जिस तरह से पहाड़ों पर शहरीकरण हो रहा है. कुछ ही सालों में जोशीमठ की तरह नैनीताल, मसूरी, शिमला और धर्मशाला भी खत्म हो जाएंगे. अगर शहरीकरण पर ध्यान नहीं दिया गया तो ये सभी पहाड़ी पर्यटन स्थल प्राकृतिक आपदाओं के शिकार हो जाएंगे. न सरकार बचा पाएगी. न इंसान और न ही पहाड़ों की प्रकृति खुद.
अब बात करते हैं जोशीमठ की. गढ़वाल के हिमालय पर 1890 मीटर की ऊंचाई पर बसा एक ऐसा ट्रांजिट प्वाइंट जहां से बद्रीनाथ और हेमकुंड साहिब के लिए रास्ता जाता है. आबादी करीब 20 हजार है. पिछले कुछ दिनों में प्रशासन ने 600 लोगों को अपने घर को खाली करके सुरक्षित स्थानों पर जाने को कहा है. अगर भूकंपीय जोन के आधार पर देखे तो जोशीमठ Zone V में पड़ता है. यहां पर टेक्टोनिक फॉल्ट लाइन वाइक्रिता थ्रस्ट (VT) है.
वाइक्रिता थ्रस्ट के पास ही दो और फॉल्ट लाइन्स हैं. एक है मेन सेंट्रल थ्रस्ट (Main Central Thrust) और दूसरा है पांडुकेश्वर थ्रस्ट (Pandukeshwar Thurst). यह विष्णुप्रयाग इलाके में आता है. यानी तीनों फॉल्ट लाइन्स में जरा सी भी हलचल होती है, तो जोशीमठ के धंसने की प्रक्रिया अपने आप शुरू हो जाएगी. असल में फॉल्ट लाइन्स जमीन के अंदर मैदानी दरारें होती हैं. या फिर वहां पर पत्थरों में बड़े पैमाने पर असमानता होती है. अगर फॉल्ट लाइन्स, टेक्टोनिक प्लेट्स के बीच कोई हलचल होती है, तो यहां पर मेगाथ्रस्ट जोन पैदा होगा. जो जोशीमठ को हिला सकता है.
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जोशीमठ के नीचे दक्षिण दिशा की तरफ धौलीगंगा बहती हैं. उत्तर की तरफ अलकनंदा नदी. इसके अलावा कुंवारी पास के आसपास कई छोटी नदियां बहती हैं, जैसे- धकनाला, करमनासा, पातालगंगा, बेलाकुची और गरुड़गंगा. अक्टूबर 2021 में ऋषिगंगा और धौलीगंगा में आए फ्लैश फ्लड की वजह से इन छोटी नदियों का स्ट्रीम बदल गया था. वह भी लैंडस्लाइड की वजह से.
1976 की मिश्रा कमेटी रिपोर्ट
1976 में मौजूद सरकार ने गढ़वाल के कलेक्टर एमसी मिश्रा को कहा था कि आप 18 सदस्यीय कमेटी बनाइए और हिमालयन सीमा पर मौजूद भू-धंसाव वाले इलाकों की जांच कीजिए. जब मिश्रा कमेटी ने जोशीमठ की जांच की तो पता चला कि यह शहर तो एक बेहद प्राचीन भूस्खलन के मलबे पर बसा है. यह लगातार धंस रहा है. यहां पर पुराने पत्थर, जेनेसिक पत्थर, कमजोर मिट्टी थी. इनकी ताकत नहीं थी कि ये अपने ऊपर कोई वजन संभाल सकें.
कमेटी की रिपोर्ट में कहा गया था कि जोशीमठ रेत और पत्थरों के मलबे पर बसा है. यहां कोई मजबूत पत्थर नहीं है. यह कस्बा बनाने के लिए उपयुक्त स्थान नहीं है. जोरदार धमाकों, ट्रैफिक आदि से जो कंपन होता है, उससे मिट्टी धंस रही है. इनकी वजह से प्राकृतिक संतुलन बिगड़ेगा.
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जोशीमठ लगातार भू-धंसाव के लक्षण दिखा रहा है. ऐसा सिर्फ इंसानों की बढ़ती आबादी, बढ़ते शहरीकरण, बेतरतीब निर्माणकार्य की वजह से हो रहा है. साथ ही यह स्थान टेक्टोनिक अनियमितताओं वाली जगह पर मौजूद है. ईकोलॉजी खराब होती चली गई. साथ ही भूकंपीय गतिविधियां. इसकी वजह से जोशीमठ लगातार भूस्खलन और भू-धंसाव के प्रति संवेदनशील रहा है.
