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रूस से सटा वो गांव, जहां काम करते-करते एकदम से सोने लगे लोग, हफ्तों तक नहीं टूट पाती थी नींद, वैज्ञानिकों ने बताई वजह

कजाकिस्तान के दो ऐसे गांव हैं, जहां लोग कुछ घंटे नहीं, बल्कि कई दिन या हफ्तों सोते रह जाते हैं. साल 2010 में ये बीमारी पहली बार दिखी. लोग चलते-फिरते, यहां तक कि ऑफिस का काम करते हुए गहरी नींद में जाने लगे. जागने पर उन्हें कुछ याद नहीं रहता था. वैज्ञानिक इसके पीछे अलग-अलग कारण खोजते रहे. आखिरकार इन गांवों को खाली कराना पड़ गया.

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कजाकिस्तान में लगभग एक दशक पहले अजीबोगरीब बीमारी दिखी. सांकेतिक फोटो (Pixabay)
कजाकिस्तान में लगभग एक दशक पहले अजीबोगरीब बीमारी दिखी. सांकेतिक फोटो (Pixabay)

आजकल डॉक्टरों के पास पहुंचने वाले बहुत से लोग नींद न आने की शिकायत करते हैं. वे परेशान हैं कि उन्हें 8 तो क्या 5 घंटे भी बढ़िया नींद नहीं आती, वहीं दुनिया के एक हिस्से में अलग ही माजरा दिखता है. नब्बे के दशक में सोवियत संघ से अलग हुए देश कजाकिस्तान के दो गांवों में लोग कहीं भी सोए दिख सकते हैं. रूसी और जर्मन आबादी वाले गांवों कलाची और क्रास्नो गोरस्क में ये दृश्य इतना आम है कि साइंटिस्ट इन्हें स्लीपी हॉलो भी कहने लगे, यानी नींद लाने वाली खोह. 

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इस तरह हुई शुरुआत 

उत्तरी कजाकिस्तान के ये गांव हमेशा से ही ऐसे नहीं थे. साल 2010 में पहली बार ऐसा हुआ, जब स्कूल गए बच्चे क्लास चलते हुए ही एकाएक सो गए. पहले तो टीचरों ने उन्हें डांटने-जगाने की कोशिश की, फिर देखा कि कोई भी आवाज उन्हें नींद से नहीं उठा पा रही. बच्चे एक-दो घंटे या दिन नहीं, लगभग पूरे हफ्ते वहीं सोए रहे. इसके बाद हर उम्र के लोगों के साथ ऐसा होने लगा. शुरुआत में इसे नए किस्म का स्ट्रोक माना गया, लेकिन ऐसा था नहीं. लोग सड़क पर चलते हुए या दफ्तरों में काम करते हुए नींद की झोंक में आने लगे.

अगले दो सालों के भीतर लगभग एक हजार की आबादी वाले कलाची गांव में डेढ़ सौ लोगों के साथ ऐसा हो चुका था. कई लोगों को नींद के कई एपिसोड्स से जूझना पड़ा. सोने से पहले अच्छा-खासा काम करने लोग अचानक सिर घूमने की शिकायत करते. फिर उन्हें नींद आ जाती. जागने के बाद वे कई दिनों तक सामान्य नहीं हो पाते थे, बल्कि सिरदर्द, मतिभ्रम जैसी दिक्कतें आती रहतीं. 

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kazakhstan sleeping village mystery caused by lack of oxygen in the brain
अचानक और ज्यादा नींद आना भी बीमारियों का संकेत है. सांकेतिक फोटो (Getty Images)

शुरुआत में इसे मास हिस्टीरिया माना गया

मनोवैज्ञानिकों का तर्क था कि ये भी अमेरिका की 'बिन लादेन इच' नाम की बीमारी जैसी कोई चीज है. दरअसल अमेरिका में आतंकी हमले के बाद वहां के लोग स्किन पर रैशेज और खुजली की शिकायत लेकर आने लगे. उन्हें इसके अलावा कोई समस्या नहीं थी. बाद में पता चला कि एक तरह का मनोवैज्ञानिक असर था, जो आतंकी हमलों से पैदा हुए डर के कारण दिखने लगा था. समय के साथ ये खुद ही खत्म हो गया. ये तो हुई अमेरिका की बात, लेकिन कजाकिस्तान पर तो कोई टैरर अटैक नहीं हुआ था, फिर वहां मास हिस्टीरिया जैसी कोई बात भी नहीं होनी चाहिए. 

क्या न्यूक्लियर हथियार थे वजह!

लगातार ऐसा होने पर वहां की सरकार अलर्ट हुई. सबसे पहला शक नेशनल न्यूक्लियर सेंटर पर गया. बता दें कि सोवियत संघ के दौर में इस हिस्से में न्यूक्लियर वेपन पर काफी काम होता था. वहां यूरेनियम की खदानें हुआ करती थीं. हालांकि वो अरसा पहले बंद कराई जा चुकी थीं. साइंटिस्ट्स को शक हुआ कि शायद रेडिएशन के कारण ब्रेन पर असर हो रहा हो.

