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ताकि श्रीलंका के एयरस्पेस में न घुसे भारत का रॉकेट, ईंधन की हो बचत... इसलिए ISRO को पड़ी दूसरे लॉन्चिंग सेंटर की जरूरत!

भारत को दूसरे स्पेसपोर्ट की जरूरत क्यों है? दरअसल श्रीहरिकोटा भारी रॉकेट लॉन्च करने में तो उत्कृष्ट है, लेकिन पीएसएलवी और 500 किलोग्राम वजन के उपग्रहों को तैनात करने के लिए डिज़ाइन किए गए एसएसएलवी जैसे लॉन्च वाहनों के लिए चुनौतियां पेश करता है. श्रीहरिकोटा से पोलर ऑर्बिट के लिए जब लॉन्चिंग की जाती है तो रॉकेट का प्रक्षेपण पथ ऐसा होता है कि लॉन्च व्हीकल को श्रीलंका के आसमान में उड़ान भरने की आवश्यकता होती है, इससे सुरक्षा संबंधी चिंताएं पैदा होती हैं.

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कुलशेखरपट्टनम से SSLV की लॉन्चिंग हो सकेगी.
कुलशेखरपट्टनम से SSLV की लॉन्चिंग हो सकेगी.

भारत को जल्द ही श्रीहरिकोटा जैसा दूसरा स्पेसपोर्ट मिलने वाला है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बुधवार को तमिलनाडु के कुलशेखरपट्टनम में भारत के लिए दूसरे स्पेसपोर्ट की आधारशिला रखी. 

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नया प्रस्तावित स्पेसपोर्ट भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) की श्रीहरिकोटा लॉन्च सेंटर से 700 किलोमीटर अधिक दूर है और इसे छोटे उपग्रहों को लो अर्थ ऑर्बिट (LEO) में लॉन्च करने के लिए विकसित किया जा रहा है.

लेकिन देश को नए स्पेसपोर्ट की जरूरत क्यों है? इससे पहले की हम इस पर चर्चा करें, इसरो के मौजूदा लॉन्च सेंटर के बारे में जान लें. 

1970 के दशक में अपनी स्थापना के साथ ही श्रीहरिकोटा स्थित सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र कई लॉन्च को सफलतापूर्वक अंजाम देने में अहम रोल निभाता रहा है और भारत के स्पेस मिशन का धुरी बन गया है. 

श्रीहरिकोटा भारत का रणनीतिक विकल्प

भारत के पूर्वी तट पर स्थित श्रीहरिकोटा केवल भौगोलिक सुविधा का मामला नहीं है, बल्कि ये देश के लिए एक रणनीतिक विकल्प है जो रॉकेट प्रक्षेपण की दक्षता और क्षमता को महत्वपूर्ण रूप से बढ़ाता है. 
 
श्रीहरिकोटा का भूमध्य रेखा से निकट होना विशेष रूप से लाभप्रद है. भूमध्य रेखा वो बिन्दू है जहां पर पृथ्वी का पश्चिम से पूर्व की ओर घूर्णन सबसे तेज़ होता है, इस वजह से इस स्थान से छोटे गए रॉकेटों को अतिरिक्त धक्का मिलता है.

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क्या है श्रीहरिकोटा का पॉजिटिव फैक्टर

पृथ्वी के घूर्णन वेग की वजह से मिलने वाला ये नैचुरल बूस्ट रॉकेट को ऑर्बिट (कक्षा) में पहुंचने के लिए जरूरत पड़ने वाले ईंधन में कमी करता है. 
नतीजतन, इससे पेलोड की क्षमता बढ़ जाती है, इस वजह से लॉन्चिंग अधिक कुशल और कम खर्च में हो जाता है. 

यह विशेशता श्रीहरिकोटा को भूमध्यरेखीय कक्षाओं में भेजे जाने वाले मिशनों के लिए विशेष रूप से उपयुक्त बनाती है. ऐसी ऑर्बिट का उपयोग आमतौर पर संचार और मौसम उपग्रहों के लिए किया जाता है, क्योंकि वे पृथ्वी की सतह का अधिकत्तम कवरेज प्रदान करते हैं.

​श्रीहरिकोटा का समुद्र से निकट होना एक और पॉजिटिव फैक्टर है. पानी के ऊपर रॉकेट लॉन्च करने से खराबी या दुर्घटना की स्थिति में आबादी वाले क्षेत्रों में नुकसान होने का जोखिम कम हो जाता है. लॉन्चिंग या रॉकेट के ऊपर उठने के दौरान किसी दुर्घटना की स्थिति में, रॉकेट और उसका मलबा बिना किसी हानि के समुद्र में गिर जाता है, जिससे संपत्ति को नुकसान होने या जमीन पर लोगों को नुकसान होने की आशंका कम हो जाती है.

