बिना मोबाइल और स्मार्टफोन्स के अब आसान जिंदगी की उम्मीद नहीं की जा सकती. लेकिन क्या आपको पता है कि हमारे स्मार्टफोन्स धरती का धीरे-धीरे कत्ल कर रहे हैं. कैसे? ये बड़ा सवाल है. लेकिन हम आपको इस सवाल का जवाब तो देंगे ही...लेकिन उससे पहले आप ये जान लें कि एक स्मार्टफोन बनाने में जितनी ऊर्जा लगती है, उतनी ऊर्जा में वो दस साल चल सकता है. लेकिन आपको क्या? नया स्मार्टफोन आया...आपने फट से नया खरीद लिया. लेकिन ये नहीं सोचा कि इससे कितनी ऊर्जा बर्बाद हुई. (फोटोः गेटी)
धरती का तापमान लगातार बढ़ रहा है. इससे पर्यावरण पर बुरा असर हो रहा है. ध्रुवीय इलाकों में बर्फ पिघल रही है. जंगलों में आग लग रही है. सूखा पड़ रहा है. समुद्री जलस्तर बढ़ रहा है. धरती का तापमान कैसे बढ़ा रहा है? पूरी दुनिया मानती है कि किसी भी वस्तु का निर्माण यानी मैन्यूफैक्चरिंग, परिवहन यानी ट्रांसपोर्टेशन और तकनीकी कंपनियां वैश्विक गर्मी यानी ग्लोबल वॉर्मिंग (Global Warming) बढ़ाने में सबसे शुरुआती हिस्सेदार हैं. (फोटोः गेटी)
स्मार्टफोन का उपयोग करते समय शायद ही कोई ये सोचता होगा कि इस यंत्र से मिलने वाली सहूलियत के पीछे हमारी धरती के ऊपर न जाने कितना भौतिक और सामाजिक नुकसान हो रहा है. आइए जानते हैं कैसे? आमतौर पर लोग औसतन दो साल में स्मार्टफोन बदल देते हैं. जबकि, वह सही काम कर रहा होता है. मैक्मास्टर यूनिवर्सिटी की स्टडी में बताया गया है कि आप जिन दो सालों में स्मार्टफोन का उपयोग करके छोड़ देते हैं, उतने ही समय में इन्हें बनाने वाली कंपनियां 85 से 95 फीसदी कार्बन उत्सर्जन करती हैं. (फोटोः गेटी)
डाउन टू अर्थ में प्रकाशित एक खबर के मुताबिक एक स्मार्टफोन बनाने में जितनी ऊर्जा लगती है, उतनी ऊर्जा में वो दस साल चल सकता है. लेकिन क्या आपको पता है कि धरती पर ग्लोबल वॉर्मिंग बढ़ाने के मामले में जो इन्फॉर्मेशन एंड कम्यूनिकेशन टेक्नोलॉजी डिवाइसेस (ICT) शामिल हैं, उनमें सबसे ज्यादा खतरनाक स्मार्टफोन्स हैं. IPhone 4S की तुलना में IPhone 6S, 57 फीसदी ज्यादा कार्बन डाईऑक्साइड छोड़ता है. जबकि इसे बनाने वाली कंपनी एपल एक फीसदी से भी कम आईफोन को रिसाइकिल करती है. यही स्थिति लगभग हर मोबाइल कंपनी की है. (फोटोः गेटी)
टेक इंडस्ट्री के लिए सोने का खनन तेजी से बढ़ा है. जिसकी वजह से जंगलों को काटा जा रहा है. जंगल कटते हैं तो प्राकृतिक वायुमंडल और पर्यावरण पर असर होता है. अमेजॉन के जंगलों में कार्बन डॉईऑक्साइड कम होती जा रही है. अब पेड़ CO2 लेंगे नहीं तो ऑक्सीजन देंगे कहां से. चिली, अर्जेंटीना और बोलिविया में बड़े पैमाने पर पानी की कमी हो रही है. क्योंकि यहां से बड़ी मात्रा में लिथियम निकाला जाता है. जिनसे स्मार्टफोन्स की बैटरी बनती है. (फोटोः गेटी)
स्टेस्टिा डॉट कॉम के अनुसार साल 2021 में अब तक 153.53 करोड़ से ज्यादा स्मार्टफोन बिके हैं. जो कि पिछले साल की तुलना में 200 करोड़ ज्यादा हैं. स्मार्टफोन को कचरे में फेंकने वाले लोगों को यह नहीं पता होता कि उनसे निकलने वाले घातक पदार्थ जैसे- मर्करी और साइनाइड के बाइ-प्रोडक्ट स्थानीय जल स्रोतों को प्रदूषित कर देते हैं. स्मार्टफोन से निकलने वाले रसायन ग्राउंडवॉटर यानी भूगर्भीय जल को प्रभावित करते हैं. (फोटोः गेटी)
ग्रीनपीस के अनुमान के अनुसार यूरोपियन यूनियन हर साल 12 मिलियन टन यानी 1200 करोड़ किलोग्राम इलेक्ट्रिकल एंड इलेक्ट्रॉनिक कचरा पैदा करता है. यह आंकड़ा पिछले साल का है. साल 2007 से लेकर 2017 तक दुनिया भर में 710 करोड़ स्मार्टफोन्स का निर्माण किया गया. इनमें से ज्यादातर स्मार्टफोन्स दो साल के बाद छोड़ दिए गए, जो इलेक्ट्रॉनिक कचरे में तब्दील हो गए. (फोटोः गेटी)