तपोवन विष्णुगढ़ हाइड्रो-इलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट
THDC केंद्र सरकार और उत्तर प्रदेश सरकार के बीच हुए एक समझौते के तहत बन रहा है. यह एक 12.1 किमी लंबा 444 मेगावॉट का रन-ऑफ-रिवर हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट है. जब यह पूरा हो जाएगा तब 1665 गीगावॉट प्रतिघंटे के हिसाब से बिजली हर साल देगा. यह इसलिए प्लान किया गया था ताकि उत्तर भारतीय ग्रिड को बिजली सप्लाई दी जा सके. इस प्रोजेक्ट को प्राइमरी फंडिंग वर्ल्ड बैंक दे रहा है. प्रपोजल 2009 में आया था. 2011 में सैंक्शन हुआ. जून 2023 तक पूरा होने की उम्मीद है.
हालांकि, यह प्रोजेक्ट पिछले एक दशक से ज्यादा समय से आगे बढ़ता जा रहा है. वजह है कई प्रकार की प्राकृतिक आपदाएं. वजह ये है कि प्रोजेक्ट शुरू करने से पहले सही से वैज्ञानिक तरीकों से भौगोलिक अध्ययन नहीं किया गया. वर्ल्ड बैंक के एक पैनल के पास चमोली जिले के हाट गांव के लोगों ने इस बारे में शिकायत की थी. यह गांव फरवरी 2021 में आई आपदा के समय पूरी तरह बर्बाद हो गया था. क्योंकि नंदा देवी के ऊपर ग्लेशियर बर्स्ट हुआ था.
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NTPC की टनल का निर्माण
एनटीपीसी यानी नेशनल थर्मल पावर कॉर्पोरेशन की टनल जोशीमठ कस्बे के नीचे से नहीं जाती. टनल की खुदाई ब्लास्ट करके नहीं हो रही है. बल्कि खुदाई टनल बोरिंग मशीन से की जा रही है. यह बात एनटीपीसी ने खुद बयान देकर कही है. कहा जाता है कि टनल बोरिंग मशीन एक जगह पर जाकर फंस गई थी. जिसे निकालने के लिए एनटीपीसी ने वहां पर ब्लास्ट किए थे. इस ब्लास्ट की वजह से जोशीमठ की ढलानों पर दरारें आने लगी हैं. उनके अंदर से पानी के सोते फूट गए हैं. जिसकी वजह से अब शहर धंस रहा है.
बीआरओ का हेलांग-मारवाड़ी बाईपास प्रोजेक्ट
हेलांग से जोशीमठ होते हुए मारवाड़ी तक छह किलोमीटर लंबा बाईपास बन रहा है. इसका प्रस्ताव 2019 में दिया गया था. पिछले साल स्थानीय लोगों के विरोध के बावजूद निर्माण शुरु हुआ है. इसके बनने से बद्रीनाथ की यात्रा 16 किलोमीटर कम हो जाएगी. स्थानीय लोगों का कहना था कि इस सड़क के बनने से पुरानी सड़क पर मौजूद स्थानीय व्यवसायियों का बिजनेस ठप हो जाएगा.
विरोध के बाद इस सड़क की चौड़ाई को 12 मीटर से कम करके 5.5 मीटर कर दिया गया. इसे एकतरफा मार्ग घोषित कर दिया गया. यहां पर सिर्फ सड़क के चौड़ीकरण का काम हो रहा है. किसी तरह का ब्लास्ट नहीं किया जा रहा है. यह जानकारी बॉर्डर रोड ऑर्गेनाइजेशन ने सड़क एवं परिवहन मंत्रालय को दी थी.
चारधाम प्रोजेक्ट का बद्रीनाथ हाइवे
चारधाम प्रोजेक्ट का महत्वपूर्ण हिस्सा है बद्रीनाथ हाइवे. यह प्रोजेक्ट 900 किलोमीटर लंबी सड़क योजना है. जिसमें चारों धामों की यात्रा शामिल है. गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ. यह प्रोजेक्ट 12 हजार करोड़ रुपये का है. यह इसलिए तैयार किया जा रहा है ताकि इन धामों की यात्रा करने वालों को किसी तरह की दिक्कत न हो. यात्रा सुरक्षित हो. इस प्रोजेक्ट की घोषणा के साथ ही इसका विरोध होने लगा था क्योंकि उत्तराखंड के पहाड़ जम्मू और कश्मीर के पहाड़ों की तरह मजबूत नही हैं. ये बात 1976 में मिश्रा कमेटी की रिपोर्ट में भी कही गई थी. पिछले साल 9 दिसंबर तक सिर्फ 291 किलोमीटर सड़क ही बनी है. जबकि प्रस्तावित है 825 किलोमीटर. सड़कों का निर्माण कार्य अदालती कार्यवाही और विरोधों की वजह से रुका हुआ है.
चारधाम रेलवे और टनल प्रोजेक्ट
साल 2019 में शुरु हुआ ऋषिकेष-कर्णप्रयाग रेलवे लाइन. यह 125 किलोमीटर की रेलवे लाइन है. इस प्रोजेक्ट में 17 सुरंगें बननी हैं. इसके अलावा मुख्य सुरंग अलग होगी. बलास्टलेस ट्रैक्स और 35 ब्रिज बनाए जाएंगे. अगले एक दशक में केंद्र सरकार ने उत्तराखंड में 66 सुरंगें हिमालय में बनाने की घोषणा की है. जिसमें से 18 सक्रिय हैं. सुरंगों को सैंडविक डीटी 821सी और डीटी 922आई एडवांस्ड ऑटोमैटिक जंबो ड्रिल्स के जरिए पहाड़ों के अंदर सुरंग बनाया जा रहा है.
