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साइंस न्यूज़

1600 साल पुरानी भेड़ की ममी से प्राचीन DNA निकाला, हुए हैरान करने वाले खुलासे

Pristine DNA Sheep Mummy
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ईरान में एक गांव है चेहराबाद (Chehrabad). यहां पर पुरातत्व विज्ञानियों को एक 1600 साल पुरानी भेड़ की ममी मिली है. वैज्ञानिकों ने इस भेड़ की ममी से प्राचीन डीएनए निकाला है, जिससे कई नए खुलासे हुए हैं. पुरातत्व विज्ञानियों का मानना है यह भेड़ एक खदान में काम करने वाले भूखे मजदूरों द्वारा लाई गई होगी. कुछ हिस्सा खाने के बाद उन्होंने इसके पैर को छोड़ दिया. जो प्राकृतिक तौर पर ममी बन गई. जिसकी वजह से इसके बाल, मांसपेशियां, डीएनए और हड्डी अब तक सुरक्षित रहे. यह भेड़ पांचवीं या छठी सदी की मानी जा रही है. (फोटोः आर्कियोलॉजिकल म्यूजियम ऑफ जंजन)

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डबलिन स्थित ट्रिनिटी कॉलेज के स्मरफिट इंस्टीट्यूट ऑफ जेनेटिक्स के रिसर्च फेलो केविन डेली ने कहा कि भेड़ की यह टांग बेहद उम्दा तरीके से ममी बनी थी. इसके किसी भी हिस्से को कोई नुकसान नहीं हुआ है. इसमें से DNA निकालने में हमें कोई दिक्कत नहीं आई. DNA भी एकदम सुरक्षित है. हम इस डीएन की लगातार स्टडी कर रहे हैं. भेड़ की इस टांग पर कुछ नमक पसंद करने वाले माइक्रोब्स भी पैदा हुए हैं. हम उनका अध्ययन भी कर रहे हैं. यह स्टडी 13 जुलाई को बायोलॉजी लेटर्स जर्नल में प्रकाशित हुई है. (फोटोः आर्कियोलॉजिकल म्यूजियम ऑफ जंजन)

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भेड़ की इस ममीफाइड पैर को पुरातत्वविदों ने उत्तर-पश्चिम ईरान के चेहराबाद में स्थित एक प्राचीन नमक की खान से निकाला है. इसी खान में कुछ साल पहले कई इंसानों के सुरक्षित शव मिले थे. ये बात 1993 की है. तब 8 इंसानी ममी मिली थीं, इनमें से कइयों के त्वचा और बाल एकदम सुरक्षित थे. इसलिए उन्हें सॉल्टमैन (Saltman) कहा गया था. माना जाता है कि इन इंसानों की ममी की उम्र 1300 से 2500 साल रही होगी. (फोटोः आर्कियोलॉजिकल म्यूजियम ऑफ जंजन)

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स्मरफिट इंस्टीट्यूट ऑफ जेनेटिक्स के डॉक्टोरल स्टूडेंट और स्टडी के पहले लेखक कोनोर रोसी ने कहा कि यह खान अद्भुत है. यहां बहुत ज्यादा नमक है, नमी कम है. इसलिए यहां दबे जीवों की त्वचा और बाल सदियों तक सुरक्षित रहते हैं. साथ ही इनके डीएनए को भी नुकसान नहीं पहुंचता. डीएनए पर सैप्रोफाइटिक माइक्रोब्स (Saprophytic Microbes) का हमला नहीं होता. ये ऐसे माइक्रोब्स होते हैं जो मुर्दा और सड़ रहे जैविक पदार्थों को खाते हैं. (फोटोःगेटी)

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कोनोर रोसी कहते हैं कि सैप्रोफाइटिक माइक्रोब्स ऐसे एंजाइम का उपयोग करते हैं, जो मांसपेशियों को तोड़ने में मदद करता है. जीव के मरने के बाद उसके शरीर में भी ऐसे एंजाइम होते हैं जो डीएनए की आकृति के साथ छेड़खानी करना शुरू कर देते हैं. इससे उनका रासायनिक स्ट्रक्चर बदलने लगता है. इसे लेकर साल 2013 में कोल्ड स्प्रिंग्स हार्बर पर्सपेक्टिव इन बायोलॉजी जर्नल में रिपोर्ट छपी थी. यही एजांइम पानी को तोड़कर डीएनए के स्ट्रैंड के साथ केमिकल बॉन्ड बनाने को मजबूर करते हैं. (फोटोःगेटी)

