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Luna 25 vs Chandrayaan-3 Precaution: क्या शॉर्टकट रूट के कारण क्रैश हो गया रूस का Luna-25? चंद्रयान-3 को लेकर कैसे सावधान है ISRO

सबसे बड़ा सवाल... रूस का Luna-25 क्या जल्दबाजी का शिकार हो गया? क्या शॉर्टकट रास्ता पकड़ने के चक्कर में वो क्रैश हुआ है? अब देखना ये हैं कि Chandrayaan-3 की लैंडिंग को लेकर ISRO के वैज्ञानिक कितने सावधान हैं? आइए... जानते हैं कि रूस के साथ क्या हुआ और चंद्रयान को लेकर क्या है तैयारी...

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बाएं से दाएं... रूस का लूना-25 चांद की सतह पर क्रैश हो चुका है. दो दिन बाद चंद्रयान-3 की लैंडिंग होनी है.
बाएं से दाएं... रूस का लूना-25 चांद की सतह पर क्रैश हो चुका है. दो दिन बाद चंद्रयान-3 की लैंडिंग होनी है.

Russia का चांद पर भेजा गया यान Luna-25 चंद्रमा की सतह पर क्रैश हो चुका है. रूसी स्पेस एजेंसी रॉसकॉसमॉस (Roscosmos) ने यह माना है कि उनसे गलत पैरामीटर्स सेट हुए. डेटा एनालिसिस में गलती हुई. जिससे यान गलत ऑर्बिट में गया और क्रैश हो गया. सवाल ये उठ रहा है कि जल्दी पहुंचने के चक्कर में क्या शॉर्टकट रूट पकड़ना ही रूस को भारी पड़ा? चंद्रयान-3 को लेकर क्या तैयारी है? 

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चांद पर सॉफ्ट लैंडिंग को लेकर रूस का 47 साल का सपना टूट गया. कुछ दिन पहले इसरो के पूर्व वैज्ञानिक विनोद कुमार श्रीवास्तव ने आजतक डॉट इन से खास बातचीत में कहा था कि इतिहास देखिए... जो भी डायरेक्ट पाथ पर चंद्रमा के लिए मिशन भेजे गए हैं. उनमें तीन में से एक मिशन फेल हुआ है. चंद्रयान-3 ने जो रास्ता लिया था उसपर फेल होने की आशंका कम रहती है. 

Russia Luna-25 Moon Mission
रूस का लूना-25 स्पेसक्राफ्ट चांद पर लैंडिंग से ठीक पहले दिशा से भटक गया. दक्षिणी ध्रुव के पास जाकर क्रैश हो गया. (फोटोः रॉसकॉसमॉस) 

Luna-25 के क्रैश होने के बाद रूसी स्पेस एजेंसी ने कहा था कि Luna-25 असली पैरामीटर्स से अलग चल गया था. तय ऑर्बिट के बजाय दूसरी ऑर्बिट में चला गया जहां पर उसे जाना नहीं चाहिए था. इसकी वजह से वह सीधे चांद के दक्षिणी ध्रुव के पास जाकर क्रैश हो गया. 

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चांद की सतह पर उतरना क्यों है बड़ी कठिनाई? 

पूरी दुनिया के वैज्ञानिक यह जानते हैं कि चांद की सतह पर उसके ऑर्बिट से उतरना आसान नहीं है. पहला दूरी. दूसरा वायुमंडल. तीसरा ग्रैविटी. चौथा वर्टिकल लैंडिंग कराते समय इंजन का सही मात्रा में प्रेशर क्रिएट करना. यानी थ्रस्टर्स का सही तरीके से ऑन रहना. नेविगेशन सही मिलना. लैंडिंग की जगह समतल होनी चाहिए. इतनी समस्याओं के अलावा कई और होंगी जो सिर्फ वैज्ञानिकों को पता होंगी. 

मिशन चंद्रयान-3 से जुड़ी स्पेशल कवरेज देखने के लिए यहां क्लिक करें 

कितनी बार सफल लैंडिंग हुई है चांद पर? 

चांद पर पिछले सात दशकों में अब तक 111 मिशन भेजे गए हैं. जिनमें 66 सफल हुए. 41 फेल हुए. 8 को आंशिक सफलता मिली. पूर्व इसरो प्रमुख जी माधवन नायर भी इस बात को बोल चुके हैं कि मून मिशन के सफल होने की संभावना 50 फीसदी रहती है. 1958 से 2023 तक भारत, अमेरिका, रूस, जापान, यूरोपीय संघ, चीन और इजरायल ने कई तरह के मिशन चांद पर भेजे. इनमें इम्पैक्टर, ऑर्बिटर, लैंडर-रोवर और फ्लाईबाई शामिल हैं. 

