सिक्किम में अब तक 74 लोग मारे जा चुके हैं. 100 से ज्यादा लोग लापता हैं. यह बात तो पुख्ता है कि इन सिक्किम में ग्लेशियर से बनी झील के टूटने से जो फ्लैश फ्लड आया. वह भयानक था. सैटेलाइट जांच करने पर पता चलता है कि ग्लेशियर से बनी साउथ ल्होनक झील का आकार लगातार बढ़ रहा था. मोरेन खिसक रहा था. (सभी फोटोः एपी)
लगातार बारिश और एक छोटे लैंडस्लाइड की वजह से झील में पानी का दबाव बढ़ गया. जिससे मोरेन टूट गया. ये मोरेन पिछले चार दशकों से 10 मीटर प्रति वर्ष की दर से खिसक रहा था. मोरेन का लगातार खिसकना और झील का आकार बढ़ना ये स्पष्ट करता है कि जैसे-जैसे ग्लोबल वॉर्मिंग बढ़ती गई. ग्लेशियर पिघलने से झील में पानी बढ़ता गया.
पानी बढ़ने की वजह से मोरेन खिसकता चला गया. झील का मुहाना सिकुड़ने लगे. सिकुड़े हुए मुहाने के साथ झील ज्यादा देर तक दबाव संभाल नहीं पाई और मोरेन से बनी दीवार टूट गई. इसके बाद क्या हुआ ये आपको बताने की जरुरत नहीं है. पूरे उत्तर सिक्किम में ऐसी बाढ़ आई कि न जाने कितनी गाड़ियां, घर सब बह गए या कीचड़ में दब गए.
Sikkim में प्रलय आने के सबूत की तस्वीर मैक्सार टेक्नोलॉजी ने ली थी. 17,100 फीट की ऊंचाई पर साउथ ल्होनक लेक के मुंहाने की दीवार टूटी. झील में पानी की मात्रा ज्यादा हुई तो दीवार टूट गई. असल में साउथ ल्होनक लेक पर ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड यानी GLOF का खतरा काफी पहले से था.
साइंटिस्ट इस बात की तस्दीक कई सालों से दे रहे थे. उस झील के बढ़ते आकार की स्टडी कर रहे थे. दो साल पहले भी IIT Roorkee और IISC Bengaluru के तीन वैज्ञानिकों ने इसके टूटने की आशंका जताई थी. पूरे हिमालय पर 12 हजार से ज्यादा छोटे-बड़े ग्लेशियर हैं. जो लगातार ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से पिघल रहे हैं.
इन ग्लेशियरों से बनने वाली झीलों के टूटने का खतरा बना रहता है. 1985 में नेपाल में दिग त्शो झील के टूटने से बड़ी आपदा आई थी. 1994 भूटान में लुग्गे त्सो झील टूटने से भी ऐसी ही आपदा आई थी. 2013 में केदारनाथ हादसे ने 6 हजार से ज्यादा लोगों की जान ले ली थी. यहां भी चोराबारी ग्लेशियर टूटा था. जिससे प्रलय आया था.
साउथ ल्होनक झील ग्लेशियर के पिघलने से निकले पानी से बनी झील है. जो मोरेन टूटा है वह करीब 54 फीट ऊंचा था. अब आप सोचिए कि कितना पानी इस झील में भरा होगा कि 54 फीट ऊंची प्राकृतिक दीवार टूट गई. झील की गहराई 394 फीट है. यह पिछले चार दशकों से 0.10 वर्ग km से लेकर 1.37 वर्ग km की दर से बढ़ती जा रही थी.
साउथ ल्होनक झील पहले से ही टूटने की कगार पर थी. वैज्ञानिकों ने दो साल पहले यानी साल 2021 में ही इस लेक के टूटने की आशंका जताई थी. यह झील करीब 168 हेक्टेयर इलाके में फैली थी. जिसमें से 100 हेक्टेयर का इलाका टूट कर खत्म हो गया. यानी इतने बड़े इलाके में जमी बर्फ और पानी बहकर नीचे की ओर आया है.
3-4 अक्टूबर के बीच की रात झील की दीवारें टूटीं. ऊपर जमा पानी तेजी से नीचे बहती तीस्ता नदी में आया. इसकी वजह से मंगल, गैंगटोक, पाकयोंग और नामची जिलों में भयानक तबाही हुई. चुंगथांग एनएचपीसी डैम और ब्रिज बह गए. मिन्शीथांग में दो ब्रिज, जेमा में एक और रिचू में एक ब्रिज बह गया. सिक्किम के राज्य आपदा प्रबंधन अथॉरिटी (SDMA) ने बताया कि पानी का बहाव 15 मीटर प्रति सेकेंड था. यानी 54 किलोमीटर प्रति सेकेंड.
साल 2013 में उत्तराखंड का चोराबारी ग्लेशियल लेक भी इसी तरह टूटा था. उसके ऊपर भी बादल फटा था. जिसकी वजह से केदारनाथ आपदा आई थी. दस साल बाद फिर वैसी ही घटना हिमालय में देखने को मिली है. इसके अलावा 2014 में झेलम नदी में फ्लैश फ्लड आने की वजह से कश्मीर के कई इलाकों में बाढ़ आ गई थी. 2005 में हिमाचल प्रदेश परेचू नदी में फ्लैश फ्लड से तबाही मची थी. (फोटोः पीटीआई)
सरकार ने माना है कि ग्लेशियरों के पिघलने से नदियों के बहाव में अंतर तो आएगा ही. साथ ही कई तरह की आपदाएं आएंगी. जैसे ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (GLOF), ग्लेशियर एवलांच, हिमस्खलन आदि. जैसे केदारनाथ और चमोली में हुए हादसे थे. इसकी वजह से नदियां और ग्लेशियर अगर हिमालय से खत्म हो गए. तो पहाड़ों पर पेड़ों की नस्लों और फैलाव पर असर पड़ेगा. साथ ही उन पौधों का व्यवहार बदलेगा जो पानी की कमी से जूझ रहे हैं.