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लेकिन ईरान के चेहराबाद  (Chehrabad) में मौजूद नमक की खान में पानी को पर्यावरण में मौजूद रखता है. उसे एंजाइम तक पहुंचने नहीं देता. खान के इस एक्स्ट्रीम माहौल में त्वचा और बाल सूख जाते हैं. जिससे उनका प्राकृतिक ममी बन जाता है. यहां पर एंजाइम उन्हें खा नहीं पाते. लेकिन ममी पर मौजूद जरूर रहते हैं. प्रयास करते रहते हैं कि थोड़ा-थोड़ा करके ही सही कई सालों में कुछ खाने को मिल जाए. (फोटोःगेटी)

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फ्रांस स्थित नेशनल म्यूजियम ऑफ नेचुरल हिस्ट्री और तेहरान यूनिवर्सिटी से जुड़े आर्कियोजुओलॉजिस्ट और इस स्टडी के सह-लेखक मर्जन मश्कॉर ने बताया कि हमारे पास इस भेड़ का पैर एक छोटे से पॉलिथीन में लाया गया था. जिसमें एक कट का निशान था. पहले हमें लगा कि ये किसी बकरी का पैर है. इसके पैर से हमने करीब 4 वर्ग सेंटीमीटर की त्वचा निकाली. ताकि वैज्ञानिकों को पर्याप्त मात्रा में डीएनए मिल सके. कार्बन डेटिंग से पता चला कि यह भेड़ 1600 साल पुरानी है. या उससे 30 साल आगे-पीछे की उम्र होगी. (फोटोःगेटी)

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डीएनए निकालने के लिए कोनोर रोसी की टीम ने त्वचा को डिसॉल्व किया. इसके बाद बचा हुआ डीएनए बाहर आता दिखाई दिया. इस सैंपल में 25 से 30 फीसदी हिस्सा बैक्टीरिया था या आर्कियल डीएनए था. बैक्टीरिया औऱ आर्किया ये बताता है कि इस सैंपल पर एक्सट्रीमोफाइल्स का प्रभाव ज्यादा था. ये नमक पसंद करने वाले माइक्रोब्स थे. ये कोई सामान्य सैप्रोफाइटिक बैक्टीरिया नहीं है. ये खास प्रकार के माइक्रोब्स हैं. (फोटोःगेटी)

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जब डीनए को जूम करके देखा गया तो पता चला कि इस भेड़ और ईरान में उस समय पाई जाने वाली भेड़ के डीएनए में अंतर है. एंजाइम और डीएनए मॉलिक्यूल्स में अंतर है. अमीनो ग्रुप्स में काफी ज्यादा अंतर मिला. केविड डेली कहते हैं कि इसके बाद हमने प्राचीन भेड़ की जीन और वर्तमान ईरानी भेड़ों के जीन की तुलना करने लगे. हमने देखा कि प्राचीन भेड़ की जीन से पता चलता है कि इसके ज्यादा बाल थे. लेकिन उसे वूली शीप कहना पूरी तरह से सही नहीं होगा. ये सिर्फ मांस या दूध उत्पादन के लिए पाला जाता रहा होगा. (फोटोःगेटी)

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केविन और कोनोर ने बताया कि चेहराबाद  (Chehrabad) के इस खान के आसपास ऐसी भेड़ों और बकरियों का पाला जाता रहा होगा, ताकि खान में काम करने वाले मजदूरों को इन्हें खिलाया जा सके. इनका मकसद ऊन निकालने के लिए पाला जाना नहीं था. इसी वजह से हमें इनके जीन की स्टडी करनी पड़ी. क्योंकि इनके शरीर में बाल थे लेकिन ऊनी भेड़ वाले जीन की कमी थी. हैरानी इस बात की है कि इतनी सदियों से भेड़ का यह पैर खान में सुरक्षित था और हम इसके डीएनए की जांच कर पाए. (फोटोःगेटी)

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