अगर 2000 से 2009 तक की बात करें तो 9 साल में छह लूनर मिशन भेजे गए थे. यूरोप का स्मार्ट-1, जापान का सेलेन, चीन का चांगई-1, भारत का चंद्रयान-1 और अमेरिका का लूनर रीकॉनसेंस ऑर्बिटर. 1990 से अब तक अमेरिका, जापान, भारत, यूरोपीय संघ, चीन और इजरायल ने कुल मिलाकर 21 मून मिशन भेजे हैं. 

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Russia Luna-25 Moon Mission

चांद के ऑर्बिट में ऐसे पहुंचा था Luna-25 

रूस ने सोयुज रॉकेट से लॉन्चिंग की थी. Luna-25 लैंडर को धरती के बाहर एक गोलाकार ऑर्बिट में छोड़ा गया. जिसके बाद यह स्पेसक्राफ्ट सीधे चांद के हाइवे पर निकल गया. उस हाइवे पर उसने 5 दिन यात्रा की. इसके बाद चांद के चारों के ऑर्बिट में पहुंचा. लेकिन तय लैंडिंग से एक दिन पहले ही क्रैश कर गया. 

लैंडिंग को लेकर की गई थी ये प्लानिंग 

रूस का प्लान था कि 21 या 22 अगस्त को लूना-25 चांद की सतह पर उतरेगा. इसका लैंडर चांद की सतह पर 18 km ऊपर पहुंचने के बाद लैंडिंग शुरू करेगा. 15 km ऊंचाई कम करने के बाद 3 km की ऊंचाई से पैसिव डिसेंट होगा. यानी धीरे-धीरे लैंडर चांद की सतह पर उतरेगा. 700 मीटर ऊंचाई से थ्रस्टर्स तेजी से ऑन होंगे ताकि इसकी गति को धीमा कर सकें. 20 मीटर की ऊंचाई पर इंजन धीमी गति से चलेंगे. ताकि यह लैंड हो पाए. 

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अलग-अलग प्रकार के मून मिशन 

1. फ्लाईबाई- यानी चंद्रमा के बगल से गुजरने वाला मिशन. 
2. ऑर्बिटर यानी चंद्रमा के चारों तरफ चक्कर लगाने वाला मिशन. 
3. इम्पैक्ट यानी चंद्रमा की सतह पर यंत्र गिराने वाला मिशन. 
4. लैंडर यानी चांद की सतह पर सॉफ्ट लैंडिंग. 
5. रोवर यानी चंद्रमा की जमीन पर रोबोटिक स्वचालित यंत्र उतारना. 
6. रिटर्न मिशन यानी वहां से कोई सामान लेकर आने वाला मिशन. 
7. क्रू मिशन यानी इंसान को चांद पर पहुंचाना. 

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Apollo-17 Nasa Mission

किस देश ने भेजे कौन से मिशन

1. फ्लाईबाईः अमेरिका, सोवियत संघ, चीन, जापान, भारत, यूरोपियन स्पेस एजेंसी, इजरायल, संयुक्त अरब अमीरात, लग्जमबर्ग, दक्षिण कोरिया और इटली. 
2. ऑर्बिटरः अमेरिका, सोवियत संघ, चीन, जापान, भारत, यूरोपियन स्पेस एजेंसी, इजरायल, संयुक्त अरब अमीरात, दक्षिण कोरिया. 
3. इम्पैक्टः अमेरिका, सोवियत संघ, चीन, जापान, भारत, यूरोपियन स्पेस एजेंसी, इजरायल, संयुक्त अरब अमीरात, लग्जमबर्ग.
4. लैंडरः अमेरिका, सोवियत संघ और चीन.
5. रोवरः अमेरिका, सोवियत संघ और चीन. 
6. रिटर्नः अमेरिका, सोवियत संघ और चीन.
7. क्रूः अमेरिका. 

