कोरोना काल में लोग अब तेजी से वैक्सीन लगवा रहे हैं. वैक्सीन की वजह से मामूली साइड इफेक्ट्स भी देखने को मिल रहे हैं. लेकिन ये बेहद दुर्लभ है. सबसे दुर्लभ साइड इफेक्ट है इडियोपैथिक थ्रोम्बोसाइटोपेनिक परपुरा (idiopathic thrombocytopenic purpura - ITP). यह ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका की वैक्सीन लगवाने वाले लोगों के साथ हो रहा है लेकिन अत्यधिक कम मात्रा में. इडियोपैथिक थ्रोम्बोसाइटोपेनिक परपुरा यानी शरीर में प्लेटलेट्स की कमी. लेकिन ऐसा 10 लाख लोगों में से 11 लोगों को ही हो रहा है. ऐसा इससे पहले फ्लू और MMR की वैक्सीन के साथ भी होता आया है. (फोटोःगेटी)
शोधकर्ताओं का कहना है कि कोविड-19 वैक्सीन की वजह से प्लेटलेट्स कम होने की आशंका कम है लेकिन ऐसे कोरोना वायरस के संक्रमण की वजह से हो सकता है. लेकिन प्लेटलेट्स कम होने का खतरा फाइजर-बायोएनटेक की वैक्सीन के साथ नहीं. इस स्टडी में अन्य वैक्सीन को शामिल नहीं किया गया था. एक्सपर्ट्स का कहना है कि जिन लोगों ने ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका की वैक्सीन ली है उनमें ITP का खतरा रहता है, लेकिन कोविड-19 की वजह से पैदा होने वाली बीमारियों में प्लेटलेट्स कम होने की आशंका ज्यादा रहती है. (फोटोःगेटी)
द मेडिकल एंड हेल्थकेयर प्रोडक्ट्स रेगुलेटरी एजेंसी (MHRA) ने पहले भी बताया था कि ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका की कोविड-19 वैक्सीन लेने वालों में ब्लड क्लॉट या प्लेटलेट्स कम होने की आशंका 10 लाख में 13 लोगों को है. लेकिन अब हुई नई स्टडी में यह खुलासा किया गया है कि प्लेटलेट्स कम होने की आशंका एक सामान्य शारीरिक प्रक्रिया है. हालांकि इसे लेकर MHRA नजर रख रही है. यह स्टडी स्कॉटलैंड में की गई है. (फोटोःगेटी)
स्कॉटलैंड 54 लाख लोगों में से 25 लाख लोगों ने वैक्सीन की पहली डोज ले ली है. इन लोगों में ITP, ब्लड क्लॉटिंग या ब्लीडिंग की जांच की गई तो शोधकर्ता किसी भी तरह की ब्लड क्लॉटिंग यानी खून का जमना, सेरेब्रल वेनस साइनस थ्रोम्बोसिस या CVST के केस नहीं मिले हैं. न ही इनका वैक्सीन से सीधे तौर पर कोई संबंध है. जिन लोगों को ITP की दिक्कत आई है उनकी औसत उम्र 69 साल है. यानी बुजुर्गों को कम प्लेटलेट्स की दिक्कत हो सकती है. (फोटोःगेटी)
जिन बुजुर्गों को कम प्लेटलेट्स की दिक्कत आई है, उनमें से अधिकतर को क्रोनिक बीमारियां थीं, जैसे- कोरोनरी हार्ट डिजीस, डायबिटीस या क्रोनिक किडनी डिजीसेस. इस स्टडी को एडिनबर्ग यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने किया है. शोधकर्ताओं ने कोरोना काल में मरीजों की स्थिति और वैक्सीन रोल आउट का रियल टाइम डेटा एनालिसिस किया है. इसमें 14 अप्रैल 2021 तक का डेटा जमा किया गया है. जो लोग इसमें शामिल थे, उन्होंने या तो ऑक्सफोर्ड की वैक्सीन लगवाई है या फिर फाइजर की वैक्सीन. (फोटोःगेटी)
#COVID-19 #vaccine linked to low platelet count, nationwide study suggests @NatureMedicine https://t.co/X6ZH3kcy3Z
— Medical Xpress (@medical_xpress) June 9, 2021
14 अप्रैल 2021 तक 17 लाख लोगों नें ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका की वैक्सीन ली है, जबकि 8 लाख लोगों ने फाइजर-बायोएनटेक की वैक्सीन लगवाई है. इस स्टडी में अबरदीन, ग्लासगो, ऑक्सफोर्ड और स्वानसी में स्थित यूनिवर्सिटीस ऑफ स्ट्रैथक्लाइड की शाखाओं के वैज्ञानिक, वेलिंग्टन स्थित विक्टोरिया यूनिवर्सिटी, क्वींस विक्टोरिया यूनिवर्सिटी बेलफास्ट और पब्लिक हेल्थ स्कॉटलैंड शामिल है. इन वैज्ञानिकों ने सितंबर 2019 से डेटा कलेक्ट किया है. ताकि ITP, क्लॉटिंग या ब्लीडिंग संबंधित समस्याओं की जांच की जा सके. (फोटोःगेटी)