साल 2019 में सबसे ज्यादा ई-वेस्ट चीन ने निकाला. चीन ने 10,129 मीट्रिक टन कचरा फेंका. उसके बाद अमेरिका ने 6,918 मीट्रिक टन, भारत ने 3230 मीट्रिक टन, जापान ने 2569 मीट्रिक टन, ब्राजील ने 2143 मीट्रिक टन, रूस ने 1631 मीट्रिक टन, इंडोनेशिया ने 1618 मीट्रक टन, जर्मनी ने 1607 मीट्रिक टन, यूके ने 1598 मीट्रिक टन और फ्रांस ने 1362 मीट्रिक टन कचरा पैदा किया था. (फोटोः गेटी)
ग्रीनपीस की रिपोर्ट के अनुसार साल 2014 में एक स्मार्टफोन्स के निर्माण में 900 TWh यानी 900 टेरावॉट ऑवर ऊर्जा का उपयोग हुआ था. यह उस साल भारत में खर्च की गई पूरी बिजली के लगभग बराबर था. स्मार्टफोन्स की दुनिया में 60 फीसदी बिक्री इसलिए होती है, क्योंकि पुराने फोन को रिप्लेस करना होता है. जबकि जिन फोन को बदला जाता है, उनमें से 90 फीसदी काम कर रहे होते हैं. ज्यादातर फोन की खरीदी सिर्फ इसलिए होती है क्योंकि उनकी गड़बड़ी को सुधारा नहीं जा सकता. (फोटोः गेटी)
यूनाइटेड नेशंस हाई कमिश्नर फॉर रेफ्यूजीस के अनुसार अप्रैल 2021 जलवायु परिवर्तन की वजह से बनने वाले रेफ्यूजी की संख्या 2.15 करोड़ हो चुकी है. इन्हें क्लाइमेट रेफ्यूजी कहते हैं. दुनियाभर के तटीय इलाके समुद्री जलस्तर बढ़ने का खतरा झेल रहे हैं. ऐसा अनुमान है कि बांग्लादेश की 17 फीसदी आबादी का इलाका साल 2050 तक समुद्री पानी में डूब जाएगा. इससे करीब 2 करोड़ लोग बेघर हो जाएंगे. तो क्या भारत इन रेफ्यूजी को संभाल पाएगा? या फिर कोई और पड़ोसी देश. (फोटोः गेटी)
कहने का मतलब ये है कि स्मार्टफोन्स निर्माताओं को अपने इनोवेशन पर ध्यान देना चाहिए. कुछ मिलीमीटर घटा-बढ़ाकर फोन का आकार बदलने और कुछ मेगापिक्सल जोड़कर कैमरे को ताकतवर बताने के बजाय ऐसे स्मार्टफोन बनाने चाहिए जो ज्यादा और लंबा चले. ताकि ऊर्जा की बचत हो सके. उन्हें स्मार्टफोन की लंबी उम्र पर काम करने की जरूरत है. भारतीय मानसिकता भी यही है कि अगर कोई नई चीज चाहिए तो उससे पहले जो उपयोग कर रहे हो, उसे पूरा उपयोग कर लो. (फोटोः गेटी)
लेकिन, दिक्कत अब ये आ रही है कि भारतीय मानसिकता में बदलाव आ रहा है. लोग ज्यादा खरीदने वाली पश्चिमी मानसिकता की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं. यूके स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ लीड्स की एक स्टडी के अनुसार अलग-अलग देशों में ऊर्जा के उपयोग का पैटर्न एकदम अलग है. यूके के 20 फीसदी नागरिक, जर्मनी के 40 फीसदी और लग्जमबर्ग के 100 फीसदी लोग 5 फीसदी ऊर्जा में काम पूरा कर लेते हैं. (फोटोः गेटी)
अंतर यहीं पर दिखता है- यानी पैदा होने वाली 5 फीसदी ऊर्जा लग्जमबर्ग की 100 फीसदी आबादी के लिए काफी है. जबकि, यूके की सिर्फ 20 फीसदी आबादी ही इसका उपयोग कर पाती है. वहीं चीन की 2 फीसदी आबादी ही इस ऊर्जा का उपयोग करती है, जबकि भारत में स्थिति बहुत खराब है. भारत की 0.02 फीसदी आबादी ही उत्पादित ऊर्जा का 5 फीसदी उपयोग कर पाती है. ये तो वो रिकॉर्ड है, जिसका कहीं कोई दस्तावेज है. अवैध रूप से उपयोग भी होता है. (फोटोः गेटी)
गूगल LLC के सह-संस्थापक लैरी पेज ने हाल ही में न्यूजीलैंड की नागरिकता ली है. ऐसी खबरें आई थीं. माना जाता है कि दुनिया में जब सामाजिक प्रलय आएगा तो न्यूजीलैंड सबसे ज्यादा सुरक्षित रहेगा. अब आप कहेंगे कि सामाजिक प्रलय क्या है. यानी इंसान गतिविधियों द्वारा लाई गई आपदा. ये प्राकृतिक भी हो सकती है और मानवीय भी. तो सवाल ये उठता है कि क्या ये जरूरी है कि हम हर दो साल में फोन बदल दें, अगर वह सही काम कर रहा है तो. (फोटोः गेटी)