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कितने देशों ने कराई सॉफ्ट लैंडिंग

अमेरिकाः 2 जून 1966 से 11 दिसंबर 1972 के बीच अमेरिका ने 11 बार चंद्रमा पर सॉफ्ट लैंडिंग कराई. इसमें सर्वेयर स्पेसक्राफ्ट के पांच मिशन थे. छह मिशन अपोलो स्पेसक्राफ्ट के थे. इसी के तहत नील आर्मस्ट्रॉन्ग ने चांद पर पहला कदम रखा था. जिनके बाद 24 अमेरिकी एस्ट्रोनॉट्स चांद पर गए. अमेरिका का पहला लैंडर चंद्रमा पर 20 मई 1966 में उतरा था. रूस के लैंडर के उतरने के तीन महीने बाद.

रूस (तब सोवियत संघ): 3 फरवरी 1966 से 19 अगस्त 1976 के बीच आठ सॉफ्ट लैंडिंग वाले लूना मिशन हुए. जिसमें लूना-9, 13, 16, 17, 20, 21, 23 और 24 शामिल हैं. रूस कभी भी चांद पर अपने अंतरिक्षयात्रियों उतार नहीं पाया. 3 फरवरी 1966 में लूना-9 चांद पर उतरने वाला पहला मिशन था. लूना के दो मिशन चंद्रमा की सतह से नमूने लेकर भी वापस आए. 

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चीनः भारत के इस पड़ोसी देश ने 14 दिसंबर 2013 को पहली बार चांद पर चांगई-3 मिशन उतारा. 3 जनवरी 2019 को चांगई-4 मिशन उतारा. 1 दिसंबर 2020 को तीसरा मिशन चांगई-5 उतारा. इसमें से आखिरी वाला रिटर्न मिशन था. यानी चांद से सैंपल लेकर आने वाला.

Vikram Lander on Moon

दक्षिणी ध्रुव के आसपास लैंडिंग कठिन

चंद्रमा का साउथ पोल यानी दक्षिणी ध्रुव चुनौतियों से भरा है. वहां लैंडिंग काफी मुश्किल है. लेकिन हमारा चंद्रयान-3 उसके अंधेरे में नहीं उतरेगा. वह उसके पास मौजूद रोशनी वाले इलाके में उतरेगा. ताकि वह सूरज की ऊर्जा से 14 दिनों तक काम कर सके. हालांकि वहां पर तापमान में काफी तेजी से बदलाव होता है. अधिकतम 100 डिग्री सेल्सियस से ऊपर और न्यूनतम माइनस 200 डिग्री सेल्सियस से अधिक हो सकता है. ऐसे में चंद्रयान-3 के यंत्रों को सुरक्षित रखने के लिए सूरज की रोशनी जरूरी है. 

छोटी शॉर्टकट यात्रा जरूरी या लंबी सुरक्षित यात्रा 

चांद सामने दिखता है. वैसे धरती से उसकी दूरी 3.83 लाख किलोमीटर है. ये दूरी सिर्फ चार दिन में पूरी हो सकती है. या हफ्ता भर. नासा अपने यान को चंद्रमा पर चार दिन से हफ्ता भर में पहुंचा देता है. इसरो क्यों नहीं ऐसा करता? क्यों चार दिन के बजाय 40-42 दिन लेता है इसरो. 

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ISRO के इस लंबे स्लिंगशॉट वाले रूट की दो वजह है. पहली बात तो ये धरती के चारों तरफ घुमाकर अंतरिक्षयान को गहरे अंतरिक्ष में भेजने की प्रक्रिया सस्ती पड़ती है. दूसरा इसरो धरती के चारों तरफ मौजूद ग्रैविटी और पृथ्वी की गति का फायदा उठाता है. इसरो के पास नासा की तरह बड़े और ताकतवर रॉकेट नहीं हैं. जो चंद्रयान को सीधे चंद्रमा की सीधी कक्षा में डाल सकें. ऐसे रॉकेट बनाने के लिए हजारों करोड़ रुपए लगेंगे. 

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Vikram Lander Deboosting

बाकी दुनिया से किफायती होता है इसरो का मिशन

चीन ने 2010 में चांगई-2 मिशन चंद्रमा पर भेजा था. वह चार दिन में चांद पर पहुंच गया था. चांगई-3 भी पहुंच गया था. सोवियत संघ का पहला लूनर मिशन लूना-1 सिर्फ 36 घंटे में चांद के नजदीक पहुंच गया था. अमेरिका का अपोलो-11 कमांड मॉड्यूल कोलंबिया भी तीन एस्ट्रोनॉट्स को लेकर चार दिन से थोड़ा ज्यादा समय में पहुंच गया था. 