टाइम मैग्जीन की एक रिपोर्ट के मुताबिक 20 हजार से भी ज्यादा टेस्ट और क्लिनिकल ट्रायल हुए. मिट्टी, पानी, हवा, खाने, पशुओं यहां तक कि बिल्डिंग मटेरियल तक की जांच हुई कि प्रॉब्लम आखिर किससे हो रही है. 

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ब्रेन में ऑक्सीजन की कमी से भी नींद आती लगती है. सांकेतिक फोटो (Pexels)

हवा में घुल चुका था जहर

साल 2015 में तत्कालीन डिप्टी प्राइम मिनिस्टर बेर्डिबेक सापेरबेव ने एक प्रेस वार्ता में माना कि यूरेनियम खदानों की वजह से ऐसा हो रहा था. असल में खदानों पर लंबे समय तक काम चलता रहा और इनके बंद होने के बाद भी कार्बन मोनोऑक्साइड रिलीज होती रही. ये हवा में मिलकर लोगों के ऑक्सीजन स्तर को कम कर रही थी.

क्या होता है ब्रेन पर असर

इसका असर मस्तिष्क पर होता. ये इस तरह से होता है कि जब ब्रेन में पर्याप्त ऑक्सीजन नहीं होती, बल्कि कार्बन मोनोऑक्साइड आ जाती है, तो यही हीमोग्लोबिन से अटैच हो जाती है. इससे कार्बोक्सीहीमोग्लोबिन बनता है. ये वो अवस्था है, जिसे कार्बन मोनोऑक्साइड पॉइजनिंग भी कहते हैं. 

वैसे वैज्ञानिक भाषा में इस स्टेज को सेरिब्रल हाइपॉक्जिया कहते हैं. यह मस्तिष्क के उस हिस्से पर असर डालता है, जो हमें सचेत रहने, सोचने-समझने और काम करने के लिए प्रेरित करता है. ऑक्सीजन की सप्लाई कम होने से 5 मिनट के भीतर न्यूरॉन्स मरने लगते हैं. सेरिब्रल हिमेस्फेयर पर हुए इस असर से जान भी जा सकती है, अगर तुरंत मेडिकल मदद न मिले. 

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स्लीप अटैक कोई अलग बीमारी नहीं, बल्कि किसी खास बीमारी का लक्षण है. सांकेतिक फोटो (Pixabay)

इन वजहों से भी ब्रेन की ऑक्सीजन सप्लाई पर असर

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बीते दिनों कुछ ऐसे मामले आपने भी सुने होंगे, जहां गैस गीजर लीक होने की वजह से जान चली गई. ये कार्बन मोनोऑक्साइड पाइजनिंग ही थी, जिससे ब्रेन में ऑक्सीजन की कमी हो गई. ऊंचाई पर जाने पर या ब्लड शुगर बहुत नीचे चले जाने पर भी ऐसा हो सकता है. हवा और पानी में कार्बन मोनोऑक्साइड की ज्यादा मात्रा की रिपोर्ट आने के बाद साल 2015 में ही वहां बसे हुए लोगों को रीसैटल किया जाने लगा. इसके बाद से वहां स्लीपिंग सिकनेस की शिकायत आनी भी बंद हो गई. 

इस बीमारी में आता है स्लीप अटैक

ज्यादा सोने से जुड़ी एक और बीमारी है, जिसे नारकोलेप्सी कहते हैं. इसमें रैम यानी रैपिड आई मूवमेंट वाली नींद ज्यादा होती है, जिसमें सपने आते हैं, मस्तिष्क सक्रिय रहता है और मरीज को बहुत ज्यादा नींद लेने के बाद भी नींद की कमी महसूस करता है. इस बीमारी का मरीज कोई भी काम करते हुए अचानक सो जाता है, लेकिन ये सोना आम नींद की तरह नहीं होता, बल्कि मरीज का अपने शरीर की मसल्स से नियंत्रण चला जाता है. और वो नींद में चला जाता है. कुल मिलाकर, यह अवस्था एक तरह का स्लीप पैरालिसिस है, जो कुछ मिनटों से लेकर लगभग आधे घंटे की हो सकती है.

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स्लीप पैरालिसिस की कई वजहें हो सकती हैं. ज्यादातर मामले ब्रेन में एक न्यूरोकेमिकल- हाइपोक्रीटिन की कमी के चलते ऐसा होता है. स्वाइन फ्लू के संक्रमण के बाद भी कुछ मरीजों में नारकोलेप्सी जैसे लक्षण दिखे. हालांकि वैज्ञानिक निश्चित नहीं हैं कि H1N1 वायरस इस बीमारी से कोई सीधा संबंध है भी, या नहीं. ये बीमारी जेनेटिक भी हो सकती है.

 

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