कोरोना वायरस खुद को फिर से ज्यादा ताकतवर और विकसित कर रहा है, ताकि वह हवा में ज्यादा तेजी से फैल सके. यह खुलासा हुआ है एक नई स्टडी में. जिसमें वैज्ञानिक कहते हैं कि लोग सांस लेते समय, बात करते समय और गाते समय या किसी भी समय नाक और मुंह से हवा में मौजूद एयरोसोल को अंदर खींचते हैं. जिनमें नमी वाली बूंदें होती है. इन्हीं के साथ कोरोनावायरस भी शरीर में प्रवेश कर जाता है. पहले भी कोरोना वायरस हवा के जरिए ही लोगों में फैल रहा था, लेकिन अब यह हवा के जरिए लोगों को और ज्यादा संक्रमित करने की अपनी क्षमता को और बढ़ा रहा है. (फोटोःगेटी)
इस नई स्टडी में बताया गया है कि दुनियाभर के सभी कोरोना मरीजों में से 85 फीसदी के शरीर में कोरोना वायरस RNA मिला है. यह RNA मरीजों की सांसों के जरिए जाने वाले एयरोसोल के साथ शरीर में अंदर गया है. इनका आकार पांच माइक्रोमीटर से भी कम है. यह स्टडी हाल ही में क्लीनिकल इंफेक्शियस डिजीसेस जर्नल में प्रकाशित हुई है. इस स्टडी को सिंगापुर के वैज्ञानिकों ने किया है. जिसमें ये दावा कर रहे हैं कि कोरोना वायरस अब एक फिर से खुद को हवा में फैलने के लिए मजबूती से विकसित कर रहा है. (फोटोःगेटी)
ऐसी ही एक स्टडी यूनिवर्सिटी ऑफ मैरीलैंड के वैज्ञानिक डोनाल्ड मिल्टन और उनकी टीम ने भी किया है. उन्होंने देखा कि अल्फा वैरिएंट कोरोना मरीजों की सांसों में एयरोसोल के जरिए 18 गुना ज्यादा गया है. जबकि, अन्य कोरोना वायरस वैरिएंट का असर अल्फा की तुलना में कम था. यह स्टडी हाल ही में medRxiv.org में प्रकाशित हुई है. हालांकि इस स्टडी का अब तक पीयर रिव्यू नहीं हुआ है. साथ ही यह भी कहा गया है कि अगर कोई ढीला मास्क पहनता है तो कोरोना से बचाव आधा ही मिलता है. क्योंकि ढीले मास्क से कोरोना वायरस एयरोसोल के जरिए नाक या मुंह के रास्ते शरीर में चले जाते हैं. (फोटोःगेटी)
सिर्फ इतना ही यूनिवर्सिटी ऑफ मैरीलैंड के वैज्ञानिकों ने हवा से मिले एयरोसोल के जरिए कोरोनावायरस को लैब में विकसित किया. जिससे पता चला कि हवा के साथ बह रहे एयरोसोल में कोरोनावायरस के RNA काफी ज्यादा तेजी से लोगों को संक्रमित करते हैं. एयरोसोल पर दुनियाभर में चर्चा हो रही है. यह बहस कोरोना महामारी की शुरुआत से ही चल रही है. पिछले साल 200 वैज्ञानिकों ने विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) को पत्र लिखा था कि एयरोसोल के जरिए कोरोना वायरस के फैलने की जानकारी को मान्यता दी जाए. (फोटोःगेटी)
अप्रैल 2021 में WHO ने इस बात को मान्यता देते हुए दुनियाभर को वैक्सीन लगाने के बाद भी मास्क लगाने की हिदायत दी थी. अमेरिका के सीडीसी (CDC) ने भी एयरोसोल के जरिए कोरोना वायरस के फैलाव को मान्यता दी थी. बंदरों पर हुए एक पूर्व अध्ययन में यह बात बताई गई है कि ज्यादातर वायरस एयरोसोल के जरिए ही शरीर में प्रवेश करते हैं न कि बड़ी बूंदों के जरिए. हालांकि कुछ वैज्ञानिक अब भी इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते कि कोरोना वायरस सिर्फ एयरोसोल से फैलता है. (फोटोःगेटी)
