दुनिया को जोड़ने में एविएशन इंडस्ट्री का बहुत बड़ा हाथ रहा. हम कुछ ही घंटों में देश के एक से दूसरे कोने, यहां तक कि दूसरे देश भी पहुंच सकते हैं. यहां बाकी पब्लिक ट्रांसपोर्ट की तरह न तो खड़े हुए सफर करना होगा, न कोई दूसरी बड़ी दिक्कत होगी. यहां तक कि रोड ट्रैवल की तुलना में दुर्घटना का डर भी बहुत कम रहता है. हालांकि ये भी सच है कि अगर एक्सिडेंट होता है तो छोटा-मोटा नहीं, बल्कि जानलेवा होता है. टेक-ऑफ और लैंडिंग के दौरान फेटल एक्सिडेंट ज्यादा होते हैं.
क्या कहता है डेटा
उड़ान के दौरान कब सबसे ज्यादा हादसे होते हैं, इसपर एविएशन सेफ्टी नेटवर्क के अलावा अमेरिका के नेशनल ट्रासंपोर्टेशन सेफ्टी बोर्ड ने भी एक जैसा डेटा दिया. इसके मुताबिक हर 1 लाख घंटे की उड़ान में 6.84 घंटे एक्सिडेंट का डर रहता है. वहीं हर 1 लाख उड़ानों में 1.19 हादसे ऐसे होते हैं, जो जानलेवा साबित होते हैं. वैसे ज्यादातर मामलों में हादसे से पहले ही विमान चालक उसे संभाल लेता है.
निजी विमानों में हादसों का डर कम
आंकड़ों में ये भी माना गया कि प्राइवेट प्लेन के क्रैश होने की दर साल 1980 के बाद से तेजी से कम हुई. इसकी वजह ये है कि इसमें बेहद ट्रेंड विमान चालकों को ही रखा जाता है, साथ ही विमान लगातार अपग्रेड होता रहता है ताकि किसी भी तरह की तकनीकी खराबी की आशंका न रहे.
इस दौरान होती हैं दुर्घटनाएं
अब बात करें लैंडिंग और टेकऑफ की, तो विमानन की भाषा में इसे मेनुवरिंग फेज कहते हैं, यानी वो समय जब फ्लाइट एक तरह से पैंतरेबाजी कर रही होती है. यही वो समय है, जब चालक को सबसे ज्यादा सतर्क रहना होता है क्योंकि इसी वक्त हादसे का सबसे ज्यादा डर रहता है. शुरुआत करते हैं टेक-ऑफ से, यानी वो समय जब फ्लाइट उड़ान भरने के लिए दौड़ रही होती है.
टेक-ऑफ पूरी जर्नी का सिर्फ 2% हिस्सा है, लेकिन इसी दौरान 14% हादसे होते हैं. टिपिकल कमर्शिकल फ्लाइट की बात करें तो पायलट के पास इसके लिए मुश्किल से 1 मिनट होता है. अगर इसी दौरान इंजन फेल हो जाए, या लैंडिंग गेयर जाम हो जाए तो उसके पास सोचने के लिए थोड़ा भी समय नहीं होता, बस एक्शन लेना होता है.
रनवे पर फ्लाइट लगभग 100 mph की गति में दौड़ रही होती है, ऐसे में इसे रोकना संभव नहीं. फ्लाइट रोकने के लिए स्पीड इससे कहीं कम होना चाहिए, वरना एक्सिडेंट तय है. यही वजह है कि बहुत कम ही आपने सुना होगा कि रन-वे पर दौड़ते हुए कोई फ्लाइट रुक गई और उड़ान स्थगित हो गई.
लैंडिंग इससे भी कहीं मुश्किल हिस्सा है
जब हम नीचे उतर रहे होते हैं, हवा की गति फ्लाइट पर ज्यादा असर करती है. ऐसे में अगर मौसम खराब है तो ऊंची उड़ान के दौरान उतना फर्क नहीं पड़ेगा, जितना उतरते हुए. एक डर बर्ड-स्ट्राइक का भी रहता है. बेहद ऊंचाई पर पक्षी विमान से नहीं टकरा सकते लेकिन नीचे उतरने हुए वे हमारे लेवल पर होते हैं. ऐसे में उनके टकराने पर हादसे का डर रहता है.
