प्लास्टिक के कण हमारी नसों तक भी पहुंचने लगे हैं. पब्लिक लाइब्रेरी ऑफ साइंस के जर्नल प्लॉस वन में छपी स्टडी में पहली बार नसों में प्लास्टिक का पता लगा. इसका खुलासा एक मरीज के दिल की बाईपास सर्जरी के दौरान हुआ, जब उसके टिश्यू में माइक्रोप्लास्टिक की काफी मात्रा दिखी. यूनिवर्सिटी ऑफ हल और हल यॉर्क मेडिकिल स्कूल ने इस मामले को देखते हुए जॉइंट स्टडी की और पाया कि ऐसा लगभग सभी के साथ है.
नसों में मिल रहे ये सभी पार्टिकल्स अल्केड राल और पॉलीविनाइल एसिटेट के थे. ये वो चीजें हैं, जो पेंट, कपड़ों और पैकेजिंग के सामान में काम आती हैं. शोधकर्ताओं ने हैरानी जताते हुए कहा कि पिछले साल ही स्टडी में पता लगा था खून में माइक्रोप्लास्टिक पहुंचने लगा है, लेकिन तब भी ये नहीं लगा था ये यह नसों तक पहुंच सकता है. नसों में पहुंचने के जरिए को लेकर भी एक्सपर्ट अभी निश्चित नहीं हैं.
लगभग 80 फीसदी लोगों के खून में बह रहा प्लास्टिक
पिछले साल अप्रैल में एक स्टडी में खून में प्लास्टिक होने की बात पता लगी थी. वैज्ञानिकों ने अपनी जांच के दौरान पाया कि ये छोटे-छोटे पार्टिकल्स 80 फीसदी लोगों में थे. एनवायरमेंट इंटरनेशनल जर्नवल में छपी स्टडी में 22 लोगों के ब्लड सैंपल की जांच की गई, जिसमें लगभग सभी के खून में माइक्रोप्लास्टिक था. तभी एक्सपर्ट्स ने चेतावनी दी थी, कि ये जल्द ही खून से होते हुए अंगों तक पहुंचकर कोई बहुत गंभीर स्थिति ला सकता है.
किस तरह की बीमारियों का खतरा?
फिलहाल तक ये ठीक से पता नहीं लग सका है कि प्लास्टिक के चलते शरीर के भीतर क्या बदलता है, लेकिन माना जा रहा है कि इससे मेटाबॉलिज्म की प्रोसेस धीमी पड़ती जाती है, साथ ही एंटीबायोटिक रेजिस्टेंस भी जरूरत से ज्यादा हो जाता है, इससे शरीर की कोशिकाएं खुद को ही दुश्मन मानकर लड़कर खत्म हो सकती हैं. फिलहाल सीमित स्टडी की वजह से इसपर ज्यादा जानकारी नहीं है.
क्रेडिट कार्ड जितना प्लास्टिक जा रहा
साल 2022 में ही मेडिकल यूनिवर्सिटी ऑफ विएना ने भी आंतों में प्लास्टिक की भारी मात्रा की मौजूदगी देखी थी. एक्सपोजर एंड हेल्थ में छपे इस अध्ययन में दावा किया गया कि हर हफ्ते एक इंसान उतना ही प्लास्टिक खाता या सांस के जरिए ले लेता है, जितना बड़ा एक क्रेडिट कार्ड होता है. इससे मेटाबॉलिक बीमारी जैसे मोटापा, डायबिटीज और लिवर की बीमारियों का डर बढ़ता है.
आखिर क्या है माइक्रोप्लास्टिक?
पचास के दशक से लेकर अब तक लगभग 8.3 खरब टन प्लास्टिक का उत्पादन हो चुका है. इसमें से लगभग 80 प्रतिशत प्लास्टिक लैंडफिल में बदल गया. फेंका हुआ प्लास्टिक छोटे-छोटे टुकड़ों में बंटकर माइक्रो और नैनो प्लास्टिक में बदल जाता है. ये मिट्टी और पानी को प्रदूषित करने लगता है और यहीं से इंसानों समेत बाकी जीव-जंतुओं के भीतर भी पहुंचने लगता है.
वैसे माइक्रोप्लास्टिक 0.001 से 5 मिलीमीटर साइज का होता है, जो आसानी से खत्म नहीं हो सकता. और यही बात इसे खतरनाक बनाती है. वैसे तो खुली आंखों से ये दिखाई नहीं देते लेकिन अगर आप UV लाइट के साथ खड़े हो जाएं और बिल्कुल पास ही आपको हवा में छोटे-छोटे कण दिखेंगे. ये माइक्रोप्लास्टिक हैं. डराने वाली बात ये है कि घर के भीतर माइक्रोप्लास्टिक कहीं ज्यादा पाए जाते हैं.
सेहत पर क्या पड़ता है असर?
साल 2021 में माइक्रोप्लास्टिक के असर पर रिसर्च हुई, जिसमें खुलासा हुआ कि हम रोज लगभग 7 हजार माइक्रोप्लास्टिक के टुकड़े अपनी सांस के जरिए लेते हैं. पोर्ट्समाउथ यूनिवर्सिटी की स्टडी में माना गया कि ये वैसा ही है, जैसा तंबाखू खाना या सिगरेट पीना. फिलहाल ये पता नहीं लग सका कि प्लास्टिक की कितनी मात्रा सेहत पर बुरा असर डालना शुरू कर देती है, लेकिन ये बार-बार कहा जा रहा है कि इससे पाचन तंत्र से लेकर हमारी प्रजनन क्षमता पर भी बुरा असर होता है. प्लास्टिक कैंसर-कारक भी है.
हमारे खून और नसों में कहां से आ रहा होगा?
इसके कई स्त्रोत हैं. जैसे सिंथेटिक पेंट, पैकेजिंग के सामान और यहां तक कि कपड़ों में भी माइक्रोप्लास्टिक है. नायलॉन, स्पैन्डेक्स, एसीटेट, पॉलिएस्टर, ऐक्रेलिक और रेयॉन जैसे फैब्रिक को जब हम धोते या झटकारते हैं तो इनमें से रेशे निकलते हैं. ये हवा या फिर वॉशिंग मशीन से होते हुए मिट्टी-पानी तक पहुंच जाते हैं और इकोसिस्टम का हिस्सा बनकर वापस हम तक लौट आते हैं. अध्ययनों के मुताबिक, माइक्रोप्लास्टिक टूथपेस्ट से लेकर साबुन और कॉस्मेटिक्स में भी मिलने लगे हैं.