सबसे पहले तो ये समझते हैं कि हमें रंग कैसे दिखाई देते हैं. जब हम जन्म लेते हैं तो सिर्फ काला, सफेद और ग्रे रंग ही दिखाई देता है. कुछ ही समय बाद ये रेड में बदल जाता है. रेड इसलिए कि इस रंग की वेवलेंग्थ सबसे ज्यादा होती है और जन्म लिए बच्चे की आंखें अभी देखना सीख ही रही होती हैं. फिर इसमें ग्रीन और ब्लू भी जुड़ जाते हैं. ये तीनों ही रंग प्राइमरी कलर हैं, जिसमें कुछ शेड्स के मिलने से सेकेंडरी कलर बनते हैं.
रोशनी की अनुपस्थिति ही है ब्लैक कलर
धीरे-धीरे हम बाकी रंग और उनके शेड्स देखना शुरू करते हैं. साइंस की जबान में समझें तो जब किसी चीज से होते हुए रोशनी परावर्तित होकर हमारी आंखों के रेटिना तक पहुंचती है तभी हम रंग देख पाते हैं. ये तो हुआ रंग देखने का कंसेप्ट. तो बेरंग यानी काला रंग हमें कैसे दिखता है? जब किसी ऑबजेक्ट की सतह से रोशनी परावर्तित नहीं हो पाती, तो हमें जो रंग दिखता है वो ब्लैक है. इससे किसी भी तरह की रोशनी का परावर्तन नहीं हो पाता. यही वजह है कि अंधेरे में हम साफ-साफ नहीं देख पाते.
क्यों जरूरत महसूस होती रही
हमारे पास रोशनी की नामौजूदगी से उपजा काला रंग तो था, लेकिन ये पूरी तरह से ब्लैक नहीं था. साइंटिस्ट लंबे समय तक परफेक्ट ब्लैक तलाशते रहे. इसकी जरूरत भी थी. अगर टेलीस्कोप को काले रंग से रंग दिया जाए तो इससे स्पेस में काफी दूर तक की चीजें देखने में आसानी हो सकती है. स्पेस के लिए तो अस्ट्रा-ब्लैक कोटिंग को काम में लाया ही जा रहा है, साथ ही कोल्ड टेंपरेंचर को पूरी तरह से एब्जॉर्ब कर पाने के कारण इसे ठंडे इलाकों में गर्मी के लिए भी इस्तेमाल कर सकते हैं. इन्हीं जरूरतों के चलते पूरी तरह से काले रंग की खोज चलती रही.
कुल साल पहले एक ब्रिटिश कंपनी सरे नैनो सिस्टम ने ऐसा ब्लैक खोज निकाला, जिसे नाम दिया गया वेंटाब्लैक. दावा हुआ कि ये रोशनी को पूरी तरह से सोख जाता है, जिससे एब्सॉल्यूट डार्कनेस पैदा होती है. ये इतनी ज्यादा है कि अगर काले रंग को किसी ऊंची-नीची सतह पर लगाएं तो सतह चिकनी दिखने लगेगी.
इस तरह किया गया तैयार
कार्बन नैनोट्यूब्स को मिलाकर इस पदार्थ को तैयार किया गया. इसमें हर नैनोट्यूब की मोटाई 20 नैनोमीटर के बराबर है. यानी यह बाल की मोटाई से भी 3,500 गुना पतला है. इनकी लंबाई 14 से 50 माइक्रॉन्स तक है. मतलब, 1 वर्गसेंटीमीटर पर लगभग 1 अरब नैनोट्यूब्स समा जाते हैं. इतना काला रंग बनाने के लिए लगभग 4 सौ डिग्री सेल्सियस तापमान की जरूरत होती है.
किस तरह करता है काम
जैसा कि हम पहले बता चुके, सतह से परावर्तित होकर रोशनी जब आंखों पर पड़ती है तो हम रंग देख पाते हैं, लेकिन वेंटाब्लैक के मामले में ऐसा हो ही नहीं पाता. लाइट रिफ्लेक्ट होने की बजाए बारीक-बारीक नैनोट्यूब्स के बीच फंसकर रह जाती है. कुल रोशनी का करीब 0.04 प्रतिशत हिस्सा ही परावर्तित होकर हम तक पहुंच पाता है. इससे हम कुछ भी देख नहीं पाते. यहां तक कि सतह अगर खुरदुरी हो तो उसका असमतल होना भी नहीं दिख पाता है.
काला रंग अपने साथ विवाद भी लेकर आया
भारतीय मूल के ब्रिटिश कलाकार अनिश कपूर ने इसके सारे अधिकार खरीद लिए. यानी कला की दुनिया का कोई भी शख्स या तो इसका इस्तेमाल नहीं कर सकता, या करे भी तो उसे इसके लिए भुगतान करना होगा. कलाकारों की बिरादरी रंग के राइट्स खरीदने पर काफी समय तक भड़की रही. कई कलाकारों ने वैज्ञानिकों के साथ मिलकर काले रंग के कई शेड्स निकाले, जिनके बारे में उनका दावा था कि ये ब्लैकर देन ब्लैक यानी काले से भी ज्यादा काला रंग है. फिर तो प्रतियोगिता चल निकली.
सबसे सफेद रंग भी आ चुका
अमेरिका की पर्ड्यू यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने इतना सफेद रंग बनाने का दावा किया जिसे लगाने पर गर्म सतह ठंडी हो जाए. एसीएस अप्लाईड मटेरियल्स एंड इंटरफेसेज नाम के जर्नल में छपी रिपोर्ट में बनाने वाले वैज्ञानिकों ने दावा किया कि लगभग सारे रंग सरफेस को गर्म करते हैं, जबकि वाइटेस्ट वाइट इसे ठंडा बनाता है. अगर इस रंग को हजार स्क्वायर फीट की छत पर लगाया जाए तो इससे तेज गर्मी में भी 10 किलोवाट की कूलिंग मिलेगी. ये ज्यादातर एयर कंडीशनर से कहीं ज्यादा ठंडा है. माना जा रहा है कि गर्म इलाकों में सिर्फ रूफटॉप पेंट करके ही बिजली का इस्तेमाल कम किया जा सकेगा.