जॉन हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी की स्टडी में पाया गया कि हैमबर्गर के साथ जब हाई क्लाइमेट चेंज का लेवल लगाया गया, तो लगभग 23% कस्टमर्स नॉनवेजिटेरियन बर्गर से शाकाहारी बर्गर की तरफ आ गए. साथ ही जिन डिशेज पर लो-क्लाइमेट चेंज की मार्किंग थी, उनकी खपत 10% ज्यादा हो गई. इस स्टडी को लेते हुए साइंटिस्ट सुझा रहे हैं कि होटल- रेस्त्रां में खाने के आइटम के साथ-साथ ये भी लिखा जाए कि किस रॉ मटेरियल से क्लाइमेट चेंज पर कितना असर पड़ता है.
क्या है स्टडी?
'इफेक्ट ऑफ क्लाइमेट चेंज इंफेक्ट मेन्यू लेवल्स' नाम से ये स्टडी अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन के एक जर्नल जामा नेटवर्क में 27 दिसंबर को प्रकाशित हुई. सर्वे में 5 हजार से ज्यादा वयस्कों की फूड चॉइस को देखा गया, जिसके बाद उन्हें क्लाइमेट चेंज के बारे में बताते हुए अपनी पसंद पर दोबारा सोचने को कहा गया. इसके बाद लगभग 23% ग्राहकों ने अपना ऑर्डर बदल दिया.
खाने के आइटम का क्लाइमेट चेंज से क्या वास्ता!
ये संबंध उतना ही सीधा है, जितना चीनी और मिठाई का. यूनिवर्सिटी ऑफ लीड्स ने साल 2021 में 3 हजार से भी ज्यादा फूड आइट्स की स्टडी की ताकि समझा जा सके कि किसके कारण पर्यावरण में कितनी ग्रीनहाउस गैस निकल रही है. इसमें पाया गया कि मीट, खासकर रेड मीट की वजह से ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन शाहाकारी खाने की तुलना में 41 प्रतिशत बढ़ जाता है.
स्टडी में कई और चौंकाने वाले तथ्य भी थे
जैसे पुरुषों की डायट के कारण क्लाइमेट चेंज की रफ्तार बढ़ रही है. ये इसलिए क्योंकि पुरुष अपनी डायट में मीट ज्यादा प्रेफर करते हैं, वहीं महिलाएं फूड चॉइस में आमतौर पर सावधान रहती हैं. अध्ययन में ये भी दिखा कि प्लांट-बेस्ड डायट लेने वाले लोग जाने-अनजाने में ही क्लाइमेट चेंज की गति कम कर रहे हैं.
मीट से कैसे हो रहा पर्यावरण को नुकसान
इसपर दुनियाभर में बहुतेरी रिसर्च आ चुकी हैं. महीनेभर पहले ही ब्रिटेन की कार्बन बीफ संस्था ने एक डेटा जारी किया, जिसके अनुसार मांस और डेयरी उद्योग हर साल 7.1 गीगाटन ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन करता है. इसमें भी बीफ सबसे ऊपर है. एक किलोग्राम बीफ के लिए लगभग 60 किलो ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है. यानी हर किलो पर 10 गुनी जहरीली गैस. मांस उद्योग को चलाए रखने के लिए, चारे के इंतजाम के लिए जंगल भी काटे जाते हैं. यही वजह है कि आजकल प्लांट-बेस्ड डायट पर तो जोर है.
लैब में हो रही मीट बनाने की कोशिश
ज्यादातर विकसित देश, जहां मीट-कंजप्शन ज्यादा है, वे इसके विकल्प के तौर पर लैब में मीट तैयार करने की कोशिश कर रहे हैं. साल 2018 के आखिर में ही इसकी शुरुआत हो चुकी थी, जिसे नाम मिला- क्लीनमीट. यानी ऐसा मांस जो पर्यावरण को कम से कम नुकसान पहुंचाए.
वैसे ये आर्टिफिशियल मीट भी असल मीट से ही बनेगा. इसके लिए मांस के छोटे टुकड़े से मूल कोशिका को अलग करके बायोलॉजिकल प्रोसेस के जरिए इनकी संख्या को कई लाख-करोड़ गुना बढ़ाया जाएगा. इससे लैब में ही मीट तैयार हो सकेगी. हालांकि इसपर भी मीट-प्रेमियों का कहना है कि ये नकली मीट होगा, जिसे खाने पर कई बीमारियों का डर हो सकता है.