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साइक्लोन वॉर्निंग सिस्टम, शेल्टर होम... महातूफान की तबाही से लोगों को बचाने का महाअभियान

बिपरजॉय मतलब आपदा, जो गुजरात के सामने खड़ी है. आशंका है पर डर नहीं है. इससे निपटने के सारी तैयारियां हो चुकी हैं. हजारों लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचा दिया गया है. ताकि प्रकृति उनके प्राण न ले. जान बचाने के लिए हमारी एजेंसियां क्या करती हैं, आइए जानते हैं इस रिपोर्ट में...

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महातूफान बिपरजॉय से सामना करने के लिए तैनात हैं हमारे एनडीआरएफ के बहादुर जवान. (सभी फोटोः पीटीआई)
महातूफान बिपरजॉय से सामना करने के लिए तैनात हैं हमारे एनडीआरएफ के बहादुर जवान. (सभी फोटोः पीटीआई)

महातूफान बिपरजॉय का असर तेज होता जा रहा है. तबाही की आशंका के चलते नौसेना, सेना, एयरफोर्स, एनडीआरएफ, एसडीआरएफ जैसी एजेंसियों को तैनात कर दिया गया है. ये सब अलर्ट हैं. 74 हजार लोगों को तटीय इलाकों से हटाकर सुरक्षित स्थानों पर पहुंचा दिया गया है. ताकि किसी की जान न जाए. मौतों को कम करने के लिए हमारी एजेंसियां क्या तरीके अपनाती हैं.  

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सबसे पहले... 

खतरे की मैपिंग करना...  मौसम विभाग, आपदा राहत एवं बचाव की संस्थाएं खतरे की मैपिंग करती हैं. पता करती हैं कि कौन से इलाके में तूफान का खतरा है. वह कब तक आएगा. पुराने चक्रवाती तूफानों जैसा ही है, या किसी नए स्वरूप में आ रहा है. हवा की गति क्या हो सकती है. कौन से इलाके प्रभावित हो सकते हैं. बाढ़ आई तो उसकी फ्रिक्वेंसी क्या होगी. 

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जमीन का सही इस्तेमाल... लोगों को बचाने और तूफान से नुकसान कम हो इसलिए जमीन का सही इस्तेमाल किया जाता है. यानी सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले इलाकों से ऐसी चीजों को हटाया जाता है, जो टूट सकती हैं. या फिर जिनके गिरने या बिखरने से नुकसान हो सकता है. जैसे बाढ़ प्रभावित इलाकों की इमारतें सबसे ज्यादा खतरे में रहती हैं. डूब क्षेत्र से लोगों को बाहर निकाला जाता है. जमीन को खाली करा दिया जाता है. 

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इंजीनियर्ड ढांचे... तूफान और तेज हवा के प्रभाव को रोकने के लिए इंजीनियर्ड ढांचे लगाए जाते हैं. धातु की भारी वस्तुएं तटों और उसके किनारे लगाई जाती हैं. ताकि तेज लहरों और हवा से आगे मौजूद चीजों को सुरक्षित रखा जा सके. 

गैर-इंजीनियर्ड ढांचों को बनाना... तूफान आने से पहले ऐसे ढांचों को तैयार करना जो पहले इंजीनियरिंग के जरिए न बनाई गई हों. ताकि लोगों के घरों को बचाया जा सके. जैसे ऐसी छतों को बनाना तो ढलान जैसी हों. जिनसे हवा टकराए तो नुकसान न हो. बिजली के खंभों जैसे ढांचों के चारों तरफ भारी वस्तुएं रखकर उन्हें स्थिरता प्रदान करना. घरों के अंदर या आसपास मौजूद पेड़ों को काटना, ताकि उनके गिरने से नुकसान न हो. साइक्लोन शेल्टर को ठीक रखना. 

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साइक्लोन शेल्टर... ऐसी इमारतें जो तूफान को बर्दाश्त कर सकती हों, वहां पर लोगों को पहुंचाना. जैसे- स्कूल, सामुदायिक केंद्र, ऑडिटोरियम आदि. अलग-अलग जगहों पर लोगों के रुकने की व्यवस्था करना. ये शेल्टर आबादी की मात्रा को देखकर बनाए जाते हैं. ऐसी जगहों पर जहां से यातायात आसान हो. संचार व्यवस्था बाधित न हो. तूफान प्रभावित क्षेत्र से दूर हों. 

बाढ़ प्रबंधन... चक्रवाती तूफान के दौरान तेजी से बारिश होती है. ऐसे में निचले इलाकों में बाढ़ आने की आशंका बढ़ जाती है. इसलिए नावों की तैयारी रखनी होती है. आपदा राहत एवं बचाव टीम के गोताखोर और तैराक अलर्ट रहते हैं. हेलिकॉप्टर्स और ऊंची गाड़ियों को मुस्तैद रखा जाता है. ताकि बाढ़ वाले इलाके में अगर कोई हो तो उसे निकाला जा सके. इसमें राज्य और केंद्र सरकार की एजेंसियां मिलकर काम करती हैं. 