स्टडी के दौरान वैक्सीनेशन के रिकॉर्ड्स, अस्पतालों में भर्ती लोगों की लिस्ट, मरने वालों की लिस्ट, लेबोरेटरी के टेस्ट रिजल्ट्स को उन लोगों के डेटा के साथ विश्लेषण किया गया जिन्होंने अभी तक वैक्सीन नहीं लगवाई है. ताकि यह पता चल सके कि कहीं कोरोना से पहले या उसके संक्रमण के बाद तो शरीर में क्लॉटिंग या प्लेटलेट्स कम नहीं हो रहे हैं. डेटा एनालिसिस के बाद पता चला कि ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका वैक्सीन लेने के दो हफ्ते बाद ITP यानी कम प्लेटलेट्स, ब्लड क्लॉट या ब्लीडिंग की कुछ मामले सामने आए हैं. (फोटोःगेटी)
वहीं, दूसरी तरफ फाइजर-बायोएनटेक की वैक्सीन लेने वालों लोगों में ऐसी कोई दिक्कत सामने नहीं आई है. हालांकि शोधकर्ता इस बात का पता नहीं कर पाए कि ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका वैक्सीन लेने के बाद ब्लड क्लॉट या ITP का इससे कोई सीधा संबंध है, क्योंकि इस पर स्टडी अब भी चल रही है. इस स्टडी में 40 साल से कम उम्र के लोगों को भी शामिल किया गया है. ताकि कम उम्र के लोगों पर भी इसका अध्ययन किया जा सके. (फोटोःगेटी)
इस स्टडी को नेचर मैगजीन में प्रकाशित किया गया है. इस स्टडी की फंडिंग मेडिकल रिसर्च काउंसिल यूके, इनोवेशन स्ट्रैटेजी चैलेंज फंड एंड हेल्थ डेटा रिसर्च यूके और स्कॉटलैंड की सरकार ने की है. एडिनबर्ग यूनिवर्सिटी में अशर इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर प्रोफेसर अजीज शेख ने इस स्टडी के बारे में बाताय कि हमारी टीम ने पूरे देश के वैक्सीनेशन प्रोग्राम की स्टडी की है. इसमें वो सभी 25 लाख लोग शामिल हैं, जो दोनों वैक्सीन में से किसी एक की पहली डोज लगवा चुके हैं. हमें ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका की वैक्सीन लेने वाले लोगों में कम प्लेटलेट्स, ब्लड क्लॉटिंग और ब्लीडिंग के मामले मिले हैं लेकिन बेहद कम. (फोटोःगेटी)
प्रो. अजीज ने बताया कि संख्या कम है लेकिन समस्या महत्वपूर्ण है. क्योंकि वैक्सीनेशन कराने के बाद किसी के शरीर में इस तरह की दिक्कतें होना वैक्सीन की सफलता दर को कम करता है. इन स्टडीज की मदद से दवा कंपनियां ऐसी वैक्सीन बना सकती हैं, जिनमें कोई साइड इफेक्ट न हो. या फिर कोई नई मारक वैक्सीन. इस स्टडी में शामिल विक्टोरिया यूनिवर्सिटी ऑफ वेलिंग्टन के दूसरे साइंटिस्ट प्रो. कॉलिन सिम्पसन ने कहा कि हम अब इस बात की जांच करेंगे कि युवाओं और स्वस्थ लोगों पर इन दोनों वैक्सीन का क्या असर हो रहा है. नई वैक्सीन कब तक लोगों तक पहुंचेगी और उसका क्या असर होगा. (फोटोःगेटी)
यूनिवर्सिटी ऑफ स्ट्रेथक्लाइड के प्रोफेसर क्रिस रॉबर्टसन ने कहा कि इतने बड़े पैमाने पर की गई राष्ट्रीय स्तर की स्टडी से यह पता चलता है कि इस समय चल रहे वैक्सीनेशन प्रोग्राम की वजह से क्या-क्या दिक्कतें आ रही हैं. क्या फायदा हो रहा है. कैसे इन्हें सुधारा जा सकता है. हेल्थ डेटा रिसर्च के डायरेक्टर प्रो. एंड्र्यू मॉरिस ने कहा कि यह डेटा सही रिसर्च करने के लिए बहुत काम आएगा. साथ ही इससे यह पता चलेगा कि चलते हुए वैक्सीनेशन प्रोग्राम की वजह से क्या-क्या दिक्कतें आ रही हैं. इसमें क्या गलतियां हैं, उन्हें कैसे ठीक किया जा सकता है. (फोटोःगेटी)
प्रो. एंड्र्यू मॉरिस ने कहा कि वैक्सीनेशन प्रोग्राम के साथ-साथ कई तरह की स्टडीज और एनालिसिस चलती रहती है. इससे देश की सरकार और हेल्थ मिनिस्ट्री को लगातार अपनी नीतियों में बदलाव करने के लिए सही कदम की जानकारी मिलती रहती है. इसलिए ऐसी बड़ी स्टडीज के रिलज्ट को दरकिनार नहीं किया जा सकता. (फोटोःगेटी)