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ज्यादा ऊंचाई पर उड़ने को होंगे मजबूर, वजह है वायुमंडल में हो रहा खतरनाक बदलाव

धरती के वायुमंडल में ऐसा खतरनाक बदलाव आ रहा है, जिसका सीधा असर हमारी उड़ानों पर पड़ेगा. यानी हमारे विमानों को ज्यादा एयर टर्बुलेंस बर्दाश्त करना होगा. अगर इससे बचना है तो विमानों के उड़ान की ऊंचाई और बढ़ानी पड़ेगी. यानी विमानों के संचार तकनीक और नेविगेशन प्रणाली को ज्यादा ताकतवर बनाना होगा. असल में धरती के वायुमंडल का निचला हिस्सा फैल रहा है.

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धरती के वायुमंडल के निचले हिस्से पर क्लाइमेट चेंज का नुकसानदेह असर. (फोटोः गेटी)
धरती के वायुमंडल के निचले हिस्से पर क्लाइमेट चेंज का नुकसानदेह असर. (फोटोः गेटी)
स्टोरी हाइलाइट्स
  • 40 साल में ट्रोपोस्फेयर के ऊपर जाने की गति तेजी से बढ़ी है.
  • वायुमंडल का निचला हिस्सा ऊपर गया तो विमानन क्षेत्र में आएगी ज्यादा दिक्कत.
  • दुनियाभर के देशों को ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन तेजी से करना होगा कम.

धरती के वायुमंडल में ऐसा खतरनाक बदलाव आ रहा है, जिसका सीधा असर हमारी उड़ानों पर पड़ेगा. यानी हमारे विमानों को ज्यादा एयर टर्बुलेंस बर्दाश्त करना होगा. अगर इससे बचना है तो विमानों के उड़ान की ऊंचाई और बढ़ानी पड़ेगी. यानी विमानों के संचार तकनीक और नेविगेशन प्रणाली को ज्यादा ताकतवर बनाना होगा. असल में धरती के वायुमंडल का निचला हिस्सा फैल रहा है. 

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धरती के उत्तरी गोलार्द्ध (Northern Hemisphere) के ऊपर पिछले 40 सालों में वायुमंडल का निचला हिस्सा ऊपर की ओर जा रहा है. यानी तेजी से फैल रहा है. यह हर दस साल में 164 फीट ऊपर चला जाता है. इस निचले हिस्से को हम सामान्य वैज्ञानिक भाषा में ट्रोपोस्फेयर (Troposphere) कहते हैं. इसकी सबसे बड़ी वजह है क्लाइमेट चेंज यानी जलवायु परिवर्तन. इस बात खुलासा हाल ही में जर्नल साइंस एडवांसेस में प्रकाशित स्टडी में किया गया है. 

ट्रोपोस्फेयर वायुमंडल का निचला हिस्सा होता है, जिसमें हम जीते हैं और सांस लेते है. (फोटोःगेटी)
ट्रोपोस्फेयर वायुमंडल का निचला हिस्सा होता है, जिसमें हम जीते हैं और सांस लेते है. (फोटोःगेटी)

कोलोराडो के बोल्डर स्थित नेशनल सेंटर फॉर एटमॉस्फियरिक रिसर्च के साइंटिस्ट बिल रैंडल ने अपने बयान में कहा कि हमारा वायुमंडल बुरी तरह से प्रभावित हो रहा है. यह एक सीधा तरीका है समझने का क्लाइमेट चेंज की वजह से अगर ट्रोपोस्फेयर ऊपर जाता है तो उसकी जगह ग्रीनहाउस गैस लेंगी. इससे मौसम बदलेगा, बेमौसम बादलों का निर्माण होगा. ज्यादा ऊंचाई पर बादल बनने पर विमानों को एयर टर्बुलेंस की समस्या से जूझना होगा. 

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क्या होता है Troposphere? 

ट्रोपोस्फेयर (Troposphere) की परत हमारे वायुमंडल का सबसे निचला हिस्सा है. इसी हिस्से में हम जीते हैं और सांस लेते हैं. यह समुद्र की सतह से शुरु होता है. ध्रुवों पर इसकी ऊंचाई 7 किलोमीटर होती है. जबकि, भूमध्यरेखा पर इसकी ऊंचाई 20 किलोमीटर है. इसी परत के अंदर गर्मी और नमी होती है. जिसकी वजह से कई तरह की वायुमंडलीय गतिविधियां होती हैं. जैसे- बारिश, तूफान, चक्रवात आदि. 

वायुमंडल में हवा तब ऊपर की ओर जाती है या फैलती है जब वह गर्म होती है. इसलिए ट्रोपोस्फेयर (Troposphere) की ऊपरी सीमा को ट्रोपोपॉज (Tropopause) कहते हैं. यह प्राकृतिक तौर पर कम और ज्यादा होती रहती है. यह मौसम के अनुसार बदलती रहती है. अगर ज्यादा ग्रीनहाउस गैसें निकलेंगे तो वायुमंडल में गर्मी बढ़ेगी. जिससे ट्रोपोपॉज और ऊपर चला जाएगा. 

कम ऊंचाई पर ज्यादा तूफानी बादल बनने की वजह से होता है एयर टर्बुलेंस. (फोटोः गेटी)
कम ऊंचाई पर ज्यादा तूफानी बादल बनने की वजह से होता है एयर टर्बुलेंस. (फोटोः गेटी)

40 सालों में ट्रोपोस्फेयर तेजी से ऊपर की ओर भागा

स्टडी के मुताबिक 1980 से 2000 के बीच ट्रोपोस्फेयर हर दस साल में 164 फीट ऊपर गया. लेकिन साल 2001 से 2020 के बीच यह हर दस साल में 174 फीट की गति से ऊपर गया है. साल 1980 के दशक में हुआ दो बड़े ज्वालामुखी विस्फोट और अल-नीनो की वजह से 1990 के दशक में आने वाले मौसमी बदलावों की वजह से वायुमंडल का निचला हिस्सा प्रभावित हुआ था. लेकिन साल 2001 के बाद से अब तक इंसानी गतिविधियों की वजह से ट्रोपोस्फेयर का 80 फीसदी हिस्सा ऊपर गया है. यानी क्लाइमेट चेंज की वजह से. 

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बिल रैंडल कहते हैं कि अभी दुनियाभर के वैज्ञानिक इस बात को लेकर एक नतीजे पर नहीं पहुंच पाए हैं कि ट्रोपोस्फेयर के ऊपर जाने से किस-किस तरह के असर पड़ेंगे. लेकिन एक बात तो यह है कि मौसम ज्यादा बदलेगा. तूफानी बादलों की वजह से विमानों को एयर टर्बुलेंस से ज्यादा सामना करना होगा. इसलिए दुनियाभर को ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम करना होगा. नहीं तो विमानन सेवा पर काफी ज्यादा असर पड़ सकता है. 

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