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पेड़-पौधों का प्रबंधन... पानी के बहाव को रोकने और बाढ़ के असर को कम करने के लिए पेड़-पौधों का प्रबंधन जरूरी है. क्योंकि जहां पर पेड़ ज्यादा होते हैं, वहां पर तेज हवा और बारिश का असर कम होता है. मजबूत पेड़-पौधें उनकी गति को रोकते हैं. पेड़-पौधों को इस तरह से लगाया जाता है कि तेज हवा उनसे टकराकर रुके. आगे बढ़कर रिहायशी इलाकों को नुकसान न पहुंचाए.

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मैन्ग्रूव प्लांटेशन... समुद्र के किनारे मैन्ग्रूव प्लांटेशन करवाना जरूरी है. क्योंकि ये तेज लहरों को तटों से टकराने से रोकते हैं. ये पानी में उगने वाले पौधे होते हैं. जो बेहद मजबूत और लचीले होते हैं. इनकी वजह से सुनामी की लहरें और मिट्टी का कटना रुकता है. 

सलाइन इम्बैंकमेंट... तटों के किनारे सलाइन इम्बैंकमेंट लगाने की वजह से पेड़-पौधों, खेती-बाड़ी, रिहायशी इलाकों को तेज लहरों से बचाया जा सकता है. ये आमतौर पर भारी बोरियों की दीवारें होती हैं. ये किसी बांध की तरह काम करती हैं. 

लेवीज बनाना... ये खास तरह के हवारोधी ढांचे होते हैं, जो तेज गति से आ रही हवा को रोकने में मदद करती है. साथ ही बाढ़ को भी रोकते हैं. 

आर्टिफिशियल पहाड़ बनाना... नकली पहाड़ बनाना. ये मिट्टी या कॉन्क्रीट के हो सकते हैं, ताकि तेज गति से आ रही हवा या ऊंची लहरों से लोगों को बचाया जा सके. 

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लोगों को जागरूक करना... तूफान आने से पहले रेडियो, टीवी, मैसेज या सोशल मीडिया के जरिए संदेश देकर उन्हें सुरक्षित स्थानों पर जाने के लिए कहना. बचाव के तरीके बताना. प्रशासन और बचाव टीमों की बातें सुनना और उनका पालन करना. 

भारत के वो प्रोजेक्ट तो तूफानों से हमें बचाते हैं... 

1. नेशनल साइक्लोन रिस्क मिटिगेशन प्रोजेक्ट... यह एक ऐसा प्रोजेक्ट है, जो पूरे समय सक्रिय रहता है. इसके तहत चक्रवाती तूफानों से बचाने के सभी जरूरी कदम उठाए जाते हैं. तटीय राज्यों और शहरों के लिए नीतियां बनाकर उन्हें लागू कराया जाता है. तटों के किनारे रहने वाले समुदायों को बचाया जाता है. इस प्रोजेक्ट को वर्ल्ड बैंक पैसे दे रहा है. इसे नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी लागू करती है. 

2. इंटीग्रेटेड कोस्टल जोन मैनेजमेंट प्रोजेक्ट... अगस्त 2019 को एनवायरमेंटल एंड सोशल मैनेजमेंट फ्रेमवर्क तैयार किया गया था. ताकि तटीय इलाकों का प्रबंधन किया जा सके. इसे पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय देखता है. इसके जरिए तटीय इलाकों के प्रबंधन की पूरी योजना बनाई जाती है. 

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3. कोस्टल रेगुलेशन जोन... कोस्टल रेगुलेशन जोन का नोटिफिकेशन 2018 और 2019 में लाया गया था. ताकि तटीय इलाकों को सतत विकास किया जा सके. लगातार उन्हें अपडेट किया जा सके. 

4. तूफानों की कलर कोडिंग... मौसम विभाग तूफानों की तीव्रता के अनुसार उनका रंग तय करता है. ताकि लोगों को रंगों से तूफान से आने वाली तबाही का पता चल सके. हमारे यहां चार रंग बताए गए हैं. हरा, पीला, नारंगी और लाल. लाल यानी सबसे ज्यादा खतरा.     

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इसरो के सैटेलाइट रखते हैं तूफानों पर नजर

भारतीय मौसम विज्ञान विभाग ISRO द्वारा लॉन्च किए गए सैटेलाइट्स और राडारों के जरिए देश के आसपास के मौसम पर नजर रखती है. जैसे ही मौसम विभाग को सैटेलाइट या राडार से किसी साइक्लोन के आने की खबर मिलती है. ये उसका रास्ता, गति, तीव्रता आदि ट्रैक करते हैं. इसके बाद तूफान के रास्ते में आने वाले राज्य, एनडीआरएफ, सेना और केंद्र सरकार को सूचित करते हैं.

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जब आपदा आती है, तब ये एजेंसियां करती हैं काम

NDMA: नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी देश की सर्वोच्च संस्था है, जो आपदा के समय लोगों को बचाने और सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाने का काम करती है. इसके प्रमुख खुद देश के प्रधानमंत्री होते हैं. इस संस्था के अंदर आने वाली नेशनल डिजास्टर रेसपॉन्स फोर्स (NDRF) का काम होता है, आपदाओं पर नजर रखना. लोगों को दिशानिर्देश देना और उन्हें बचाना और सुरक्षित रखना. 

