होली के पीछे का विज्ञान क्या है? क्यों हम दिन भर रंग खेलते हैं? उससे पहले होलिका दहन करते हैं. क्या रंगों से हमें कोई फायदा होता है? या सिर्फ मौज के लिए होली खेली जाती है. आपको बताएंगे कि होली के क्या फायदे हैं. रंगों से क्या लाभ होता है. जानिए रंगों की होली के पीछे का साइंटिफिक वजह क्या है. (सभी फोटोः एपी/पीटीआई)
सर्दियां खत्म हो रही होती हैं. गर्मियों की शुरुआत होने लगती है. आजकल ग्लोबल वॉर्मिंग और जलवायु परिवर्तन की वजह से ये थोड़ा पहले होने लगा है. लेकिन होली के आसपास के मौसम में वायुमंडल में बैक्टीरिया की मात्रा बहुत ज्यादा होती है. उन्हें नियंत्रित करने में होलिका दहन से काफी फायदा होता है. बैक्टीरिया के संक्रमण से लोग बचते हैं.
मौसम बदल रहा होता है. गर्मियों की शुरुआत हो रही होती है. इस बदलते मौसम में लोग आलस, थकान और कमजोर महसूस करने लगते हैं. क्योंकि मौसम के बदलने में ऐसा हर इंसान के साथ होता है. ऐसे में किसी त्योहार का आयोजन उन्हें नई ऊर्जा से भर देता है. इससे वो आलस, थकान को भूल कर त्योहार मनाने लगते हैं.
रंगों के साथ अबीर-गुलाल और ढोल-मंजीरा बजाते हुए गाना गाते हुए लोग दोस्तों, रिश्तेदारों और मोहल्ले या कॉलोनी वालों के त्योहार का आनंद लेते हैं. इससे उनका आलस, थकान और बोरियत खत्म होती है. इससे उन्हें अगले कई दिनों तक के लिए ऊर्जा मिल जाती है. यह एक मानसिक ऊर्जा और स्फूर्ति देने वाला त्योहार है.
अब बात करते हैं रंगों की. प्राचीन समय में होली में ऑर्गेनिक रंगों यानी प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल होता था. जैसे पीले के हल्दी का इस्तेमाल, हरे के लिए हरी पत्तियों से निकलने वाला रंग, अन्य रंगों के लिए सूखे फूलों का रंग. इन रंगों के इस्तेमाल से शरीर साफ होता था.
इन प्राकृतिक रंगों से त्वचा की सेहत सुधरती थी. क्योंकि रंग पेड़-पौधों से निकाले जाते थे. जैसे- पलाश, हिबिस्कस, चंदन, अनार, केसर, मेंहदी, बिल्व पत्र, गेंदे का फूल, अमलतास आदि. आजकल रंग, अबीर और गुलाल आर्टिफिशियल होते हैं. लोग पेंट जैसी चीजों का इस्तेमाल करते हैं. उनसे सेहत बिगड़ती है.
हल्दी से निकला पीला रंग त्वचा से जहरीले पदार्थों को निकाल देता था. बैक्टीरिया और पैथोजेंस से लड़ता था. हल्दी एंटीबायोटिक होता है. उसका फायदा अलग होता था.
देश के कुछ हिस्सों में होलिका दहन के दिन लोग अपने माथे पर चंदन लगाते थे. साथ ही आम के पत्तों और फूलों को चबाते थे. मान्यता ये थी कि इससे सेहत सुधरती है. अनचाही बीमारियों से राहत मिलती है.
ऊर्जा बनाए रखने के लिए लोग फाग और जोगिरा जैसे लोकगीत गाते थे. पारंपरिक वाद्य यंत्रों का इस्तेमाल करके माहौल को एकदम रंगीन बना देते थे. इन यंत्रों को बजाते समय शरीर की मेहनत से मांसपेशियां खुलती हैं. आलस खत्म होता है.
हरे रंग के लिए मेंहदी, गुलमोहर, पाइन के नीडल पत्तों का इस्तेमाल होता था. या फिर कई बार लोग पालक के पत्तों का भी उपयोग करते थे. टेसू, सूरजमुखी, डेफोडिल, डहलिया के फूलों से पीला रंग मिल जाता था.
नारंगी रंग के लिए केसर, बरबेरी, नींबू को हल्दी पाउडर के साथ मिलाया जाता था. ये रंग शरीर के लिए इतने फायदेमंद होते थे कि त्योहार के बाद आप ऊर्जा से सराबोर रहते थे.
लाल रंग के लिए गुलाब, मदार के पेड़, सेब के तने की छाल या फिर खुशबूदार लाल चंदन की लकड़ी का इस्तेमाल होता था. अनार और गाजर का भी उपयोग किया जाता था. नीले रंग के लिए बरबेरी, ब्लूबेरी, वाइल्ड बेरी जैसे फलों का पेस्ट बनाया जाता था. या फिर चुकंदर का जूस या पाउडर. चुकंदर तो सेहत के लिए कितना फायदेमंद है ये तो आपको पता ही है.