भारतीय मौसम वैज्ञानिक को अनुमान है कि वो अगले पांच वर्षों में इतने एक्सपर्ट बन जाएंगे कि वो बारिश, बिजली और ओलों की बारिश पर नियंत्रण कर लेंगे. यानी जब जहां जरूरत होगी, वहां बारिश करवा पाएंगे. अगर कहीं बहुत तेज बारिश हो रही है, तो उसे रोक देंगे या कम कर देंगे. ऐसा ही वो बिजली और ओलों के साथ भी करेंगे.
इस बार में एक अंग्रेजी अखबार को पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के सेक्रेटरी एम. रविचंद्रन ने बताया कि हम बारिश को दबाने और बढ़ाने का शुरूआती एक्सपेरीमेंट करने जा रहे हैं. पहले 18 महीनों तक लैब में क्लाउड चैंबर्स बनाकर उनके अंदर प्रयोग किए जाएंगे. लेकिन यह पक्का है कि पांच साल में हम निश्चित तौर पर कृत्रिम तरीके से मौसम में बदलाव ला सकते हैं. यानी आर्टिफिशियल वेदर मॉडिफिकेशन कर सकते हैं.
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रविचंद्रन ने बताया कि यह केंद्र सरकार की योजना मिशन मौसम (Mission Mausam) का हिस्सा है. इसे आगे बढ़ाने की मंजूरी कैबिनेट से मिल चुकी है. जब रविचंद्रन से यह पूछा गया कि क्या 15 अगस्त को दिल्ली में बारिश को कम किया जा सकता है, ताकि लोग आजादी के जश्न का आनंद ले सकें, तो उन्होंने कहा कि ये ट्राई किया जा सकता है.
मिशन मौसम के तहत और क्या करेंगे वैज्ञानिक?
मिशन मौसम के तहत सिर्फ बारिश, बिजली और ओलों पर नियंत्रण ही नहीं होगा. बल्कि भविष्य के मौसम की एकदम सटीक भविष्यवाणी करने की तैयारी भी चल रही है. शॉर्ट और मीडियम रेंज फोरकास्ट को 5-10 फीसदी तक लाने का प्रयास है. इसके लिए भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (IMD) एड़ी-चोटी का जोर लगा रहा है.
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मौसम विभाग का कहना है कि वह ऐसी तैयारी कर रहा है भारत को क्लाइमेट स्मार्ट कहा जाए. हम एक भी प्राकृतिक प्रक्रिया को मिस नहीं करेंगे. पहले ही बता देंगे कि किस इलाके में बादल फटने वाला है. ऐसी जानकारियों के लिए साइंटिस्ट Mausam GPT बना रहे हैं. यह चैटजीपीटी की तरह का एप्लीकेशन होगा. जहां पर मौसम संबंधी जानकारियां बेहद तेजी से मिलेंगे. यह लिखित में भी होंगी और ऑडियो फॉर्मेट में भी.
इन देशों में किया जाता है बारिश को कंट्रोल करने का प्रयास
बारिश को तेज करने या उसे दबाने का काम अमेरिका, कनाडा, चीन, रूस औऱ ऑस्ट्रेलिया समेत कुछ और देशों में होता है. इसके लिए क्लाउड सीडिंग प्रोजेक्टस चलते हैं. कहीं पर ओवरसीडिंग कराई जाती है. इससे ओलो के गिरने की आशंका कम हो जाती है, ताकि फसलों और फलों के बागान को नुकसान न हो. फिलहाल इसके लिए जो प्रयोग चल रहा है उसे क्लाउड एयरोसोल इंटरैक्शन एंड प्रेसिपिटेशन इनहैंसमेंट एक्सपेरिमेंट (CAIPEEX) नाम दिया गया है.
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क्या है आर्टिफिशियल रेन यानी कृत्रिम बारिश?
कृत्रिम बारिश के लिए वैज्ञानिक आसमान में एक तय ऊंचाई पर सिल्वर आयोडाइड, ड्राई आइस और साधारण नमक को बादलों में छोड़ते हैं. इसे क्लाउड सीडिंग (Cloud Seeding) कहते हैं. इसके जरूरी है कि आसमान में कम से कम 40 फीसदी बादल हों. जिनमें थोड़ा पानी मौजूद हो. दिक्कत ये है कि नवंबर में राजधानी के ऊपर बादलों की मात्रा कम रहती है. इसलिए क्लाउड सीडिंग में प्रॉब्लम आ सकती है.
क्लाउड सीडिंग के लिए बादलों में पानी जरूरी
क्लाउंड सीडिंग तभी संभव हो पाएगा, जब आसमान में 40 फीसदी बादल हों. उन बादलों में पानी यानी लिक्विड की मात्रा हो. जरूरी नहीं कि इसके लिए विमान से बादलों के बीच उड़ान भरी जाए. यह काम बैलून या रॉकेट से भी किया जा सकता है. लेकिन इसके लिए बादलों का सही सेलेक्शन जरूरी है. सर्दियों में बादलों में पर्याप्त पानी नहीं होता. सर्दियों में इतनी नमी नहीं होती कि बादल बन सके. मौसम ड्राई होगा तो पानी की बूंदे जमीन पर पहुंचने से पहले ही भांप बन जाएंगी.
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एक बार बारिश कराने की लागत 10 से 15 लाख रुपए
कृत्रिम बारिश पर करीब 10 से 15 लाख रुपए का खर्च आएगा. अब तक दुनिया में 53 देश इस तरह का प्रयोग कर चुके हैं. कानपुर में छोटे विमान से इस आर्टिफिशियल रेन के छोटे ट्रायल किए गए हैं. कुछ में बारिश हुई तो कुछ में सिर्फ बूंदाबांदी. उदाहरण के तौर पर आर्टिफिशियल बारिश से वायु प्रदूषण का इलाज खोजा जाता है.
इससे कुछ देर के लिए राहत मिल सकती है. 4-5 दिन या 10 दिन. इससे ज्यादा फायदा नहीं होगा. दूसरा खतरा ये है कि अगर अचानक तेज हवा चली तो केमिकल किसी और जिले के ऊपर जा सकता है. आर्टिफिशियल बारिश दिल्ली में होने के बजाय मेरठ में हो गई तो सारी मेहनत बेकार. इसलिए बादलों और हवा के सही मूवमेंट की गणना भी जरूरी है.