ये मशीने पत्थरों में ड्रिलिंग करके बड़ा सुरंग बना रही हैं. ताकि ब्लास्ट से बचा जा सके. सुरंग के साथ ही समानांतर एस्केप टनल भी बनाई जा रही है. रेलवे सुरंगों का नुकसान भविष्य में यह होगा कि यहां पर भारी ट्रेनें चलेंगी. जिससे कंपन होगा. उत्तराखंड के पहाड़ ज्यादा देर तक और लंबे समय तक कंपन सहने के क्षमता नहीं रखते. हल्का सा भूकंप आया या भू-धंसाव हुआ तो पूरा का पूरा रेलवे इंफ्रास्ट्रक्चर तबाह हो जाएगा.
ऋषिगंगा हाइडल प्रोजेक्ट
ऋषिगंगा हाइडल प्रोजेक्ट एक रन-ऑफ-रिवर हाइड्रोइलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट है. यह ऋषिगंगा नदी के विकास के लिए बनाया गया है. प्रोजेक्ट 13.4 मेगावॉट की क्षमता का है. उम्मीद है कि यहां से 59,031 मेगावॉट प्रतिघंटा की दर से बिजली उत्पादन होगा. लेकिन यह योजना 7 फरवरी 2021 को चमोली में आए फ्लैश फ्लड में बर्बार हो गई थी. इसके विरोध में 2019 में एक पीआईएल फाइल हुआ था. जिसमें कहा गया था कि निर्माणकर्ता कंपनी नदी को खतरे में डाल रही हैं. साथ ही रैणी गांव के लोगों की प्राकृतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक धरोहर को भी नुकसान है.
दिवेचा सेंटर ऑफ क्लाइमेट चेंज की 2018 की पॉलिसी रिपोर्ट में कहा गया था कि जब कोई पावर प्रोजेक्ट बनता है, तब वह पहले इलाके को प्रभावित करता है. लेकिन बाद में उसी इलाके की ताकतवर प्राकृतिक शक्ति उसे बुरी तरह से प्रभावित करती है. इस रिपोर्ट में एक और चेतावनी दी गई थी. कहा गया था कि साल 1991 के बाद से उत्तर-पश्चिम हिमालय का तापमान ग्लोबल औसत से ज्यादा बढ़ा है. यह 0.66 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है. नतीजा ये है कि उत्तर-पश्चिम हिमालय की सर्दियां पिछले 25 सालों में लगातार गर्म होती जा रही हैं.
अवैज्ञानिक तरीके से हो रहा शहरी विकास
बद्रीनाथ, हेमकुंड साहिब, वैली ऑफ फ्लावर्स जैसे धार्मिक और पर्यटन स्थल होने की वजह से जोशीमठ पर भार कई गुना बढ़ा. क्योंकि यह इन सभी जगहों का गेटवे है. साथ ही यहां की आबादी भी बढ़ी. अगर आप 1890 से लेकर अब के शहर की तुलना करोगे तो हैरान रह जाओगे. इतना अंतर देखने को मिलेगा कि आंखें फंटी रह जाएंगी. प्राकृतिक भूगोल, भौगोलिक असंतुलन, जंगलों का कटाव, अवैज्ञानिक तरीके से शहरीकरण, बेतरतीब निर्माण, तेज धमाके और ड्रिलिंग आदि ने मिलकर जोशीमठ की हालत खराब कर दी.
प्राकृतिक वजहें, जैसे नदियों से हो रहा कटाव
1976 की मिश्रा कमेटी की रिपोर्ट देखें तो पता चलता है कि धौलीगंगा और अलकनंदा जोशीमठ को नीचे-नीचे काट रही थीं. ये भूस्खलन की स्थिति पैदा कर रही थीं. फरवरी 2021 में जब ऋषिगंगा फ्लैश फ्लड आया तो जोशीमठ के नीचे से काफी मिट्टी खिसक गई. वजह तेज धार से बहती नदी का बहाव. दूसरी वजह है शहर में बिना प्लानिंग के बना ड्रेनेज सिस्टम. पर्यटन स्थल होने की वजह से कॉमर्शियल इमारतें तेजी से बनती चली गईं.
ड्रेनेज फ्लो बिगड़ता चला गया. गंदा पानी रिसता रहा. जमीन अंदर से खोखली होती रही. प्राचीन मलबे को धंसाती रहीं. कमजोर करती रही. भूविज्ञानियों का कहना है कि कई दरारों की वजह से तो पानी का रिसाव और सीपेज सिस्टम है. ये भी पहाड़ के ऊपर की तरफ हो रहा है. पिछले साल सर्वे करने वाले वैज्ञानिकों ने भी यही कठिनाई बताई थी. (इनपुटः दीप्ति यादव)