वर्जिनिया टेक में काम करने वाली पर्यावरण इंजीनियर लिन्से मार ने कहा कि इस बात के अपरोक्ष सबूत कई है कि हवा के जरिए कोरोना वायरस फैलता है. लिन्से मार उन 200 वैज्ञानिकों में शामिल थीं, जिन्होंने WHO को पत्र लिखा था. लिन्से कहती हैं कि एयरबॉर्न शब्द अपने आप में एक खतरा बताता है, जब मामला वायरस या बीमारी से संबंधित हो. कोरोना को रोकने के लिए मरीज के लिए अलग कमरा, चिकित्साकर्मियों का हैजमट सूट, महंगे चिकित्सा यंत्र आदि मदद करते हैं. लेकिन कोई सांस लेना तो बंद नहीं कर सकता. (फोटोःगेटी)
लिन्से मार कहती हैं कि ज्यादातर कोरोनावायरस के मामले नजदीकी लोगों से मिले संक्रमण की वजह से हुए हैं. इतने नजदीकी जो आपके 6 फीट के दायरे में आ सकते हैं. संक्रमित व्यक्ति के मुंह या नाक से निकली नमी की बूंदें या फिर सीधे संक्रमित हवा को सांस के जरिए अंदर लेने पर किसी को भी कोरोनावायरस का संक्रमण हो सकता है. लेकिन वैज्ञानिक इस बात को लेकर परेशान है कि क्या सच में हवा के जरिए कोरोना वायरस तेजी से फैलता है. उसमें उड़ने वाले एयरोसोल से या फिर नमी की बड़ी बूंदों के साथ यह लोगों की सांसों में प्रवेश करता है. (फोटोःगेटी)
नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर में मैकेनिकल इंजीनियर वॉक वाई थाम ने यह पता किया कि कोरोना संक्रमित व्यक्ति अपनी सांस या छींक या खांसी के जरिए कितना कोरोनावायरस से भरा एयरोसोल हवा में फैलाता है. उन्होंने एक मोबाइल लैब तैयार की और 22 अलग-अलग मरीजों से मिले. उन्हें एक धातु के कोन में अपना मुंह डालने को कहा ताकि वो यह पता कर सकें कि संक्रमित व्यक्ति की सांस के साथ कितने कोरोनावायरस हवा में मिल रहे हैं. (फोटोःनेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर)
वॉक वाई थाम ने कोरोना संक्रमित मरीजों को 30 मिनट तक इस धातु के कोन में अपना मुंह डालकर सांस लेने के लिए कहा. इस दौरान वॉक वाई ने उसकी सांसों से निकलने और अंदर जाने वाले एयरोसोल और नमी की बड़ी बूंदों के सैंपल जमा किए. साथ ही इन मरीजों को कहा गया कि आप ABCD गिनिये, या फिर हैप्पी बर्थडे गाना गाइए. यह गाना मरीजों को 15 मिनट तक गाना था. वॉक ने इस दौरान इनकी सांसों ने निकलने वाले न्यूक्लियोकैप्सिड प्रोटीन जीन (nucleocapsid protein gene) की मात्रा भी जांची. इसे N Gene भी कहते हैं. इससे यह पता चलता है कि कितने वायरस शरीर में गए या निकले. (फोटोःगेटी)
22 मरीजो में 13 ने कोरोना वायरस के RNA को प्रचुर मात्रा में अपनी सांसों में लिया और छोड़ा. अगर कोरोना संक्रमित मरीज गाना गाता है तो वह कोरोना से भरे एयरोसोल ज्यादा छोड़ता है. लेकिन कुछ लोग बातचीत करते समय भी ये काम करते हैं. अलग-अलग लोगों के गाने के तरीके, सांस लेने के गति और बातचीत की स्पीड के अनुसार वायरस से भरे एयरोसोल की मात्रा बाहर निकली. इस नई स्टडी में यह भी पता किया गया है कि इनमें से कितने लोग सुपरस्प्रेडर की कैटेगरी में शामिल थे. जिन्होंने जोर से गाया या तेजी से बातें की या तीव्र सांसें ली या छोड़ी वो सुपरस्प्रेडर की श्रेणी में आ गए. (फोटोःगेटी)
इस प्रयोग में एक ही बात अच्छी सामने आई कि जो लोग पहले कोरोना संक्रमित रह चुके हैं, वो शुरुआती पहले हफ्ते में सबसे ज्यादा संक्रमण फैलाने की क्षमता रखते हैं. इससे बचने का एक ही उपाय है कि मरीज और उसके आसपास के लोग हमेशा मास्क लगाए रखें. मास्क आपको कोरोनावायरस से तो बचाता ही है, साथ ही वह एयरोसोल को शरीर में जाने से रोकता है. इसलिए दुनियाभर के वैज्ञानिक लोगों को मास्क लगाने की सलाह देते रहते हैं. (फोटोःगेटी)