फेडरल एविएशन एडमिनिस्ट्रेशन की मानें तो 61% मामलों में बर्ड-स्ट्राइक लैंडिंग फेज के दौरान, जबकि 36% मामले टेक-ऑफ के समय दिखते हैं. इनके बीच बेहद कम केस हुए, जब पंक्षी विमान के लेवल पर आए हों.
पक्षियों को भगाया जा रहा
कई देशों में किसी खास समय पर माइग्रेटरी बर्ड्स की भरमार हो जाती है, जो आमतौर पर सामान्य से ऊंची उड़ान भरती हैं. ऐसे में एयरपोर्ट अथॉरिटी कई तकनीकें इस्तेमाल करती है ताकि इन पक्षियों को रास्ते से भगाया जा सके. ज्यादातर जगहों पर एयरक्राफ्ट के मूवमेंट एरिया में अल्ट्रासोनिक बर्ड रिपेलर का उपयोग करते हैं.
वैसे बता दें कि बर्ड-स्ट्राइक के मामले में विमान में किसी तरह की तकनीकी खराबी का डर बढ़ जाता है. यही वजह है कि ऐसा होने पर फ्लाइट की इमरजेंसी लैंडिंग कराई जाती है ताकि जांच और पूरी तसल्ली से हो सके. 5% मामलों में पक्षियों के टकराने के तुरंत बाद हादसा हो जाता है.
क्यों होता है ऐसा
ऐसा इसलिए है कि पंक्षी के टकराने से प्लेन का टर्बाइन क्षतिग्रस्त हो जाता है, जिसके संतुलन खराब होना तय है. इसके अलावा कई बार पक्षी इंजन में फंस जाते हैं, जिससे आग लग सकती है. इंटरनेशनल सिविल एविएशन ऑर्गेनाइजेशन ने 91 देशों में सर्वे के बाद माना कि रोज 34 जगहों पर बर्ड-स्ट्राइक के मा्मले होते हैं.
हार्ड लैंडिंग भी एक समस्या
लैंडिंग के दौरान विमान 150 से 165 mph की स्पीड से जमीन को हिट करते हुए दौड़ता है. कई बार पायलट की चूक के कारण फ्लाइट ज्यादा वर्टिकल स्पीड में जमीन से टकराती है, जिससे भी हादसों का खतरा होता है. इसे तकनीकी भाषा में हार्ड लैंडिंग भी कहते हैं. कभी-कभी मौसम या ओवरवेट एयरक्राफ्ट भी इसकी वजह बनते हैं.
मानवीय-भूल बड़ी वजह
अक्सर पायलट और को-पायलेट के फैसला लेने की क्षमता से फर्क पड़ता है. जैसे कई बार ये देखा गया कि वे गेयर-अप लैंडिंग करा देते हैं, यानी लैंडिंग हड़बड़ी में हो जाती है, जबकि एयरक्राफ्ट के लैंडिंग गेयर पूरी तरह से खुले भी नहीं होते. इसमें फ्लाइट में आग लगने या उसके फिसलकर दुर्गटनाग्रस्त होने का बहुत डर होता है. यही वजह है कि समय-समय पर एयरक्राफ्ट की मेंटेनेंस के अलावा विमान चालकों के लिए रिफ्रेशर कोर्स भी होते हैं. साथ ही एक निश्चित समय तक विमान उड़ाने के बाद ही वे कमर्शियल पायलट कहलाते हैं.
विमान-चालकों को माना जा रहा जिम्मेदार
कमर्शियल उड़ानों की शुरुआत में ज्यादातर एविएशन हादसे तकनीकी खराबी के चलते होते थे. ये वो समय था, तकनीक को लेकर लगातार प्रयोग हो रहे थे. वहीं अब लगभग 80 प्रतिशत मामलों में ह्यमन-एरर की वजह से हादसे हो रहे हैं. एविएशन इंडस्ट्री में कहीं-कहीं ये भी माना जा रहा है कि लगबग 88 प्रतिशत मामलों में एक्सडेंट ह्यूमन-एरर के कारण हो रहे हैं, जबकि बाकी के लिए मेंटेनेंस की कमी और खराब मौसम जिम्मेदार है.