ISRO के रॉकेट सस्ते और मिशन ज्यादा सेफ होते हैं

चीन, अमेरिका और सोवियत संघ के पास इन अंतरिक्षयानों के लिए बड़े रॉकेट्स का इस्तेमाल किया था. चीन चांग झेंग 3सी रॉकेट इस्तेमाल किया था. इस मिशन की लागत थी 1026 करोड़ रुपए. स्पेसएक्स के फॉल्कन-9 रॉकेट की लॉन्चिंग की कीमत 550 करोड़ से लेकर 1000 करोड़ तक होती है. जबकि इसरो के रॉकेट की लॉन्चिंग कीमत 150 से 450 करोड़ तक ही होती है. 

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अंतरिक्षयान में ईंधन की मात्रा सीमित होती है. उसका इस्तेमाल लंबे समय तक करना होता है. इसलिए उसे सीधे किसी अन्य ग्रह पर नहीं भेजते. क्योंकि इसमें सारा ईंधन खत्म हो जाएगा. फिर वह अपना मिशन पूरा नहीं कर पाएगा. इसलिए धरती के चारों तरफ घुमाते हुए कम ईंधन का इस्तेमाल करके यान को आगे बढ़ाया जाता है. 

Chandrayaan-3 Integrated Module

धरती की गति और ग्रैविटी का लाभ उठाता है ISRO

रॉकेट को सुदूर अंतरिक्ष में भेजने के लिए जरूरी है कि उसे धरती की गति और ग्रैविटी का लाभ दिया जाए. इसे ऐसे समझा जा सकता है. जब आप चलती बस या धीमी गति की ट्रेन से उतरते हैं, तो आप उसकी गति की दिशा में उतरते हैं. ऐसा करने पर आपको गिरने की आशंका 50 फीसदी कम हो जाती है. इसी तरह अगर आप सीधे रॉकेट को अंतरिक्ष की तरफ भेजेंगे तो आपको धरती की गुरुत्वाकर्षण शक्ति ज्यादा तेजी से खीचेंगी. 

धरती की दिशा में उसकी गति के साथ तालमेल बिठाकर उसके चारों तरफ चक्कर लगाने से ग्रैविटी पुल (Gravity Pull) कम हो जाता है. ऐसे में रॉकेट या अंतरिक्षयान को धरती पर गिरने का खतरा कम हो जाता है. धरती अपनी धुरी पर करीब 1600 किलोमीटर प्रतिघंटा की गति से घूमती है. इसका फायदा रॉकेट या अंतरिक्षयान को मिलता है. 

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स्पेसक्राफ्ट को कक्षाओं को बदलने में समय लगता है. इसलिए चंद्रयान-3 को चंद्रमा पर जाने के लिए 42 दिन का समय लगा. क्योंकि चंद्रयान-3 को पांच चक्कर धरती के चारों तरफ लगाना था. फिर लंबी दूरी की लूनर ट्रांजिट ऑर्बिट में यात्रा करनी थी. फिर चांद के चारों तरफ पांच बार ऑर्बिट बदलना था. 

चंद्रयान-2 को धरती के चारों तरफ घुमाने की वजह

- नासा के पास बड़े और ताकतवर रॉकेट होते हैं. उनमें ज्यादा ईंधन लगता है. 
- नासा के रॉकेट धरती के चारों तरफ चक्कर लगाने के बजाय सीधे लूनर ट्रांजिट ट्रैजेक्टरी में डाल देते हैं. 
- इसरो धरती की ग्रैविटी का फायदा ऐसे उठाता है, जैसे समुद्र में नाव तैरती है. 
- चंद्रयान-3 धरती के चारों तरफ मौजूद ग्रैविटी के समंदर में तैरते हुए आगे बढ़ता है. 
- वह अपनी गति के साथ-साथ धरती की गति का फायदा उठाता है. उसकी गति में बढ़ोतरी होती है. 
- इसलिए ही दुनिया के सारे रॉकेट लॉन्च पूर्व की दिशा की तरफ होते हैं. ताकि धरती की गति की मदद मिले. 
- इसरो नासा जितने बड़े और ताकतवर रॉकेट नहीं बनाता. इसलिए वह अपने यान को स्लिंगशॉट करता है.
- यानी एक निश्चित जगह पर आकर चंद्रयान-3 के इंजन को ऑन करके उसकी दूरी बढ़ा दी जाती है. 

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