NEC: नेशनल एग्जीक्यूटिव कमेटी... इसे भारत सरकार के उच्च स्तरीय मंत्रियों की निगरानी में चलाया जाता है. इसके प्रमुख गृहमंत्री के सचिव होते हैं. जिनके साथ कृषि, एटॉमिक एनर्जी, रक्षा, पानी सप्लाई, पर्यावरण जैसे मंत्रालयों के सचिव भी शामिल होते हैं. यह कमेटी ही राष्ट्रीय आपदाओं से संबंधित नीतियां और योजनाएं बनाती है.

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SDMA: स्टेट डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी... हर राज्य में यह संस्था होती है, जिसका प्रमुख वहां का मुख्यमंत्री होता है. राज्य में भी एक स्टेट एग्जीक्यूटिव कमेटी बनाई जाती है. यह कमेटी SDMA के साथ मिलकर काम करती है. अगर आपदा बड़ी है तो यह राष्ट्रीय संस्थाओं के साथ मिलकर काम करती है. 

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DDMA: डिस्ट्रिक्ट डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी ... इसका प्रमुख जिलाधिकारी होता है. या फिर डिप्टी कमिश्नर या डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट. स्थानीय अथारिटीज से लोगों को चुनकर इसमें रखा जाता है. उनमें से एक उप-प्रमुख होता है. डीडीएमए का काम होता है कि एनडीएमए और एसडीएमए जो नीतियां बनाते हैं, उनका पालन किया जाए. 

स्थानीय प्रशासनः नगरपालिका, पंचायती राज संस्थाएं, जिला प्रशासन, आर्मी कैंटोनमेंट (अगर है तो), टाउन प्लानिंग अथॉरिटी मिलकर आपदाओं से सामना करती हैं. साथ ही सेना या राहत एवं आपदा बचाव टीम को मदद करती हैं. 

सेना/नौसेना/कोस्टगार्ड/अर्धसैनिक बल...  साइक्लोन की स्थिति में देश की सेनाओं और अर्धसैनिक बलों को सक्रिय कर दिया जाता है. अलर्ट मोड पर रहते हैं. ये सभी NDMA, SDMA, NDRF और SDRF के साथ मिलकर लोगों को बचाने और सुरक्षित जगह पर पहुंचाने का काम करते हैं. 

मौतें 10 हजार से घटकर 100 पर आ गईं

1999 में ओडिशा में आए सुपर साइक्लोन में 10 हजार लोग मारे गए थे. लेकिन उसके बाद से लगातार मौसम विज्ञान की तकनीकों में सुधार आया है. जिसकी वजह से पहले ही पूर्वानुमान लग जाता है. ऐसे में अब साइक्लोन की वजह से होने वाली मौतों की संख्या घटकर 100 हो गई है. 

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कैसे बचाए जा रहे हैं देश में साइक्लोन से लोग? 

भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (IMD) को साइक्लोन की भविष्यवाणी करने का 100 साल का अनुभव है. हर दशक में यह सटीक होती चली गई. मौसम विभाग के पास दुनिया के सर्वश्रेष्ठ फोरकास्ट तकनीक है. इस तकनीक की वजह से ट्रॉपिकल साइक्लोन की भविष्यवाणी करना आसान होता है. 

इसके अलावा पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय ने कुछ खास सिस्टम लगा रखे हैं. जैसे- ग्लोबल इन्सेंबल फोरकास्टिंग सिस्टम (GEFS) और NCMRWF इन्सेंबल प्रेडिक्शन सिस्टम (NEPS). इन तकनीकों की वजह से साइक्लोन की सटीक और लाइव जानकारी मिलती रहती है. चेन्नई, कोलकाता, मुंबई, अहमदाबाद, भुवनेश्वर, तिरुवनंतपुरम और विशाखापट्टनम में एरिया साइक्लोन वॉर्निंग सेंटर बने हैं. जो साइक्लोन आने की खबर देते हैं. 

साइक्लोन ट्रैक फोरकास्ट में सुधार 

साल 2020 में सालाना औसत ट्रैक फोरकास्ट एरर में सुधार आया है. 2016 से 20 के बीच 72 घंटे का ट्रैक फोरकास्ट 177 किलोमीटर था. अब यह 111 किलोमीटर है. 48 घंटे का ट्रैक फोरकास्ट पहले 125 किलोमीटर था. अब 85 किलोमीटर है. 24 घंटे का ट्रैक फोरकास्ट पहले 80 किलोमीटर था. अब 72 किलोमीटर है. इसी दौरान यह भी जांच लिया जाता है कि कितनी देर में जमीन के किस हिस्से में तूफान बारिश कराएगा और कितनी कराएगा. इसी तरह कितनी गति से किस दिशा में बढ़ेगा. इसकी सटीकता भी लगातार बढ़ती चली गई है. 

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