साथ ही, इससे लॉन्च व्हीकल के प्रारंभिक स्टेज को आबादी वाले क्षेत्रों से दूर सुरक्षित रूप से फेंकने में मदद मिलती है. 

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इसरो को नए स्पेसपोर्ट की आवश्यकता क्यों है?

जैसे-जैसे भारत अपने अंतरिक्ष मिशन का विस्तार कर रहा है, देश को अतिरिक्त लॉन्चिंग इंफ्रास्ट्रक्चर की जरूरत पड़ रही है. विशेष रूप से छोटे पेलोड (कुछ सौ किलोग्राम) वाले छोटे रॉकेटों और पोलर ऑर्बिट में भेजने के लिए भारत को नए लॉन्चिंग स्टेशन की जरूरत महसूस हो रही है. 

श्रीहरिकोटा भारी रॉकेट लॉन्च करने में उत्कृष्ट है, लेकिन यह ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण वाहन (पीएसएलवी) और 500 किलोग्राम वजन के उपग्रहों को तैनात करने के लिए डिज़ाइन किए गए छोटे उपग्रह प्रक्षेपण वाहन (एसएसएलवी) जैसे लॉन्च वाहनों के लिए चुनौतियां पेश करता है. 

श्रीलंका के साथ भू-राजनीतिक सवाल

इसके अलावा, जब श्रीहरिकोटा से पोलर ऑर्बिट (ध्रुवीय कक्षाओं) के लिए लॉन्चिंग की जाती है तो रॉकेट का प्रक्षेपण पथ ऐसा होता है कि लॉन्च व्हीकल को श्रीलंका के आसमान में उड़ान भरने की आवश्यकता होती है, इससे सुरक्षा संबंधी चिंताएं पैदा होती हैं. 

इन चिंताओं को दूर करने के लिए रॉकेट बहुत ईंधन खर्च कर मैनअरिंग करते हैं ताकि एसएसएलवी की पेलोड कैपसिटी को कम किया जाए. "डॉग-लेगिंग" के रूप में जानी जाने वाली इस तकनीक में भू-राजनीतिक बाधाओं से बचने के लिए उड़ान के बीच में रॉकेट के पथ को बदलना शामिल है.

इसके अतिरिक्त, अंतरिक्ष यान की लॉन्चिंग की दिशा, जिसे अजीमुथ (Azimuth) कहा जाता है, उसकी कक्षा निर्धारित करने के लिए आवश्यक है. उदाहरण के लिए, जीएसएलवी 104 डिग्री और 107 डिग्री के बीच अज़ीमुथ पर लॉन्च होता है, जिससे यह बंगाल की खाड़ी के ऊपर बने एक पथ का अनुसरण कर सकता है. 

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दूसरी ओर, पोलर सैटेलाइट के लिए के लिए पीएसएलवी को 140 डिग्री या उससे अधिक के अज़ीमुथ पर लॉन्च किया जाता है, ताकि श्रीलंका के ऊपर उड़ान भरने से बचने के लिए दिशा में थोड़ा बदलाव किया जा सके.

भारत के दूसरे स्पेसपोर्ट के रूप में कुलशेखरपट्टनम के विकसित होने भारत को इन चुनौतियों का समाधान करने में मदद मिलेगी. इस स्थान का रणनीतिक चयन पृथ्वी की घूर्णन की दिशा का लाभ देता है, जिससे भारत कम ईंधन खर्च कर कुशल प्रक्षेपण कर सकेगा. 

इसके अतिरिक्त, समुद्र तट के किनारे बसे होने की वजह से प्रक्षेपण यान से किसी मलबे के निकलने और उसके रिहायशी इलाकों पर गिरने का जोखिम कम हो जाता है.इससे यह स्थान लॉन्चिंग के लिए और भी सुरक्षित हो जाता है. 

यह केंद्र न केवल अंतरिक्ष प्रक्षेपण की दिशा में भारत की क्षमता का विस्तार है, बल्कि ग्लोबल स्पेसक्रॉफ्ट लॉन्च मार्केट में एक बड़ा हिस्सा हासिल करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम भी है. 

(रिपोर्ट- मनीष पुरोहित)

मनीष पुरोहित अंतरिक्ष यान सौर पैनल विशेषज्ञ हैं, उनके पास चंद्रयान -2 और मंगलयान सहित महत्वपूर्ण अंतरिक्ष अभियानों में काम करने का अनुभव है.

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