना की. उन्होंने चारों मठों में अपने सबसे अनुभवी शिष्यों की नियुक्ति की. ऐतिहासिक और साहित्यिक साक्ष्य के मुताबिक, कांची कामकोटि मठ की स्थापना भी आदिगुरू शंकराचार्य ने की थी.

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